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Sunday 22 July 2018

क्‍या आपको भी याद हैं वो रिवर्स गियर वाली कवितायें


पिछले एक सप्‍ताह से कभी रुक कर तो कभी तेज बारिश हो रही है। मुझे अपना बचपन याद आ रहा है। शायद आपको भी याद आ रहा होगा। गाहे ब गाहे आप भी अपने आसपास जो भी मौजूद होगा उसे बारिश के मौसम
से जुड़ी बचपन की बातें शेयर कर रहे होंगे। कहीं भुट्टे की तो कहीं पकौड़ियों की खुश्‍बू...कभी बारिश के समय नन्‍हीं बूंदों को आसमान की ओर मुंह करके जीभ से गले में उतारने की शरारत...आंगन के कोनों में भरे हुए या बाहर बहते हुए पानी में छप्‍प-छप्‍प करके सारे कपड़े गीले कर लेने और फिर घर की बड़ी महिलाओं से मिलती 'पानी में ना नहाने की नसीहत' को ठेंगा दिखने का दुस्‍साहस...उनसे मिली डांट को एक कान से दूसरे में हुंह कहकर 'जाया' करते हुए ऐसे ना जाने कितने ही अनुभव होंगे जिनसे आज के बच्‍चे महरूम हैं।

खैर, हम लोगों में से जो भी अपनी औसत उम्र के आधे हिस्‍से में पहुंच चुके हैं, उन्‍हें आज उन कविताओं की अच्‍छी तरह याद आ रही होगी। ऐसी ही दो कवितायें आज मैं शेयर करना चाहती हूं...यदि आप लोगों को और
भी कुछ याद आ रहा हो तो आप इसमें जोड़ सकते हैं।

प्राइमरी कक्षा की कविता है-''अम्मा जरा देख तो ऊपर...'' प्राइमरी कक्षा में ये कविता पढ़ा करते थे, मम्‍मी को सुनाते हुए उन्‍हें छेड़ा भी करते थे, कि देखो किताब में भी तो बारिश के लिए कितना अच्‍छा लिखा है, तुम्‍हीं क्यों रोकती हो बारिश में बाहर जाने से...खैर हमारी कोर्स की किताब में जो कविता थी, वो कुछ यूं थी। 


अम्मा जरा देख तो ऊपर 
चले आ रहे हैं बादल
गरज रहे हैं, बरस रहे हैं
दीख रहा है जल ही जल 

हवा चल रही क्या पुरवाई 
भीग रही है डाली-डाली
ऊपर काली घटा घिरी है
नीचे फैली हरियाली

भीग रहे हैं खेत, बाग़, वन 
भीग रहे हैं घर, आँगन 
बाहर निकलूँ मैं भी भीगूँ
चाह रहा है मेरा मन। 

हालांकि इस कविता के रचयिता कौन थे (या हैं), यह तो अब याद नहीं आ रहा मगर अनायास हर बारिश में इसे गुनगुनाने के होठ फड़क ही उठते हैं...इसे कहते हैं कविताओं या शब्‍दों का ज़हन तक उतर जाना। इन कविताओं की मासूमियत आज भी हमारे भीतर बैठे बालक को छत्त पर जाने को बाध्‍य कर देती है। 

ऐसी ही एक और कविता है अब्दुल मलिक खान द्वारा रची हुई। अब ये तो याद नहीं आ रहा कि इसे कहां और कब पढ़ा था मगर इतना पता है कि इस मौसम में ये भी जुबान पर अपनी उपस्‍थिति दिखा ही देती है...आप भी पढ़िए....।

मुझे तो शायद इसलिए याद आ रही है ये...  क्‍योंकि जगजीत सिंह की आवाज़ में गाई और निदा फाज़ली की लिखी ग़ज़ल ''गरज बरस प्‍यासी धरती को फिर पानी दे मौला'' अभी अभी सुनी है और मौसम इससे मेल खा रहा है। इससे मिलती जुलती हैं अब्दुल मलिक खान की इस कविता की पंक्‍तियां...लीजिए... पढ़िये और अपने अपने बचपन को गुनगुनाइये।

अब्दुल मलिक खान की कविता- ''दिन प्यारे गुड़धानी के''

तान तड़ातड़-तान तड़ातड़
पानी पड़ता पड़-पड़-पड़!
तरपट-तरपट टीन बोलते,
सूखे पत्ते खड़-खड़-खड़।

ठुम्मक-ठुम्मक झरना ठुमका,
इठलाती जलधार चली।
खेतों में हरियाली नाची,
फर-फर मस्त बयार चली।

टप्पर-टप्पर, छप्पर-छप्पर,
टपक रहे हैं टप-टप-टप।
त्योहारों का मौसम आया,
हलुआ खाएँ गप-गप-गप।

झिरमिर-झिरमिर मेवा बरसे,
फूल बरसते पानी के।
कागज की नावें ले आईं
दिन प्यारे गुड़धानी के।

तो कैसा लगा रिवर्स गियर में अपने बचपन की ओर जीवन को बहाते हुए....।

- अलकनंदा सिंह

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