यूं आसमां न ताक, ना नाप किसी परवाज को
कुछ परिंदे जमीं पर भी हैं,
जो अपनी आंखों में,
तेरी नज़र का आसमां सजाए बैठे हैं,
महसूस किया है कभी तुमने,
उस एक अनहद आसमां का ताप...
जो सतरंगी सा सुलग रहा है-
इनके परों से ढंके ठंडे पड़े सीनों में,
पर हैं सिले- भीगे हुए,...जकड़े हुए हैं अभी,
मगर यकीं है, एक दिन हठात्
अपनी सींवन उधेड़ लेंगे,
टांकों को भी ढीला कर लेंगे,
तब ये पर फैला कर परवज का दामन थामेंगे,
तब उन्हें चाहिए होगी तुम्हारी यही नज़र,
एक प्रेम और भरोसे की नज़र,
परवाज भरने को...,
अपने पर फैलाने को...,
तुम्हारी यही एक नज़र
उन्हें वजूद से मिला देगी,
हौसलों का आगाज़ अंजाम तक पहुंचेगा
तभी जब बचा कर रखो अपनी
ये गहरी नज़र...
उनके लिए...तबके लिए...।
-अलकनंदा सिंह
कुछ परिंदे जमीं पर भी हैं,
जो अपनी आंखों में,
तेरी नज़र का आसमां सजाए बैठे हैं,
महसूस किया है कभी तुमने,
उस एक अनहद आसमां का ताप...
जो सतरंगी सा सुलग रहा है-
इनके परों से ढंके ठंडे पड़े सीनों में,
पर हैं सिले- भीगे हुए,...जकड़े हुए हैं अभी,
मगर यकीं है, एक दिन हठात्
अपनी सींवन उधेड़ लेंगे,
टांकों को भी ढीला कर लेंगे,
तब ये पर फैला कर परवज का दामन थामेंगे,
तब उन्हें चाहिए होगी तुम्हारी यही नज़र,
एक प्रेम और भरोसे की नज़र,
परवाज भरने को...,
अपने पर फैलाने को...,
तुम्हारी यही एक नज़र
उन्हें वजूद से मिला देगी,
हौसलों का आगाज़ अंजाम तक पहुंचेगा
तभी जब बचा कर रखो अपनी
ये गहरी नज़र...
उनके लिए...तबके लिए...।
-अलकनंदा सिंह
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