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Wednesday, 25 December 2019

हिंदी के शीर्षस्थ रचनाकार डॉ. गंगा प्रसाद विमल...अलव‍िदा

हिंदी साहित्य जगत के लिए बहुत दुखद क्षण है। अत्यंत दुखद सूचना है कि हिंदी के शीर्षस्थ रचनाकार डॉ. गंगा प्रसाद विमल हमारे बीच नहीं रहे। घटना 3 दिन पहले की है। श्री लंका भ्रमण के लिए गये विमल जी की मौत कार दुर्घटना में हुई। उनके साथ उनकी पुत्री और पोते का भी निधन हो गया। उनका पार्थिव शरीर आज या कल में दिल्ली पहुंचने की संभावना है।


3 जुलाई 1939 को उत्तराखंड के उत्तरकाशी में जन्मे डॉ. गंगा प्रसाद विमल हिन्दी साहित्य में अकहानी आंदोलन के जनक के रूप में जाने जाते हैं लेकिन उनकी रचना धर्मिता का सिर्फ एक आयाम नहीं है। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी लेखक रहे हैं। उन्‍होंने आलोचना के अतिरिक्त कविता, कहानी, उपन्यास और नाटक लेखन व एक कुशल अनुवादक के रूप में भी हिंदी समाज को समृद्ध किया है।


विमल जी वह साहित्य की बहुमुखी विधा के विरले सृजनधर्मी थे। अब तक उनके सात कविता संग्रह- ‘बोधि-वृक्ष’, ‘नो सूनर’, ‘इतना कुछ’, ‘सन्नाटे से मुठभेड़’, ‘मैं वहाँ हूँ’, ‘अलिखित-अदिखत’, ‘कुछ तो है’, प्रकाशित हो चुके हैं। कहानी संग्रहों में- कोई शुरुआत, अतीत में कुछ, इधर-उधर, बाहर न भीतर, खोई हुई थाती, भी लोकप्रिय संग्रहों में से हैं। चार उपन्यास-अपने से अलग, कहीं कुछ और, मरीचिका, मृगांतक, और ‘आज नहीं कल’ शीर्षक से एक नाटक और आलोचना पर तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।


डॉ. गंगा प्रसाद विमल को साहित्य सृजन और सांस्कृतिक अवदानों के लिये अनेक पुरस्कारों और सम्मानों से नवाज़ा गया-


पोएट्री पीपुल्स प्राइज़ (1978),
रोम में आर्ट यूनीवर्सिटी द्वारा 1971 में पुरस्कृत
नेशनल म्यूज़ियम ऑफ़ लिटरेचर, सोफ़िया में गोल्ड मेडल (1979)
बिहार सरकार द्वारा ‘दिनकर पुरस्कार’ (1987)
इंटरनेशनल ओपेन स्कॉटिश पोएट्री प्राईज़ (1988)
भारतीय भाषा पुरस्कार, भारतीय भाषा परिषद (1992)
महात्मा गांधी सम्मान, उत्तर प्रदेश, (2016)



कई सरकारी सेवाओं से जुड़े रहकर, विशाल व्यक्तित्व धारण किए विमल जी न केवल देशभर में बल्कि विदेशों में भी शोधपत्र, कहानी और कविता पाठ के लिए जाते रहे हैं। इतना सबकुछ होने के बावजूद इनमें किसी भी तरह का दंभ, अहं या सर्वश्रेष्ठ होने का अभिमान तथा भाव कहीं नहीं झलकता।

Saturday, 14 December 2019

जॉन एलिया एक ख़ूबसूरत जंगल हैं, जिसमें झरबेरियां हैं, कांटे हैं...

उर्दू के महान शायर जॉन एलिया का जन्‍म 14 दिसंबर 1931 को उत्तर प्रदेश के अमरोहा जिले के एक मशहूर ख़ानदान में हुआ था। बाद में जॉन पाकिस्‍तान जाकर बस गए और वहीं 8 नवंबर 2004 को कराची में उनका इंतकाल हुआ।
उनके वालिद अल्लामा शफ़ीक़ हसन एलिया अदब में ख़ासी दिलचस्पी रखते थे और शायर होने के साथ साथ नजूमी भी थे। जॉन घर में सब से छोटे थे और महज़ 8 बरस की उम्र में पहला शेर कह चुके थे। उर्दू और फ़ारसी में मास्टर्स की डिग्री, बहुत सी किताबों का तर्जुमा और शायरी के मजमुए इनकी अदबी हैसियत की अलामत हैं। वह 1957 में पाकिस्तान हिजरत कर गए और उसके बाद कराची में आबाद हो गए। वह अब के शायरों में सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले शायर माने जाते हैं। शायद, यानी, गोया, गुमाँ, लेकिन इनके प्रमुख संग्रह हैं। जॉन सिर्फ पाकिस्तान में ही नहीं, हिंदुस्तान व पूरे विश्व में अदब के साथ पढ़े और जाने जाते हैं। पाकिस्तान में रहते हुए भी अपने जन्मस्थान अमरोहा (भारत) अमरोहा को कभी भूल नहीं पाए।
एक उर्दू पत्रिका थी ‘इंशा’। इसी को निकालने के दौरान जाहिदा हिना से जॉन की मुलाकात हुई। इश्क हुआ। शादी हुई और तीन बच्चे भी हुए लेकिन रिश्ता ज्यादा दिन चल नहीं पाया। फिर हुआ 1984 में तलाक। खफा मिजाज के जॉन गम में डूब गए। शायरी से लेकर जिंदगी तक में खुद को बर्बाद करने की बात करने लगे।
जॉन के बारे में लिखते हुए कुमार विश्वास कहते हैं कि जॉन एक ख़ूबसूरत जंगल हैं, जिसमें झरबेरियां हैं, कांटे हैं, उगती हुई बेतरतीब झाड़ियां हैं, खिलते हुए बनफूल हैं, बड़े-बड़े देवदार हैं, शीशम हैं, चारों तरफ़ कूदते हुए हिरन हैं, कहीं शेर भी हैं, मगरमच्छ भी हैं।
जॉन आपको दो तरह से मिलते हैं, एक दर्शन में एक प्रदर्शन में। प्रदर्शन का जॉन वह है जो आप आमतौर पर किसी भी मंच से पढ़ें तो श्रोताओं में ख़ूब कोलाहल मिलता है। दर्शन का जॉन वह है जो आप चुनिंदा मंचों पर पढ़ सकते हैं और श्रोता उन्हें अपने घर ले जा सकते हैं।
अंग्रेजी साहित्यकार विलियम वर्ड्सवर्थ ने कहा था कि ”पोएट्री इज़ द स्पोंटेनियस ओवरफ्लो ऑफ़ द पावरफुल फीलिंग” यानि अनुभूतियों या संवेदनाओं का छलक जाना ही कविता है। जॉन एलिया ने अपनी शायरी में कभी कोई सीमारेखा नहीं खींची। उन्होंने ज़िंदगी के हर उतार-चढ़ाव को न सिर्फ़ शायरी में ढाला बल्कि उसको मस्ती से जिया भी।
प्रस्तुत है उनकी 3 चुनिंदा ग़ज़लें-
बे-क़रारी सी बे-क़रारी है
वस्ल है और फ़िराक़ तारी है
जो गुज़ारी न जा सकी हम से
हम ने वो ज़िंदगी गुज़ारी है
निघरे क्या हुए कि लोगों पर
अपना साया भी अब तो भारी है
बिन तुम्हारे कभी नहीं आई
क्या मिरी नींद भी तुम्हारी है
आप में कैसे आऊँ मैं तुझ बिन
साँस जो चल रही है आरी है
उस से कहियो कि दिल की गलियों में
रात दिन तेरी इंतिज़ारी है
हिज्र हो या विसाल हो कुछ हो
हम हैं और उस की यादगारी है
इक महक सम्त-ए-दिल से आई थी
मैं ये समझा तिरी सवारी है
हादसों का हिसाब है अपना
वर्ना हर आन सब की बारी है
ख़ुश रहे तू कि ज़िंदगी अपनी
उम्र भर की उमीद-वारी है
सारी दुनिया के ग़म हमारे हैं
और सितम ये कि हम तुम्हारे हैं
दिले-बर्बाद ये ख़याल रहे
उसने गेसू नहीं सँवारे हैं
उन रफ़ीक़ों से शर्म आती है
जो मिरा साथ दे के हारे हैं
और तो हम ने क्या किया अब तक
ये किया है कि दिन गुज़ारे हैं
उस गली से जो हो के आये हों
अब तो वो राहरौ भी प्यारे हैं
‘जॉन’ हम ज़िन्दगी की राहों में
अपनी तन्हारवी के मारे हैं
दिल जो दीवाना नहीं आख़िर को दीवाना भी था
भूलने पर उस को जब आया तो पहचाना भी था
जानिया किस शौक़ में रिश्ते बिछड़ कर रह गये
काम तो कोई नहीं था पर हमें जाना ही था
अजनबी सा एक मौसम एक बेमौसम सी शाम
जब उसे आना नहीं था जब उसे आना भी था
जानिए क्यूं दिल की वहशत दर्मियां में आ गयी
बस यूं ही हम को बहकना भी था बहकाना भी था
इक महकता सा वो लम्हा था कि जैसे इक ख़याल
इक ज़माने तक उसी लम्हें को तड़पाना भी था

Friday, 29 November 2019

कोई सरदार कब था इससे पहले तेरी महफ़िल में.... शायर अली सरदार जाफ़री

उर्दू भाषा के एक प्रसिद्ध साहित्यकार और शायर अली सरदार जाफ़री का जन्‍म 29 नवम्बर 1913 को उत्तर प्रदेश के बलरामपुर में हुआ था।
कोई सरदार कब था इससे पहले तेरी महफ़िल में।
बहुत अहले-सुखन उट्ठे बहुत अहले-कलाम आये।।
अली सरदार जाफ़री का यह कलाम उनके अंदर के साहित्यकार का दर्प भी है और उनकी खुद मुख्तारी का कुबूलनामा भी। उन्होंने हाईस्कूल तक की शिक्षा वहीं ली और आगे की पढ़ाई के लिए अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय चले आए। यहां उन्हें उस समय के मशहूर और उभरते हुए शायरों की संगत मिली। अख़्तर हुसैन रायपुरी, सिब्ते-हसन, मुईन अहसन जज़्बी, असरार-उल-हक़ मजाज़, जांनिसार अख़्तर और ख़्वाजा अहमद अब्बास जैसे अदीब इनमें शामिल थे।
यह वह दौर था जब देश गुलाम था और अंग्रेज़ों के खिलाफ आजादी आंदोलन की नींव काफी पहले पड़ चुकी थी। नौजवानों पर आजादी आंदोलन का जुनून तारी था। अली सरदार ज़ाफरी भी उन्हीं में शुमार थे। नतीजा यह निकला कि ऐसे ही एक आंदोलन के दौरान वॉयसराय के एक्जीक्यूटिव कौंसिल के सदस्यों के विरुद्ध हड़ताल के अपराध में सरदार को यूनिवर्सिटी से बेदखल कर दिया गया पर सरदार तो सरदार थे। उन्होंने एंग्लो-अरेबिक कालेज दिल्ली से बीए पास किया और लखनऊ विश्वविद्यालय से एमए की डिग्री हासिल की। इस दौरान छात्र-आंदोलनों में भाग लेने का उनका जज़्बा कम नहीं हुआ।
अली सरदार ज़ाफरी ने आजादी आंदोलन और उसके बाद भी जेल यात्राएं कीं, जहां उनकी मुलाकात प्रगतिशील लेखक संघ के खुर्राट साथियों से हुई, जिनमें सज्जाद ज़हीर भी शामिल थे। उन्हीं के प्रभाव में सरदार ने व्लादिमीर इलीइच उल्यानोव लेनिन व कार्ल हेनरिख मार्क्स को पढ़ा। यहीं से उनके चिंतन और मार्गदर्शन को मार्क्सवाद, साम्यवाद की ठोस ज़मीन मिली। अपनी साम्यवादी विचारधारा के चलते वह प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ गए। इस दौरान उन्होंने प्रेमचन्द, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’, मुल्कराज आनंद जैसे भारतीय साहित्यकारों सहित पाब्लो नेरूदा व लुईअरांगा जैसे विदेशी चिंतकों के विचारोंको न केवल पढ़ा, बल्कि उनके विचारों, साहित्य को जान-समझ जो सीखा, उसे अपनाया भी. उस दौर के काबिल और बेहतरीन आलिमों की संगत का असर यह हुआ कि अली सरदार जाफरी एक ऐसे शायर के रूप में उभरें जिनकी शायरी मेहनतकशों के दुख-दर्द का आईना थी।
अली सरदार जाफ़री की ग़ज़लों से चुनिंदा शेर
है और ही कारोबार-ए-मस्ती
जी लेना तो ज़िंदगी नहीं है
सौ मिलीं ज़िंदगी से सौग़ातें
हम को आवारगी ही रास आई
क़ैद हो कर और भी ज़िंदां में उड़ता है ख़याल
रक़्स ज़ंजीरों में भी करते हैं आज़ादाना हम
तेरा दर्द सलामत है तो मरने की उम्मीद नहीं
लाख दुखी हो ये दुनिया रहने की जगह बन जाए है
अब आ गया है जहां में तो मुस्कुराता जा
चमन के फूल दिलों के कंवल खिलाता जा
तू वो बहार जो अपने चमन में आवारा
मैं वो चमन जो बहारां के इंतिज़ार में है
बहुत बर्बाद हैं लेकिन सदा-ए-इंक़लाब आए
वहीं से वो पुकार उठेगा जो ज़र्रा जहां होगा
क्या हुस्न है दुनिया में क्या लुत्फ़ है जीने में
देखे तो कोई मेरा अंदाज़-ए-नज़र ले कर
ज़ख़्म कहो या खिलती कलियां हाथ मगर गुलदस्ता है
बाग़-ए-वफ़ा से हम ने चुने हैं फूल बहुत और ख़ार बहुत
आसमानों से बरसता है अंधेरा कैसा
अपनी पलकों पे लिए जश्न-ए-चराग़ां चलिए

Monday, 25 November 2019

हिंदुस्‍तान को जानने के लिए नज़ीर को जानना होगा

जैसा कि नाम से जाहिर होता है भारतीय उर्दू शायर नज़ीर बनारसी का जन्‍म 25 नवम्बर 1909 को वाराणसी (उत्तर प्रदेश) की पांडे हवेली मदपुरा में हुआ था।
एक मुकम्मल इंसान और इंसानियत को गढ़ने का काम करने वाली नजीर को इस बात से बेहद रंज था कि…
‘‘न जाने इस जमाने के दरिन्दे
कहां से उठा लाए चेहरा आदमी का’’
इसके बावजूद नज़ीर ताकीद करते हुए कहते हैं-
‘‘वहां भी काम आती है मोहब्बत
जहां नहीं होता कोई किसी का’’
अपनी कहानी अपनी जुबानी में खुद नज़ीर कहते हैं, ‘‘मैं जिन्दगी भर शान्ति, अहिंसा, प्रेम, मुहब्बत आपसी मेल मिलाप, इन्सानी दोस्ती, आपसी भाईचारा…. राष्ट्रीय एकता का गुन आज ही नहीं 1935 से गाता चला आ रहा हूं।
मेरी नज्में हो गजलें, गीत हो या रूबाईयां….. बरखा रुत हो या बस्त ऋतु, होली हो या दीवाली, शबे बारात हो या ईद, दशमी हो या मुहर्रम इन सबमें आपको प्रेम, प्यार, मुहब्बत, सेवा भावना, देशभक्ति ही मिलेगी। मेरी सारी कविताओं की बजती बांसुरी पर एक ही राग सुनाई देगा वह है देशराग…..मैंने अपने सारे कलाम में प्रेम प्यार मुहब्बत को प्राथमिकता दी है।
हालात चाहे जैसे भी रहे हो, नज़ीर ने उसका सामना किया, न खुद बदले और न अपनी शायरी को बदलने दिया। कहीं आग लगी तो नज़ीर की शायरी बोल उठी-
‘‘अंधेरा आया था, हमसे रोशनी की भीख मांगने
हम अपना घर न जलाते तो क्या करते?’’
गंगो जमन, जवाहर से लाल तक, गुलामी से आजादी तक, चेतना के स्वर, किताबे गजल, राष्ट्र की अमानत राष्ट्र के हवाले आदि उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं।
घाट किनारे मन्दिरों के साये में बैठ कर अक्सर अपनी थकान मिटाने वाले नज़ीर की कविता में गंगा और उसका किनारा कुछ ऐसे ढला-
‘‘बेदार खुदा कर देता था आंखों में अगर नींद आती थी,
मन्दिर में गजर बज जाता था, मस्जिद में अजां हो जाती थी,
जब चांदनी रातों में हम-तुम गंगा किनारे होते थे।”
नज़ीर की शायरी उनकी कविताएं धरोहर है, हम सबके लिए। संर्कीण विचारों की घेराबन्दी में लगातार फंसते जा रहे हम सभी के लिए नज़ीर की शायरी अंधरे में टार्च की रोशनी की तरह है, अगर हम हिंदुस्‍तान को जानना चाहते हैं तो हमें नजीर को जानना होगा, समझना होगा कि उम्र की झुर्रियों के बीच इस साधु, सूफी, दरवेष सरीखे शायर ने कैसे हिंदुस्‍तान की साझी रवायतों को जिन्दा रखा। उसे पाला-पोसा, सहेजा। अब बारी हमारी है, कि हम उस साझी विरासत को कैसे और कितना आगे ले जा सकते हैं। उनके लफ्जों में कहें तो…
‘‘जिन्दगी एक कर्ज है, भरना हमारा काम है,
हमको क्या मालूम कैसी सुबह है, शाम है,
सर तुम्हारे दर पे रखना फर्ज था, सर रख दिया,
आबरू रखना न रखना यह तुम्हारा काम है।”

Sunday, 17 November 2019

कवयित्री रश्मिरेखा की दो कव‍ितायें

प्रख्यात कवयित्री डॉ. रश्मिरेखा का शुक्रवार देर रात ब‍िहार में मुजफ्फरपुर के रामबाग स्थित उनके आवास पर निधन हो गया। उक्त रक्तचाप के कारण ब्रेन हेमरेज हुआ और उन्होंने तुरंत दम तोड़ दिया। 64 वर्षीया डॉ. रश्मिरेखा के निधन की खबर मिलते ही साहित्यकारों व कवियों में शोक की लहर दौड़ गई। 28 नवंबर को रश्मिरेखा के पुत्र की शादी थी। घर में उत्सवी माहौल था। वह अपने पीछे पति डॉ. अवधेश कुमार, पुत्र डॉ. संकेत व पुत्री डॉ. प्राची समेत भरा पूरा परिवार छोड़ गई हैं। समकालीन कविता की महत्वपूर्ण हस्ताक्षर डॉ. रश्मिरेखा आलोचना के क्षेत्र में भी राष्ट्रीय स्तर पर जानी जाती थीं।
आज पढ़‍िए उनकी ये दो रचनायें-
झोला
नहीं जानती किन छोटी-मोटी जरूरतों के तहत
आविष्कार हुआ होगा झोले का
पहिये के बाद सृष्टि का सबसे बड़ा आविष्कार
समय की फिसलन से कुछ चीज़े बचा लेने की
इच्छाओं ने मिल -जुल कर रची होगी शक्ल झोले की
पर इससे पहले बनी होगी गठरियौ
कुछ सौगात अपनों के लिए
बांध लेने की ख्वाहिश में
उम्र के बहाव में पीछा करते एहसास
मुश्किलें आसन करने के कुछ आसन नुस्ख़े
अपनों के लिए बचाने की खातिर ही
बनी होगी तह-दर-तह
चेहरे पर झुर्रियो की झोली
जिसे बाँट देना चाहता होगा हर शख्स
जाने से पहले
कि बची रह सके उसके छाप और परछाईं
कुछ लेने के लिए भी तो चाहिए झोले
घर में एक के बाद एक आते है दूसरे नए-नए झोले
कभी-कभी सिर्फ़ अपने लिए बनते है ये
दिल की भीतरी तहों में
हर झोले में होते है चीज़ो के अलग महीन अर्थ
लिपि बनने को आतुर रेखाऍ
शिल्प में ढलने को मचलती आकृतियाँ
जागते हुए सपने देखने की कला
दरअसल इसी में फंसा होता है हमारा चेहरा।
…………..
मां
अंत:सलिला हो तुम मेरी माँ
ऊपर-ऊपर रेत
भीतर-भीतर शीतल जल
रेत भी कैसी स्वर्ण मिली
जिन्हें अलग करना संभव नहीं
अक्सर जब चाहा है
उसे कुरेदने पर
पाया हैं वह सब कुछ
जिसकी ज़रूरत होती है
अपनी जड़ों से कट कर जीने को विवश
तुम्हारी बेटी को
पिता से सीखा था सपनों में रंग भरना
पर जाना तुमसे
कैसे चलना है खुरदुरी जमींन पर
तुम संतुलित करती रहीं लगातार
दुनिया के अपने तीखे अनुभवों और
तपती रेत के इतिहास द्वारा
बहुत कुछ पाकर
बहुत कुछ खोकार
आधी-अधूरी बनी रह कर भी माँ
इंगित करती रही दिशाओं की ओर
सिखाती रही जूझना
समय ने वैसा नहीं बनने दिया
जैसा चाहती थी तुम हमें गढ़ना
पर अनंत जिजीविषा से भरी मेरी माँ
तुम्हारी आँखें तो भविष्य पर रहती हैं
शायद इसीलिये
तुम्हारी सोच में अब
हम नहीं हमारे आकार लेते बच्चे हैं।

Saturday, 9 November 2019

ड्रॉइंग रूम में बैठकर नहीं गढ़ी जातीं धूम‍िल जैसी कव‍ितायें

बड़ी बड़ी ड‍िग्र‍ियां हास‍िल कर लेना अच्छी कव‍िता गढ़ने से ब‍िल्कुल ही अलग है तभी तो सुदामा पाण्डेय धूम‍िल जैसे कव‍ि हमें ये रहस्य बताने को पैदा होते हैं क‍ि कव‍िता उच्चश‍िक्ष‍ितों की बपौती नहीं है। क‍िसी कव‍िता को क‍ितनी गहराई से गढ़ते रहे धूम‍िल यह तो उनकी कुछ रचनायें पढ़कर ही मालूम हो जाएगा। आज यान‍ि 9 नवंबर उनकी जन्म त‍िथ‍ि है , धूमिल का जन्म 9 नवंबर 1936 को वाराणसी में हुआ था। वे अपनी क्रांतिकारी और प्रतिरोधी कविताओं के लिए जाने जाते हैं। आप उन्हें हिंदी कविता के ‘यंग एंग्री मैन’ कह सकते हैं –
शब्द किस तरह
कविता बनते हैं
इसे देखो
अक्षरों के बीच गिरे हुए
आदमी को पढ़ो
क्या तुमने सुना कि यह
लोहे की आवाज़ है या
मिट्टी में गिरे हुए ख़ून
का रंग।
लोहे का स्वाद
लोहार से मत पूछो
घोड़े से पूछो
जिसके मुंह में लगाम है।
सुदामा पाण्डेय ‘धूमिल’ हिंदी की समकालीन कविता के दौर के मील के पत्थर हैं। उनकी कविताओं में आज़ादी के सपनों के मोहभंग की पीड़ा और आक्रोश की सबसे सशक्त अभिव्यक्ति मिलती है। व्यवस्था, जिसने जनता को छला है, उसको आइना दिखाना मानों धूमिल की कविताओं का परम लक्ष्य है।
एक आदमी रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है
वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूँ-
‘यह तीसरा आदमी कौन है ?’
मेरे देश की संसद मौन है।
‘संसद से सड़क तक’, ‘कल सुनना मुझे’, ‘सुदामा पांडेय का प्रजातंत्र’, उनके काव्य संग्रह हैं। 60 के बाद के दशक में हिंदी कविता के फलक पर धूमिल प्रमुखता से उभरकर सामने आते हैं। 10 फरवरी 1975 हिंदी के इस क्रांतिकारी कवि की ब्रेन ट्यूमर से मौत हो गई। उनके जीवन काल में एक ही काव्य संग्रह ‘संसद से सड़क तक’ प्रकाशित हो सका, ‘कल सुनना मुझे’ का प्रकाशन तो उनके निधन के बाद ही संभव हो सका। 1979 में उन्हें मरणोपरांत साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाज़ा गया।
मैंने पहली बार महसूस किया है
कि नंगापन
अन्धा होने के खिलाफ़
एक सख़्त कार्यवाही है
उस औरत की बगल में लेटकर
मुझे लगा कि नफ़रत
और मोमबत्तियाँ जहाँ बेकार
साबित हो चुकी हैं और पिघले हुए
शब्दों की परछाईं
किसी खौफ़नाक जानवर के चेहरे में
बदल गयी है, मेरी कविताएँ
अँधेरा और कीचड़ और गोश्त की
खुराक़ पर ज़िन्दा है।
उनकी कविताओं में आक्रामकता है, व्यवस्था का विरोध है। धूमिल अपनी रचनाओं में एक ऐसी काव्य भाषा की इजाद करते हैं जो नई कविता के दौर की काव्य- भाषा की रुमानियत और अतिशय कल्पनाशीलता से मुक्त है। उनकी भाषा सहज और सरल है लेकिन कहन शैली में विद्रोह साफ तौर पर झलकता है –
उसकी सारी शख़्सियत
नखों और दाँतों की वसीयत है
दूसरों के लिए
वह एक शानदार छलांग है
अँधेरी रातों का
जागरण है, नींद के ख़िलाफ़
नीली गुर्राहट है
अपनी आसानी के लिए तुम उसे
कुत्ता कह सकते हो
उस लपलपाती हुई जीभ और हिलती हुई दुम के बीच
भूख का पालतूपन
हरकत कर रहा है
उसे तुम्हारी शराफ़त से कोई वास्ता
नहीं है, उसकी नज़र
न कल पर थी
न आज पर है
सारी बहसों से अलग
वह हड्डी के एक टुकड़े और
कौर-भर (सीझे हुए) अनाज पर है।
धूमिल अपनी कविताओं के माध्यम से उन तमाम शोषितों और वंचितों को आवाज़ देते हैं, जो आज भी अपने आपको ठगा हुआ महसूस करते हैं –
‘ठीक है, यदि कुछ नहीं तो विद्रोह ही सही’
हँसमुख बनिए ने कहा-
‘मेरे पास उसका भी बाज़ार है’
मगर आज दुकान बन्द है, कल आना
आज इतवार है। मैं ले लूँगा।
इसे मंच दूँगा और तुम्हारा विद्रोह
मंच पाते ही समारोह बन जाएगा
फिर कोई सिरफिर शौक़ीन विदेशी ग्राहक
आएगा। मैं इसे मुँहमाँगी क़ीमत पर बेचूँगा।
मैं होटल के तौलिया की तरह
सार्वजनिक हो गया हूँ
क्या ख़ूब, खाओ और पोंछो,
ज़रा सोचो,
यह भी क्या ज़िन्दगी है
जो हमेशा दूसरों के जूठ से गीली रहती है।
कटे हुए पंजे की तरह घूमते हैं अधनंगे बच्चे
गलियों में गोलियाँ खेलते हैं
मगर अव्वल यह कि
देश के नक़्शे की लकीरें इन पर निर्भर हैं
और दोयम यह कि
न सही मुझसे सही आदमी होने की उम्मीद
मगर आज़ादी ने मुझे यह तो सिखलाया है
कि इश्तहार कहाँ चिपकाना है
और पेशाब कहाँ करना है
और इसी तरह ख़ाली हाथ
वक़्त-बेवक़्त मतदान करते हुए
हारे हुओं को हींकते हुए
सफलों का सम्मान करते हुए
मुझे एक जनतान्त्रिक मौत मरना है।