ग्वालियर। देश के प्रख्यात हास्य कवि प्रदीप चौबे का पिछले साल आज के ही दिन ग्वालियर में दिल का दौरा पड़ने से निधन हुआ था।
प्रदीप चौबे मंच के प्रथम श्रेणी के हास्य कवि थे। उनकी कई रचनाएं प्रसिद्ध हैं जिनमें ‘आलपिन’, ‘खुदा गायब है’, ‘चुटकुले उदास हैं’ और ‘हल्के-फुल्के’ शामिल हैं।
प्रदीप चौबे ने सैकड़ों कवि सम्मेलनों में हिस्सा लेकर अपनी हास्य-व्यंग्य की रचनाओं से लोगों को जमकर हंसाया। उनका जन्म 26 अगस्त 1949 को महाराष्ट्र के चंद्रपुर में हुआ था। चौबे ग्वालियर आकर बस गए और फिर यहीं के होकर रह गए।
हास्य कवि होने के साथ प्रदीप चौबे पहले देना बैंक में नौकरी करते थे, लेकिन कवि सम्मेलनों की व्यस्तता के कारण उन्होंने बैंक की नौकरी छोड़ दी और पूरा समय कविताओं को देने लगे। उनके बड़े भाई शैल चतुर्वेदी भी हास्य कवि रहे हैं।
प्रदीप चौबे मंच के प्रथम श्रेणी के हास्य कवि थे। उनकी कई रचनाएं प्रसिद्ध हैं जिनमें ‘आलपिन’, ‘खुदा गायब है’, ‘चुटकुले उदास हैं’ और ‘हल्के-फुल्के’ शामिल हैं।
प्रदीप चौबे ने सैकड़ों कवि सम्मेलनों में हिस्सा लेकर अपनी हास्य-व्यंग्य की रचनाओं से लोगों को जमकर हंसाया। उनका जन्म 26 अगस्त 1949 को महाराष्ट्र के चंद्रपुर में हुआ था। चौबे ग्वालियर आकर बस गए और फिर यहीं के होकर रह गए।
हास्य कवि होने के साथ प्रदीप चौबे पहले देना बैंक में नौकरी करते थे, लेकिन कवि सम्मेलनों की व्यस्तता के कारण उन्होंने बैंक की नौकरी छोड़ दी और पूरा समय कविताओं को देने लगे। उनके बड़े भाई शैल चतुर्वेदी भी हास्य कवि रहे हैं।
भ्रष्टाचार पर तंज करती प्रदीप चौबे की कविता : हर तरफ गोलमाल है साहब
हर तरफ गोलमाल है साहब
आपका क्या ख़याल है साहब
हर तरफ गोलमाल है साहब
आपका क्या ख़याल है साहब
कल का ‘भगुआ’ चुनाव जीता तो,
आज ‘भगवत दयाल’ है साहब
आज ‘भगवत दयाल’ है साहब
लोग मरते रहें तो अच्छा है,
अपनी लकड़ी की टाल है साहब
अपनी लकड़ी की टाल है साहब
आपसे भी अधिक फले-फूले
देश की क्या मजाल है साहब
देश की क्या मजाल है साहब
मुल्क मरता नहीं तो क्या करता
आपकी देख भाल है साहब
आपकी देख भाल है साहब
रिश्वतें खाके जी रहे हैं लोग
रोटियों का अकाल है साहब
रोटियों का अकाल है साहब
जिस्म बिकते हैं, रूह बिकती हैं,
ज़िंदगी का सवाल है साहब
ज़िंदगी का सवाल है साहब
आदमी अपनी रोटियों के लिए
आदमी का दलाल है साहब
आदमी का दलाल है साहब
इसको डेंगू, उसे चिकनगुनिया
घर मेरा अस्पताल है साहब
घर मेरा अस्पताल है साहब
तो समझिए पात-पात हूं मैं,
वे अगर डाल-डाल हैं साहब
वे अगर डाल-डाल हैं साहब
गाल चांटे से लाल था अपना
लोग समझे गुलाल है साहब
लोग समझे गुलाल है साहब
मौत आई तो ज़िंदगी ने कहा-
‘आपका ट्रंक काल है साहब’
‘आपका ट्रंक काल है साहब’
मरता जाता है, जीता जाता है
आदमी का कमाल है साहब
आदमी का कमाल है साहब
इक अधूरी ग़ज़ल हुई पूरी
अब तबीयत बहाल है साहब ।।
अब तबीयत बहाल है साहब ।।
प्रदीप चौबे की कविता: हम अपनी शवयात्रा का आनंद ले रहे थे
हम अपनी शवयात्रा का आनंद ले रहे थे
लोग हमें ऊपर से कंधा और अंदर से गालियां दे रहे थे
एक धीरे से बोला- साला क्या भारी है
दूसरा बोला- भाईसाहब ट्रक की सवारी है
और ट्रक ने भी मना कर दिया तो हमारे कंधों पर जा ही है
लोग हमें ऊपर से कंधा और अंदर से गालियां दे रहे थे
एक धीरे से बोला- साला क्या भारी है
दूसरा बोला- भाईसाहब ट्रक की सवारी है
और ट्रक ने भी मना कर दिया तो हमारे कंधों पर जा ही है
एक हमारे ऑफ़िस का मित्र बोला
एक हमारे बैंक का मित्र बोला –
कि इसे मरना ही था तो संडे को मरता
कहां मंडे को मर गया बेदर्दी
एक ही तो छुट्टी बची थी
कमबख़्त ने उस की भी हत्या कर दी
एक हमारे बैंक का मित्र बोला –
कि इसे मरना ही था तो संडे को मरता
कहां मंडे को मर गया बेदर्दी
एक ही तो छुट्टी बची थी
कमबख़्त ने उस की भी हत्या कर दी
एक और बोला- कि हां यार
काम तो हमारा भी अटक गया
आज बिजली का बिल जमा करने की लास्ट डेट थी
तो यहां पर अटक गया
अब कल जो पैनल्टी भरना पड़ेगा
उसका पैसा क्या इसका बाप देगा
काम तो हमारा भी अटक गया
आज बिजली का बिल जमा करने की लास्ट डेट थी
तो यहां पर अटक गया
अब कल जो पैनल्टी भरना पड़ेगा
उसका पैसा क्या इसका बाप देगा
एक मित्र जो वाकई दुखी हो रहा था
बेचारा फूट-फूट के रो रहा था
उससे पूछा किसी ने कि-
क्या तेरा मरने वाले से इतना प्रेम था
जो उसके लिए थोक में आंसू बहा रहा है
वो बोला- मरने वाले को मारो गोली भाईसाहब
हमको तो अपना सौ रुपए का नोट याद आ रहा है
बेचारा फूट-फूट के रो रहा था
उससे पूछा किसी ने कि-
क्या तेरा मरने वाले से इतना प्रेम था
जो उसके लिए थोक में आंसू बहा रहा है
वो बोला- मरने वाले को मारो गोली भाईसाहब
हमको तो अपना सौ रुपए का नोट याद आ रहा है
हमने अपने बाप से लेके दिया था
और अभी तो ब्याज भी नहीं लिया था
कि ये इंटरवल में ही मर गया
साला हमारे लिए कितना टैंशन कर गया
अब तुम हमारे बाप को नहीं जानते
इतना कंजूस है कि लोग हमको उसका बेटा ही नहीं मानते
और अभी तो ब्याज भी नहीं लिया था
कि ये इंटरवल में ही मर गया
साला हमारे लिए कितना टैंशन कर गया
अब तुम हमारे बाप को नहीं जानते
इतना कंजूस है कि लोग हमको उसका बेटा ही नहीं मानते
आपस में फुसफुसाते हैं कि
कंजूस ने बेटा कैेसे पैदा कर लिया
अब बताओ ऐसी कड़की में ये मर गया
अब हम अपने बाप को क्या मुंह दिखाएंगे
उनको पता चलेगा तो सौ रुपए के लिए
हमके बेच आएंगे
कंजूस ने बेटा कैेसे पैदा कर लिया
अब बताओ ऐसी कड़की में ये मर गया
अब हम अपने बाप को क्या मुंह दिखाएंगे
उनको पता चलेगा तो सौ रुपए के लिए
हमके बेच आएंगे
तभी हमारे मोहल्ले का कुल्फ़ी वाला आगे आया
और उसने अपना कंधा जैसे ही हमारी अर्थी को लगाया
कमबख़्त के मुंह से आवाज़ आयी
ठंडी-मीठ बरफ़ मलाई
कोई पीछे से बोला- कमाल है भाई
यहां पर भी धंधा
दुकान लगा रहे हो कि कंधा
और उसने अपना कंधा जैसे ही हमारी अर्थी को लगाया
कमबख़्त के मुंह से आवाज़ आयी
ठंडी-मीठ बरफ़ मलाई
कोई पीछे से बोला- कमाल है भाई
यहां पर भी धंधा
दुकान लगा रहे हो कि कंधा
वो बोला- क्षमा करें, क्षमा करें
मुंह से निकल गया को क्या करें
ऐसा नहीं कि मैं शवयात्रा के कायदे कानून नहीं जानता
पर कमबख़्त इस मुंह को क्या करूं जो नहीं मानता
जैसे ही कोई वज़नदार सामान कंधे पर आता है
मुंह से बर्फ़-मलाई पहले निकल जाता है
मुंह से निकल गया को क्या करें
ऐसा नहीं कि मैं शवयात्रा के कायदे कानून नहीं जानता
पर कमबख़्त इस मुंह को क्या करूं जो नहीं मानता
जैसे ही कोई वज़नदार सामान कंधे पर आता है
मुंह से बर्फ़-मलाई पहले निकल जाता है
दोस्तों जून का महीना था
हर आदमी पसीना-पसीना था
एक अर्थी ढोऊ बोला –
यार क्या भयंकर धूप है
दूसरा बोला- मरने वाला भी ख़ूब है
मरा भी तो जून में
अरे इस समय तो आदमी को होना चाहिए देहरादून में
हर आदमी पसीना-पसीना था
एक अर्थी ढोऊ बोला –
यार क्या भयंकर धूप है
दूसरा बोला- मरने वाला भी ख़ूब है
मरा भी तो जून में
अरे इस समय तो आदमी को होना चाहिए देहरादून में
ये थोड़े दिन और इंतज़ार करता
तो जनवरी में आराम से नहीं मरता
अपन भी जल्दी से घर भाग लेते
जितनी देर बैठते सर्दी में
आग तो ताप लेते
भला मरने के लिए जून का महीना कितना बोर है
तभी कोई और बोला-
हां यार सर्दियों में मरने का मज़ा ही कुछ और है
तो जनवरी में आराम से नहीं मरता
अपन भी जल्दी से घर भाग लेते
जितनी देर बैठते सर्दी में
आग तो ताप लेते
भला मरने के लिए जून का महीना कितना बोर है
तभी कोई और बोला-
हां यार सर्दियों में मरने का मज़ा ही कुछ और है
तभी पीछे से आवाज़ आयी-
अच्छा बड़े भाई
आप तो जनवरी में ही मरेंगे
वे बोले- नहीं, हम फ़रवरी में ही प्रस्थान करेंगे
जनवरी में हमारा इन्क्रीमेंट आता है
भला हिंदुस्तानी कर्मचारी भी
कहीं अपनी वेतन वृद्धि छोड़कर जाता है
अच्छा बड़े भाई
आप तो जनवरी में ही मरेंगे
वे बोले- नहीं, हम फ़रवरी में ही प्रस्थान करेंगे
जनवरी में हमारा इन्क्रीमेंट आता है
भला हिंदुस्तानी कर्मचारी भी
कहीं अपनी वेतन वृद्धि छोड़कर जाता है
तभी शायद किसी को शमशान दीखा
वो मारे प्रसन्नता के चीखा
कि राम नाम सत्य है
एक अधमरा बोला कि
भैया दरअसल मर तो हम रहे हैं
मुर्दो तो साला अपनी जगह मस्त है
वो मारे प्रसन्नता के चीखा
कि राम नाम सत्य है
एक अधमरा बोला कि
भैया दरअसल मर तो हम रहे हैं
मुर्दो तो साला अपनी जगह मस्त है
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (13-04-2020) को 'नभ डेरा कोजागर का' (चर्चा अंक 3670) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
*****
रवीन्द्र सिंह यादव
धन्यवाद रवींद्र जी, मेरी ब्लॉगपोस्ट को चर्चामंच में शामिल करने के लिए
Deleteविनम्र श्रद्धांजलि।
ReplyDeleteबहुत खूब
ReplyDeleteधन्यवाद ओंकार जी
Deleteकमाल का सृजन
ReplyDeleteप्रख्यात हास्य कवि प्रदीप चौबे की प्रथम पुण्यतिथि
पर उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि।
धन्यवाद सुधा जी , आपका कमेंट बहुमूल्य है
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