22 अक्टूबर 1947 को उत्तर प्रदेश के गोंडा जिला अंतर्गत आटा परसूपुर गाँव में जन्मे अदम गोंडवी की मृत्यु 18 दिसंबर 2011 को हुई। सामाजिक राजनीतिक आलोचना के प्रखर कवि और शायर अदम गोंडवी का असली नाम यूं तो रामनाथ सिंह था लेकिन सबने उन्हें ‘अदम गोंडवी’ के नाम से ही जाना।
उनकी रचनाओं में राजनीति और व्यवस्था पर किए गए कटाक्ष काफी तीखे हैं। उनकी शायरी में जनता की गुर्राहट और आक्रामक मुद्रा का सौंदर्य नजर आता है। लेखनी में सत्ता पर शब्दों के बाण चलाना अदम की रचनाओं की खासियत है। उनकी निपट गंवई अंदाज में महानगरीय चकाचौंध और चमकीली कविताई को हैरान कर देने वाली अदा सबसे जुदा और विलक्षण है।
अदम की रचनाओं का अंदाज कुछ ऐसा था-
(1)
काजू भुने पलेट में व्हिस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में
पक्के समाजवादी हैं तस्कर हों या डकैत
इतना असर है खादी के उजले लिबास में
आजादी का वो जश्न मनाएं तो किस तरह
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में
पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें
संसद बदल गई है यहां की नखास में
जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूं मैं होशो-हवास में
(2)
तुम्हारी फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है
मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है
उधर जमहूरियत का ढोल पीटे जा रहे हैं वो
इधर परदे के पीछे बर्बरीयत है, नवाबी है
लगी है होड़-सी देखो अमीरी औ’ गरीबी में
ये गांधीवाद के ढांचे की बुनियादी खराबी है
तुम्हारी मेज चांदी की तुम्हारे ज़ाम सोने के
यहाँ जुम्मन के घर में आज भी फूटी रक़ाबी है
(3)
घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है
बताओ कैसे लिख दूं धूप फागुन की नशीली है
भटकती है हमारे गांव में गूंगी भिखारन-सी
सुबह से फरवरी बीमार पत्नी से भी पीली है
बग़ावत के कमल खिलते हैं दिल की सूखी दरिया में
मैं जब भी देखता हूं आंख बच्चों की पनीली है
सुलगते जिस्म की गर्मी का फिर एहसास हो कैसे
मोहब्बत की कहानी अब जली माचिस की तीली है
(4)
आँख पर पट्टी रहे और अक़्ल पर ताला रहे
अपने शाहे-वक़्त का यूँ मर्तबा आला रहे
तालिबे-शोहरत हैं कैसे भी मिले मिलती रहे
आए दिन अख़बार में प्रतिभूति घोटाला रहे
एक जन सेवक को दुनिया में अदम क्या चाहिए
चार छह चमचे रहें माइक रहे माला रहे
वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित शायर मुनव्वर राना की किताब ‘ढलान से उतरते हुए’ में मुनव्वर लिखते हैं- ”अदम जी ठाकुर थे, राजपूत ठाकुर। ज़मींदार भी थे, छोटे-मोटे ही सही। ज़ुल्म और नाइंसाफ़ियों के ख़िलाफ़ बग़ावती तेवर और क़ागज़ क़लम उठाने के लिए किसी जाति विशेष का होना ज़रूरी नहीं होता। यह फूल तो किसी भी बाग़ में, किसी भी गमले में और कभी-कभी तो कीचड़ में भी खिल जाता है। समाजी नाइंसाफ़ियों और नहमवारियों के ख़िलाफ़ उठी आवाज को ग़ज़ल बना देना सबके बस की बात नहीं होती, इसके लिए शताब्दियाँ किसी अच्छे कवि का इंतज़ार करती हैं।”
-Legend News
उनकी रचनाओं में राजनीति और व्यवस्था पर किए गए कटाक्ष काफी तीखे हैं। उनकी शायरी में जनता की गुर्राहट और आक्रामक मुद्रा का सौंदर्य नजर आता है। लेखनी में सत्ता पर शब्दों के बाण चलाना अदम की रचनाओं की खासियत है। उनकी निपट गंवई अंदाज में महानगरीय चकाचौंध और चमकीली कविताई को हैरान कर देने वाली अदा सबसे जुदा और विलक्षण है।
अदम की रचनाओं का अंदाज कुछ ऐसा था-
(1)
काजू भुने पलेट में व्हिस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में
पक्के समाजवादी हैं तस्कर हों या डकैत
इतना असर है खादी के उजले लिबास में
आजादी का वो जश्न मनाएं तो किस तरह
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में
पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें
संसद बदल गई है यहां की नखास में
जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूं मैं होशो-हवास में
(2)
तुम्हारी फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है
मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है
उधर जमहूरियत का ढोल पीटे जा रहे हैं वो
इधर परदे के पीछे बर्बरीयत है, नवाबी है
लगी है होड़-सी देखो अमीरी औ’ गरीबी में
ये गांधीवाद के ढांचे की बुनियादी खराबी है
तुम्हारी मेज चांदी की तुम्हारे ज़ाम सोने के
यहाँ जुम्मन के घर में आज भी फूटी रक़ाबी है
(3)
घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है
बताओ कैसे लिख दूं धूप फागुन की नशीली है
भटकती है हमारे गांव में गूंगी भिखारन-सी
सुबह से फरवरी बीमार पत्नी से भी पीली है
बग़ावत के कमल खिलते हैं दिल की सूखी दरिया में
मैं जब भी देखता हूं आंख बच्चों की पनीली है
सुलगते जिस्म की गर्मी का फिर एहसास हो कैसे
मोहब्बत की कहानी अब जली माचिस की तीली है
(4)
आँख पर पट्टी रहे और अक़्ल पर ताला रहे
अपने शाहे-वक़्त का यूँ मर्तबा आला रहे
तालिबे-शोहरत हैं कैसे भी मिले मिलती रहे
आए दिन अख़बार में प्रतिभूति घोटाला रहे
एक जन सेवक को दुनिया में अदम क्या चाहिए
चार छह चमचे रहें माइक रहे माला रहे
वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित शायर मुनव्वर राना की किताब ‘ढलान से उतरते हुए’ में मुनव्वर लिखते हैं- ”अदम जी ठाकुर थे, राजपूत ठाकुर। ज़मींदार भी थे, छोटे-मोटे ही सही। ज़ुल्म और नाइंसाफ़ियों के ख़िलाफ़ बग़ावती तेवर और क़ागज़ क़लम उठाने के लिए किसी जाति विशेष का होना ज़रूरी नहीं होता। यह फूल तो किसी भी बाग़ में, किसी भी गमले में और कभी-कभी तो कीचड़ में भी खिल जाता है। समाजी नाइंसाफ़ियों और नहमवारियों के ख़िलाफ़ उठी आवाज को ग़ज़ल बना देना सबके बस की बात नहीं होती, इसके लिए शताब्दियाँ किसी अच्छे कवि का इंतज़ार करती हैं।”
-Legend News
सच में विलक्षण। नमन।
ReplyDeleteधन्यवाद जोशी जी
Deleteअद्भुत कटाक्ष के कवि!
ReplyDeleteधन्यवाद विश्वमोहन जी
Deleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 23 अक्टूबर 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteधन्यवाद यशोदा जी
Deleteघर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है
ReplyDeleteबताओ कैसे लिख दूं धूप फागुन की नशीली है
अदम गोंडवीजी की रचनाओं में तीखे तंज होते हैं सामाजिक
समस्याओं पर...उनकी ही एक रचना से -
आप कहते हैं सरापा गुलमुहर है ज़िन्दगी
हम ग़रीबों की नज़र में इक क़हर है ज़िन्दगी
भुखमरी की धूप में कुम्हला गई अस्मत की बेल
मौत के लम्हात से भी तल्ख़तर है ज़िन्दगी !!!
डाल पर मज़हब की पैहम खिल रहे दंगों के फूल
Deleteख़्वाब के साये में फिर भी बेख़बर है ज़िन्दगी
रोशनी की लाश से अब तक जिना करते रहे
जी मीना जी , अदम जी को पढ़कर कुछ देर तो सुन्न हो जाता है दिमाग़ ,
ये वहम पाले हुए शम्सो-क़मर है ज़िन्दगी
दफ़्न होता है जहां आकर नई पीढ़ी का प्यार
शहर की गलियों का वो गन्दा असर है ज़िन्दगी.
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (25-10-2019) को "धनतेरस का उपहार" (चर्चा अंक- 3499) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
दीपावली से जुड़े पंच पर्वों की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
धन्यवाद शास्त्री जी
Deleteमहान कवि को सलाम
ReplyDeleteधन्यवाद नीलांश जी
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