आज तो सुमित्रानंदन पंत का जन्मदिन है, तो चलिए इसी बात पर हो जाए उनकी दो कविताऐं जो हमें अपनी जड़ों तक ले जायेंगी। वरना कौन ऐसा कर सकता है कि सात वर्ष की उम्र में, जब वे चौथी कक्षा में ही पढ़ रहे थे, उन्होंने कविता लिखना शुरु कर दिया था….।
सुमित्रानंदन पंत हिंदी साहित्य में छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक हैं। इस युग को जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ और रामकुमार वर्मा जैसे कवियों का युग कहा जाता है। उनका जन्म उत्तराखंड के कौसानी, बागेश्वर में हुआ था। झरना, बर्फ, पुष्प, लता, भ्रमर-गुंजन, उषा-किरण, शीतल पवन, तारों की चुनरी ओढ़े गगन से उतरती संध्या ये सब तो सहज रूप से काव्य का उपादान बने। निसर्ग के उपादानों का प्रतीक व बिम्ब के रूप में प्रयोग उनके काव्य की विशेषता रही। उनका व्यक्तित्व भी आकर्षण का केंद्र बिंदु था। गौर वर्ण, सुंदर सौम्य मुखाकृति,माथे पर पड़े हुए लंबे घुंघराले बाल,सुगठित शारीरिक सौष्ठव उन्हें सभी से अलग मुखरित करता था।
पहली कविता: तितली जिसका रचनाकाल: मई’१९३५ है…
नीली, पीली औ’ चटकीली
पंखों की प्रिय पँखड़ियाँ खोल,
प्रिय तिली! फूल-सी ही फूली
तुम किस सुख में हो रही डोल?
चाँदी-सा फैला है प्रकाश,
चंचल अंचल-सा मलयानिल,
है दमक रही दोपहरी में
गिरि-घाटी सौ रंगों में खिल!
तुम मधु की कुसुमित अप्सरि-सी
उड़-उड़ फूलों को बरसाती,
शत इन्द्र चाप रच-रच प्रतिपल
किस मधुर गीति-लय में जाती?
तुमने यह कुसुम-विहग लिवास
क्या अपने सुख से स्वयं बुना?
छाया-प्रकाश से या जग के
रेशमी परों का रंग चुना?
क्या बाहर से आया, रंगिणि!
उर का यह आतप, यह हुलास?
या फूलों से ली अनिल-कुसुम!
तुमने मन के मधु की मिठास?
चाँदी का चमकीला आतप,
हिम-परिमल चंचल मलयानिल,
है दमक रही गिरि की घाटी
शत रत्न-छाय रंगों में खिल!
–चित्रिणि! इस सुख का स्रोत कहाँ
जो करता निज सौन्दर्य-सृजन?
’वह स्वर्ग छिपा उर के भीतर’–
क्या कहती यही, सुमन-चेतन?
दूसरी कविता चींटी
चींटी को देखा?
वह सरल, विरल, काली रेखा
तम के तागे सी जो हिल-डुल,
चलती लघु पद पल-पल मिल-जुल,
यह है पिपीलिका पाँति! देखो ना, किस भाँति
काम करती वह सतत, कन-कन कनके चुनती अविरत।
गाय चराती, धूप खिलाती,
बच्चों की निगरानी करती
लड़ती, अरि से तनिक न डरती,
दल के दल सेना संवारती,
घर-आँगन, जनपथ बुहारती।
चींटी है प्राणी सामाजिक,
वह श्रमजीवी, वह सुनागरिक।
देखा चींटी को?
उसके जी को?
भूरे बालों की सी कतरन,
छुपा नहीं उसका छोटापन,
वह समस्त पृथ्वी पर निर्भर
विचरण करती, श्रम में तन्मय
वह जीवन की तिनगी अक्षय।
वह भी क्या देही है, तिल-सी?
प्राणों की रिलमिल झिलमिल-सी।
दिनभर में वह मीलों चलती,
अथक कार्य से कभी न टलती।
सुमित्रानंदन पंत की इन दो ही कविताओं में अपना बचपन ढूढ़ने वाले हम उन्हें अपनी विनम्र श्रद्धांजलि देते हैं।
सच कहूँ तो इन छायवादी चतुष्टयों के साथ दिनकर और गुप्त जी ने मेरे मन में कविताओं के प्रति आकर्षण का बीज डाला। हम बचपन में पंत जी के परिचय में एक पंक्ति बड़े चाव से लिखते थे जो आज तक नहीं भूले (यह परिचय हमने उस समय की एक लोकप्रिय पुस्तक कल्पतरु से चुराया था) - "यदि चंदन की तुनुक लचकीली लकड़ी पर दूध की छाली का लेप चढ़ा दिया जाय तो जो प्रतिमा बनेगी, वह हैं श्री सुमित्रा नंदन पंतजी!" फिर बाद में यह भी पता चला कि 'सुश्री' शब्द का अविष्कार पंत जी ने ही किया। निराला के साथ रेल यात्रा के दौरान उनका एक मनोरंजक क़िस्सा भी जाना जब चादर ओढ़ कर एक बर्थ पर पंत जी सोए थे। उनके केवल लंबे बाल चादर से बाहर लटक रहे थे। एक व्यक्ति उनके सिर के पास थोड़ी जगह में बैठ गया। साथ में चल रहे बड़ी मूँछों और मर्दाना शरीर वाले निराला ने उसे डाँटकर उठा दिया, " देखते नहीं, फ़ेमीली जा रही है" वह बेचारा सहमकर उठा और बग़ल वाले डिब्बे में चला गया। पंत जी की कविता 'नौका-विहार' पढ़ते-पढ़ते आज भी मन एक दार्शनिक अन्दाज़ में झूमने लगता है। उनके जन्मदिन पर उनकी कवितायें साझा करने के लिए आपको साधुवाद और अशेष शुभकामनाएँ!
ReplyDeleteवाह विश्वमोहन जी, "यदि चंदन की तुनुक लचकीली लकड़ी पर दूध की छाली का लेप चढ़ा दिया जाय तो जो प्रतिमा बनेगी, वह हैं श्री सुमित्रा नंदन पंतजी!"... इतनी अच्छी जानकारियों को साझा करने के लिए आपका आभार ... बहुत बढ़िया
Deleteअत्यंत सुंदर प्रस्तुति आदरणीय अलक जी -- सुकोमल , सुकुमार कवि के नाम | हिंदी साहित्य धन्य है इस पुरोधा से |सुकोमल लेखन से इतर भी मानवीय बिंदुओं को उनका लेखन मार्मिकता से प्रस्तुत करने में सक्षम है | उनके लिए कुछ कहें तो सूर्य को दीपक दिखाने के बराबर है | उनकी कविताओं से प्रकृतिप्रेम का एक सरस राग फूटता है जो अंतस को गहरे स्पर्श करता है | कविराज को उनके अवतरण दिवस पर कोटि नमन -- किसान पर लिखी उनकी मार्मिक पंक्तियों के साथ --
ReplyDeleteअंधकार की गुहा सरीखी
उन आंखों से डरता है मन,
भरा दूर तक उनमें दारुण
दैन्य दुख का नीरव रोदन!
अह, अथाह नैराश्य,
विवशता का
उनमें भीषण सूनापन,
मानव के पाशव पीड़न का
देतीं वे निर्मम विज्ञापन!
अमर कवि को समर्पित इस प्रस्तुति और उनकी अमर रचनाओं के उपहार के लिए आपको सस्नेह आभार |
जी , सही लिखा रेणु जी, ''वे आँखें'' शीर्षक की इस कविता को पढ़कर कोई भी किसान और गांव के कष्टप्रद जीवन का अंदाजा लगा सकता है.... बहुत खूब रेणु जी...
Deleteनमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में गुरुवार 21 मई 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
धन्यवाद रवींद्र जी
Deleteपन्त जी की सुन्दर रचनाएँ।
ReplyDeleteमेरा नमन प्रकृति के सुकुमार कवि को।
धन्यवाद शास्त्री जी
Deleteपंत जी की अप्रतिम रचनाएँ व सुधी पाठकों की सुंदर प्रतिक्रियाएं पढ़कर आनंद का अनुभव हुआ, कवि को शत शत नमन !
ReplyDeleteधन्यवाद अनीता जी
Deleteपन्त जी की कविताएं जब भी पढ़ता हूँ खुद को एक अलग दुनिया में पाता हूँ.... अभी चींटियों से मिलकर आ रहा हूँ...
ReplyDeleteआपके लेख में मौजूद ताजगी के कारण मुझे यह विषय पढ़ने में बहुत आनंद आया। मेरा यह लेख भी पढ़ें सुमित्रानंदन पंत जीवन परिचय.
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