जैसा कि नाम से जाहिर होता है भारतीय उर्दू शायर नज़ीर बनारसी का जन्म 25 नवम्बर 1909 को वाराणसी (उत्तर प्रदेश) की पांडे हवेली मदपुरा में हुआ था।
एक मुकम्मल इंसान और इंसानियत को गढ़ने का काम करने वाली नजीर को इस बात से बेहद रंज था कि…
‘‘न जाने इस जमाने के दरिन्दे
कहां से उठा लाए चेहरा आदमी का’’
इसके बावजूद नज़ीर ताकीद करते हुए कहते हैं-
‘‘वहां भी काम आती है मोहब्बत
जहां नहीं होता कोई किसी का’’
अपनी कहानी अपनी जुबानी में खुद नज़ीर कहते हैं, ‘‘मैं जिन्दगी भर शान्ति, अहिंसा, प्रेम, मुहब्बत आपसी मेल मिलाप, इन्सानी दोस्ती, आपसी भाईचारा…. राष्ट्रीय एकता का गुन आज ही नहीं 1935 से गाता चला आ रहा हूं।
मेरी नज्में हो गजलें, गीत हो या रूबाईयां….. बरखा रुत हो या बस्त ऋतु, होली हो या दीवाली, शबे बारात हो या ईद, दशमी हो या मुहर्रम इन सबमें आपको प्रेम, प्यार, मुहब्बत, सेवा भावना, देशभक्ति ही मिलेगी। मेरी सारी कविताओं की बजती बांसुरी पर एक ही राग सुनाई देगा वह है देशराग…..मैंने अपने सारे कलाम में प्रेम प्यार मुहब्बत को प्राथमिकता दी है।
हालात चाहे जैसे भी रहे हो, नज़ीर ने उसका सामना किया, न खुद बदले और न अपनी शायरी को बदलने दिया। कहीं आग लगी तो नज़ीर की शायरी बोल उठी-
‘‘अंधेरा आया था, हमसे रोशनी की भीख मांगने
हम अपना घर न जलाते तो क्या करते?’’
गंगो जमन, जवाहर से लाल तक, गुलामी से आजादी तक, चेतना के स्वर, किताबे गजल, राष्ट्र की अमानत राष्ट्र के हवाले आदि उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं।
घाट किनारे मन्दिरों के साये में बैठ कर अक्सर अपनी थकान मिटाने वाले नज़ीर की कविता में गंगा और उसका किनारा कुछ ऐसे ढला-
‘‘बेदार खुदा कर देता था आंखों में अगर नींद आती थी,
मन्दिर में गजर बज जाता था, मस्जिद में अजां हो जाती थी,
जब चांदनी रातों में हम-तुम गंगा किनारे होते थे।”
नज़ीर की शायरी उनकी कविताएं धरोहर है, हम सबके लिए। संर्कीण विचारों की घेराबन्दी में लगातार फंसते जा रहे हम सभी के लिए नज़ीर की शायरी अंधरे में टार्च की रोशनी की तरह है, अगर हम हिंदुस्तान को जानना चाहते हैं तो हमें नजीर को जानना होगा, समझना होगा कि उम्र की झुर्रियों के बीच इस साधु, सूफी, दरवेष सरीखे शायर ने कैसे हिंदुस्तान की साझी रवायतों को जिन्दा रखा। उसे पाला-पोसा, सहेजा। अब बारी हमारी है, कि हम उस साझी विरासत को कैसे और कितना आगे ले जा सकते हैं। उनके लफ्जों में कहें तो…
‘‘जिन्दगी एक कर्ज है, भरना हमारा काम है,
हमको क्या मालूम कैसी सुबह है, शाम है,
सर तुम्हारे दर पे रखना फर्ज था, सर रख दिया,
आबरू रखना न रखना यह तुम्हारा काम है।”
एक मुकम्मल इंसान और इंसानियत को गढ़ने का काम करने वाली नजीर को इस बात से बेहद रंज था कि…
‘‘न जाने इस जमाने के दरिन्दे
कहां से उठा लाए चेहरा आदमी का’’
इसके बावजूद नज़ीर ताकीद करते हुए कहते हैं-
‘‘वहां भी काम आती है मोहब्बत
जहां नहीं होता कोई किसी का’’
अपनी कहानी अपनी जुबानी में खुद नज़ीर कहते हैं, ‘‘मैं जिन्दगी भर शान्ति, अहिंसा, प्रेम, मुहब्बत आपसी मेल मिलाप, इन्सानी दोस्ती, आपसी भाईचारा…. राष्ट्रीय एकता का गुन आज ही नहीं 1935 से गाता चला आ रहा हूं।
मेरी नज्में हो गजलें, गीत हो या रूबाईयां….. बरखा रुत हो या बस्त ऋतु, होली हो या दीवाली, शबे बारात हो या ईद, दशमी हो या मुहर्रम इन सबमें आपको प्रेम, प्यार, मुहब्बत, सेवा भावना, देशभक्ति ही मिलेगी। मेरी सारी कविताओं की बजती बांसुरी पर एक ही राग सुनाई देगा वह है देशराग…..मैंने अपने सारे कलाम में प्रेम प्यार मुहब्बत को प्राथमिकता दी है।
हालात चाहे जैसे भी रहे हो, नज़ीर ने उसका सामना किया, न खुद बदले और न अपनी शायरी को बदलने दिया। कहीं आग लगी तो नज़ीर की शायरी बोल उठी-
‘‘अंधेरा आया था, हमसे रोशनी की भीख मांगने
हम अपना घर न जलाते तो क्या करते?’’
गंगो जमन, जवाहर से लाल तक, गुलामी से आजादी तक, चेतना के स्वर, किताबे गजल, राष्ट्र की अमानत राष्ट्र के हवाले आदि उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं।
घाट किनारे मन्दिरों के साये में बैठ कर अक्सर अपनी थकान मिटाने वाले नज़ीर की कविता में गंगा और उसका किनारा कुछ ऐसे ढला-
‘‘बेदार खुदा कर देता था आंखों में अगर नींद आती थी,
मन्दिर में गजर बज जाता था, मस्जिद में अजां हो जाती थी,
जब चांदनी रातों में हम-तुम गंगा किनारे होते थे।”
नज़ीर की शायरी उनकी कविताएं धरोहर है, हम सबके लिए। संर्कीण विचारों की घेराबन्दी में लगातार फंसते जा रहे हम सभी के लिए नज़ीर की शायरी अंधरे में टार्च की रोशनी की तरह है, अगर हम हिंदुस्तान को जानना चाहते हैं तो हमें नजीर को जानना होगा, समझना होगा कि उम्र की झुर्रियों के बीच इस साधु, सूफी, दरवेष सरीखे शायर ने कैसे हिंदुस्तान की साझी रवायतों को जिन्दा रखा। उसे पाला-पोसा, सहेजा। अब बारी हमारी है, कि हम उस साझी विरासत को कैसे और कितना आगे ले जा सकते हैं। उनके लफ्जों में कहें तो…
‘‘जिन्दगी एक कर्ज है, भरना हमारा काम है,
हमको क्या मालूम कैसी सुबह है, शाम है,
सर तुम्हारे दर पे रखना फर्ज था, सर रख दिया,
आबरू रखना न रखना यह तुम्हारा काम है।”
जिन्दगी एक कर्ज है, भरना हमारा काम है,
ReplyDeleteहमको क्या मालूम कैसी सुबह है, शाम है,
सर तुम्हारे दर पे रखना फर्ज था, सर रख दिया,
आबरू रखना न रखना यह तुम्हारा काम है।”
वाह ! कितनी ख़ूबसूरती से जिंदगी का फलसफा बयान कर दिया है नजीर साहब ने, शुक्रिया !
आपका आभार अनीता जी , बहुत दिनों बाद आई आपकी टिप्पणी , धन्यवाद
Deletehttps://youtu.be/uhZGTZguNiI
ReplyDelete