मेरी अन्य वेबसाइट्स

Monday, 28 June 2021

अन्तोन चेखोव: पेश है उनकी ल‍िखी कहानी "ग‍िरग‍िट" जो आज भी उतनी ही प्रासंग‍िक है, पढ़‍िए


 एंटोन चेखोव का जन्म सेंट एंथनी द ग्रेट (17 जनवरी पुरानी शैली) के त्योहार के दिन 29 जनवरी 1860 को दक्षिणी रूस में अज़ोव सागर पर एक बंदरगाह टैगान्रोग में हुआ था। वह छह जीवित बच्चों में से तीसरा था। उनके पिता, पावेल एगोरोविच चेखोव, एक पूर्व सर्फ और उसकी यूक्रेनी पत्नी के बेटे, गांव ओलोवात्का (वोरोनिश गवर्नर) से था और एक किराने की दुकान से भाग गया। पैरिश गाना बजानेवाले, भक्त रूढ़िवादी ईसाई, और शारीरिक रूप से अपमानजनक पिता, पावेल चेखोव के एक निदेशक कुछ इतिहासकारों ने अपने बेटे के पाखंड के कई चित्रों के मॉडल के रूप में देखा है।


चेखोव की मां, येवगेनिया (मोरोज़ोवा), एक उत्कृष्ट कहानीकार थीं जिन्होंने पूरे रूस में अपने कपड़े-व्यापारी पिता के साथ अपनी यात्रा की कहानियों के साथ बच्चों का मनोरंजन किया था। चेखोव ने याद किया, "हमारी प्रतिभा हमें हमारे पिता से मिली," लेकिन हमारी मां से हमारी आत्मा।


अन्तोन चेखोव की प्रसिद्ध कहानी- ‘गिरगिट’ 


अन्तोन चेखोव की कहानी- ‘गिरगिट’ नौकरशाही के चरित्र को उजागर करती है। इस कहानी में पुलिस का जो चरित्र दिखाया गया है, वह आज भी वैसा ही है। कहानी में व्यंग्य की ऐसी तीक्ष्ण धार है जो पुलिसिया व्यवस्था पर कड़ी चोट करती है। खास बात यह है कि जब यह कहानी लिखी गई थी, तब से सौ साल से ज्यादा बीत जाने पर भी परिस्थिति जस की तस है। कहानी में भले ही तत्कालीन रूस की पुलिस व्यवस्था का चित्रण हुआ है, पर वह आज हमारे देश के लिए भी पूरी तरह सच है। यह कहानी हिंदी में बहुचर्चित रही है और इस पर आधारित नुक्कड़ नाटक भी खूब खेले गए हैं।   


कहानी ये है- 

पुलिस का दारोगा ओचुमेलोव नया ओवरकोट पहने, हाथ में एक बण्डल थामे बाजार के चौक से गुज़र रहा है। लाल बालों वाला एक सिपाही हाथ में टोकरी लिये उसके पीछे-पीछे चल रहा है। टोकरी जब्त की गयी झड़बेरियों से ऊपर तक भरी हुई है। चारों ओर ख़ामोशी…चौक में एक भी आदमी नहीं…दुकानों व शराबखानों के भूखे जबड़ों की तरह खुले हुए दरवाज़े ईश्वर की सृष्टि को उदासी भरी निगाहों से ताक रहे हैं। यहाँ तक कि कोई भिखारी भी आसपास दिखायी नहीं देता है।


“अच्छा! तो तू काटेगा? शैतान कहीं का!” ओचुमेलोव के कानों में सहसा यह आवाज़ आती है। “पकड़ लो, छोकरो! जाने न पाये! अब तो काटना मना है! पकड़ लो! आ…आह!”


कुत्ते के किकियाने की आवाज़ सुनायी देती है। ओचुमेलोव मुड़ कर देखता है कि व्यापारी पिचूगिन की लकड़ी की टाल में से एक कुत्ता तीन टाँगों से भागता हुआ चला आ रहा है। एक आदमी उसक पीछा कर रहा है – बदन पर छीट की कलफदार कमीज, ऊपर वास्कट और वास्कट के बटन नदारद। वह कुत्ते के पीछे लपकता है और उसे पकड़ने की कोशिश में गिरते-गिरते भी कुत्ते की पिछली टाँग पकड़ लेता है। कुत्ते की कीं-कीं और वही चीख़ – “जाने न पाये!” दोबारा सुनायी देती है। ऊँघते हुए लोग गरदनें दुकनों से बाहर निकल कर देखने लगते हैं, और देखते-देखते एक भीड़ टाल के पास जमा हो जाती है मानो ज़मीन फाड़ कर निकल आयी हो।


“हुजूर! मालूम पड़ता है कि कुछ झगड़ा-फसाद है!” सिपाही कहता है।


ओचुमेलोव बायीं ओर मुड़ता है और भीड़ की तरफ़ चल देता है। वह देखता है कि टाल के फाटक पर वही आदमी खड़ा है, जिसकी वास्कट के बटन नदारद हैं। वह अपना दाहिना हाथ ऊपर उठाये भीड़ को अपनी लहूलुहान उँगली दिखा रहा है। उसके नशीले चेहरे पर साफ़ लिखा लगता है, “तुझे मैंने सस्ते में न छोड़ा, साले!” और उसकी उँगली भी जीत का झण्डा लगती है। ओचुमेलोव इस व्यक्ति को पहचान लेता है। वह सुनार ख्रूकिन है। भीड़ के बीचोंबीच अगली टाँगें पसारे, अपराधी – एक सफ़ेद ग्रेहाउँड पिल्ला, दुबका पड़ा, ऊपर से नीचे तक काँप रहा है। उसका मुँह नकीला है और पीठ पर पीला दाग है। उसकी आँसू भरी आँखों में मुसीबत और डर की छाप है।


“क्‍या हंगामा मचा रखा है यहाँ?” ओचुमेलोव कन्धों से भीड़ को चीरते हुए सवाल करता है, “तुम उँगली क्यों ऊपर उठाये हो? कौन चिल्ला रहा था?”


“हुजूर! मैं चुपचाप अपनी राह जा रहा था,” ख्रूकिन अपने मुँह पर हाथ रख कर खाँसते हुए कहता है। मित्री मित्रिच से मुझे लकड़ी के बारे में कुछ काम था। एकाएक, मालूम नहीं क्यों, इस कमबख्त ने मेरी उँगली में काट लिया…हुजूर माफ़ करें, पर मैं कामकाजी आदमी ठहरा…और फिर हमारा काम भी बड़ा पेचीदा है। एक हफ्ते तक शायद मेरी यह उँगली काम के लायक न हो पायेगी। मुझे हरजाना दिलवा दीजिये। और, हुजूर, यह तो कानून में कहीं नहीं लिखा है कि ये मुए जानवर काटते रहें और हम चुपचाप बरदाश्त करते रहें…अगर हम सभी ऐसे ही काटने लगें, तब तो जीना दूभर हो जाये…”


“हुँह…अच्छा…” ओचुमेलोव गला साफ़ करके, त्योरियाँ चढ़ाते हुए कहता है, “ठीक है…अच्छा, यह कुत्ता है किसका? मैं इस बात को यहीं नहीं छोड़ुंगा! यों कुत्तों को छुट्टा छोड़ने का मजा चखा दूँगा! लोग कानून के मुताबिक नहीं चलते, उनके साथ अब सख्ती से पेश आना पड़ेगा! ऐसा जुरमाना ठोकूंगा कि दिमाग़ ठीक हो जायेगा बदमाश को! फ़ौरन समझ जायेगा कि कुत्तों और हर तरह के ढोर-डंगर को ऐसे छुट्टा छोड़ देने का क्या मतलब है! मैं ठीक कर दूँगा, उसे! येल्दीरिन! सिपाही को सम्बोधित कर दारोगा चिल्लाता है, पता लगाओ कि यह कुत्ता है किसका, और रिपोर्ट तैयार करो! कुत्ते को फ़ौरन मरवा दो! यह शायद पागल होगा…मैं पूछता हूँ यह कुत्ता है किसका?”


“यह शायद जनरल झिगालोव का हो!” भीड़ में से कोई कहता है। “जनरल झिगालोव का? हुँह…येल्दीरिन, जरा मेरा कोट तो उतारना…ओफ, बड़ी गर्मी है…मालूम पड़ता है कि बारिश होगी। अच्छा, एक बात मेरी समझ में नहीं आती कि इसने तुम्हें काटा कैसे?” ओचुमेलोव ख्रूकिन की ओर मुड़ता है। “यह तुम्हारी उँगली तक पहुँचा कैसे? यह ठहरा जरा सा जानवर और तुम पूरे लहीम-शहीम आदमी। किसी कील-वील से उँगली छील ली होगी और सोचा होगा कि कुत्ते के सिर मढ़ कर हरजाना वसूल कर लो। मैं ख़ूब समझता हूँ! तुम्हारे जैसे बदमाशों की तो मैं नस-नस पहचानता हूँ!”


“इसने उसके मुँह पर जलती हुई सिगरेट लगा दी, हुजूर! बस, यूँ ही मज़ाक़ में। और यह कुत्ता बेवक़ूफ़ तो है नहीं, उसने काट लिया। ओछा आदमी है यह हुजूर!”


“अबे! काने! झूठ क्यों बोलता है? जब तूने देखा नहीं, तो झूठ उड़ाता क्यों है? और सरकार तो ख़ुद समझदार हैं। सरकार ख़ुद जानते हैं कि कौन झूठा है और कौन सच्चा। और अगर मैं झूठा हूँ, तो अदालत से फैसला करा लो। कानून में लिखा है…अब हम सब बराबर हैं, ख़ुद मेरा भाई पुलिस में है…बताये देता हूँ…हाँ…”


“बन्द करो यह बकवास!”


“नहीं, यह जनरल साहब का नहीं है,” सिपाही गंभीरतापूर्वक कहता है “उनके पास ऐसा कोई कुत्ता है ही नहीं, उनके तो सभी कुत्ते शिकारी पोण्टर हैं।


“तुम्हें ठीक मालूम है?”


“जी, सरकार।”


“मैं भी जानता हूँ। जनरल साहब के सब कुत्ते अच्छी नस्ल के हैं, एक से एक कीमती कुत्ता है उनके पास। और यह! यह भी कोई कुत्तों जैसा कुत्ता है, देखो न! बिल्कुल मरियल खारिश्ती है। कौन रखेगा ऐसा कुत्ता? तुम लोगों का दिमाग़ तो खराब नहीं हुआ? अगर ऐसा कुत्ता मास्को या पीटर्सबर्ग में दिखायी दे, तो जानते हो क्या हो? कानून की परवाह किये बिना एक मिनट में उसकी छुट्टी कर दी जाये! ख्रूकिन! तुम्हें चोट लगी है और तुम इस मामले को यूँ ही मत टालो…इन लोगों को मजा चखाना चाहिए! ऐसे काम नहीं चलेगा।”


“लेकिन मुमकिन है, जनरल साहब का ही हो…” कुछ अपने आपसे सिपाही फिर कहता है, “इसके माथे पर तो लिखा नहीं है। जनरल साहब के अहाते में मैंने कल बिल्कुल ऐसा ही कुत्ता देखा था।”


“हाँ, हाँ, जनरल साहब का ही तो है!” भीड़ में से किसी की आवाज़ आती है।


“हुँह…येल्दीरिन, जरा मुझे कोट तो पहना दो…हवा चल पड़ी है, मुझे सरदी लग रही है…कुत्ते को जनरल साहब के यहाँ ले जाओ और वहाँ मालूम करो। कह देना कि इसे सड़क पर देख कर मैंने वापस भिजवाया है…और हाँ, देखो, यह भी कह देना कि इसे सड़क पर न निकलने दिया करें…मालूम नहीं कितना कीमती कुत्ता हो और अगर हर बदमाश इसके मुँह में सिगरेट घुसेड़ता रहा, तो कुत्ता तबाह हो जायेगा। कुत्ता बहुत नाजुक जानवर होता है…और तू हाथ नीचा कर, गधा कहीं का! अपनी गन्दी उँगली क्यों दिखा रहा है? सारा कुसूर तेरा ही है…


“यह जनरल साहब का बावर्ची आ रहा है, उससे पूछ लिया जाये। ए प्रोखोर! इधर तो आना भाई! इस कुत्ते को देखना, तुम्हारे यहाँ का तो नहीं है?”


“अमाँ वाह! हमारे यहाँ कभी भी ऐसे कुत्ते नहीं थे!”


“इसमें पूछने की क्या बात थी? बेकार वक्त खराब करना है,” ओचुमेलोव कहता है, “आवारा कुत्ता है। यहाँ खड़े-खड़े इसके बारे में बात करना समय बरबाद करना है। कह दिया न आवारा है, तो बस आवारा ही है। मार डालो और काम ख़त्म!”


“हमारा तो नहीं है,” प्रोखोर फिर आगे कहता है, “पर यह जनरल साहब के भाई साहब का कुत्ता है। उनको यह नस्ल पसन्द है…”


“क्‍या? जनरल साहब के भाई साहब आये हैं? व्लीदीमिर इवानिच?” अचम्भे से ओचुमेलोव बोल उठता है, उसका चेहरा आह्लाद से चमक उठता है। “जरा सोचो तो! मुझे मालूम भी नहीं! अभी ठहरेंगे क्या?”


“हाँ…”


“जरा सोचो, वह अपने भाई से मिलने आये हैं…और मुझे मालूम भी नहीं कि वह आये हैं। तो यह उनका कुत्ता है? बड़ी ख़ुशी की बात है। इसे ले जाओ…कुत्ता अच्छा…और कितना तेज़़ है…इसकी उँगली पर झपट पड़ा! हा-हा-हा…बस-बस, अब काँप मत। गुर्र-गुर्र…शैतान गुस्से में है…कितना बढ़िया पिल्ला है…”


प्रोखोर कुत्ते को बुलाता है और उसे अपने साथ ले कर टाल से चल देता है। भीड़ ख्रूकिन पर हसने लगती है।


“मैं तुझे ठीक कर दूँगा,” ओचुमेलोव उसे धमकाता है और अपना ओवरकोट लपेटता हुआ बाजार के चौक के बीच अपने रास्ते चल देता है।


(1884)

प्रस्‍तुत‍ि- अलकनंदा स‍िंह


16 comments:

  1. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार(29 -6-21) को "मन की बात नहीं कर पाया"(चर्चा अंक- 4110 ) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
    --
    कामिनी सिन्हा

    ReplyDelete
    Replies
    1. धन्‍यवाद काम‍िनी जी

      Delete
  2. बिल्कुल सही कहा आपने पल में तोला पल में माशा,हमारी भारतीय ... बिल्कुल रुख देखकर पल पल रंग बदलती
    गिरगिट सही सटीक।
    सामायिक सी है कथा।
    रोचक सटीक।

    ReplyDelete
    Replies
    1. धन्‍यवाद कुसुम जी

      Delete
  3. शताब्दी से भी ज़्यादा पहले लिखी गयी ये कहानी आज तो उस समय से भी ज़्यादा प्रासंगिक है,ख़ासतौर से हमारे देश में,क्या कहा जाय,तब से आज तक गिरगिट अपना रंग बदल रहा है,बहुत ही यथाथपूर्ण कहानी।

    ReplyDelete
    Replies
    1. धन्‍यवाद जि‍ज्ञासा जी

      Delete
  4. बड़ी अच्छी जानकारी के साथ बहुत ही रोचक कहानी से अवगत कराया आपने।
    पुलिस वाले भी वफ़ादार निकले अपने अफ़सर के 😄
    कर्तव्य के वफ़ादार तो कोई विरले ही होते हैं।

    पुलिस पर ही लिखी पाश की कविता है जो मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट है आप आएं- पुलिस के सिपाही से by पाश
    ब्लॉग अच्छा लगे तो फॉलो जरुर करना ताकि आपको नई पोस्ट की जानकारी मिलती रहे.

    ReplyDelete
    Replies
    1. धन्‍यवाद रोह‍ितरस जी, जरूर आपका ब्‍लॉग भी पढ़ेंगे

      Delete
  5. रोचक ... आपकी जानकारी और कहानी तो जैसे सामयिक, सजीव है आज के समय अनुसार भी ...
    ऐसी कहानियां समाज के चरित्र को बाखूबी लिखती हैं ...

    ReplyDelete
    Replies
    1. धन्‍यवाद नासवा जी

      Delete
  6. बहुत ही रोचक कहानी और अच्छी जानकारी

    ReplyDelete
    Replies
    1. धन्‍यवाद मनोज जी

      Delete
  7. वाह!बहुत ख़ूब।
    मुखौटे पर मुखौटे जाने कितने मुखौटे।
    समय के साथ कितना कुछ बदला परंतु नहीं बदली वह है व्यवस्था।
    बहुत बहुत शुक्रिया इतनी सुंदर कहानी पढ़वाने हेतु आदरणीय दी।
    सादर

    ReplyDelete
    Replies
    1. धन्‍यवाद अनीता जी

      Delete
  8. प्रभावशाली अनुवाद - - कालजयी कथा - - अभिनन्दन सह।

    ReplyDelete
    Replies
    1. धन्‍यवाद शांतनु जी

      Delete