अगली कतार में खड़ा वो बच्चा
आखिरी ग्राहक बना रह गया
उसके हिस्से का राशन तो पहले ही
मंदिर के भंडारे में चढ़ गया...
कह दिया मां से जाकर उसने
बांध ले आज पेट से जोर की पट्टी
गेहूं चावल चीनी तेल में उसका हिस्सा
भाग्यवान हो गया है ... क्योंकि-वो
मंदिर के भंडारे में चढ़ गया है...
भूखा रहकर भी खुश है वो
कि उसका राशन पुण्य कमा रहा
भंडारे की जूठन से आती खुश्बू से
मां-बेटे दोनों भर लेंगे अपना पेट
ये जूठन नहीं उसका अपना है राशन
भक्तों के कमाये पुण्यों में भीगा
मंदिर के पिछवाड़े की जूठन से तृप्त
जो कि मंदिर के भंडारे में चढ़ गया है...
चल रहा अविराम अनवरत ऐसे ही
सदियों से राशन की कतारों का खेला
बनाता जा रहा अनेक दासों का रेला
अब दुकानों पर राशन नहीं ,पुण्य बिक रहे
पत्थर को लगते भोग और दास रो रहे
जूठन में आनंद, दुत्कारे जाने का परमानंद
उसकी खीसों में रम गया है ऐसे... जैसे कि
मंदिर से फेंका गया पकापकाया पुण्य
उसके पुरखों तक को तृप्त कर रहा हो जैसे-
और क्यों रोये चीखे खिसियाये अपने पुरखों की भांति
आत्मसम्मान से भूख नहीं मिटती
एक आत्मसम्मान ही तो है, जिसे कांख में दबाकर,
देख रहा है वह कर रहा अट्टहास...
देखो जिंदा मरते गये पुरखो तुम भी कि-
तुम्हारा हिस्से का राशन भ्ाी कर रहा पत्थरों पर शासन,
खुश हो जाओ, तृप्त हो जाओ...कि
वह मंदिर में चढ़कर पुण्य कमा रहा है।
- अलकनंदा सिंह
आखिरी ग्राहक बना रह गया
उसके हिस्से का राशन तो पहले ही
मंदिर के भंडारे में चढ़ गया...
कह दिया मां से जाकर उसने
बांध ले आज पेट से जोर की पट्टी
गेहूं चावल चीनी तेल में उसका हिस्सा
भाग्यवान हो गया है ... क्योंकि-वो
मंदिर के भंडारे में चढ़ गया है...
भूखा रहकर भी खुश है वो
कि उसका राशन पुण्य कमा रहा
भंडारे की जूठन से आती खुश्बू से
मां-बेटे दोनों भर लेंगे अपना पेट
ये जूठन नहीं उसका अपना है राशन
भक्तों के कमाये पुण्यों में भीगा
मंदिर के पिछवाड़े की जूठन से तृप्त
जो कि मंदिर के भंडारे में चढ़ गया है...
चल रहा अविराम अनवरत ऐसे ही
सदियों से राशन की कतारों का खेला
बनाता जा रहा अनेक दासों का रेला
अब दुकानों पर राशन नहीं ,पुण्य बिक रहे
पत्थर को लगते भोग और दास रो रहे
जूठन में आनंद, दुत्कारे जाने का परमानंद
उसकी खीसों में रम गया है ऐसे... जैसे कि
मंदिर से फेंका गया पकापकाया पुण्य
उसके पुरखों तक को तृप्त कर रहा हो जैसे-
और क्यों रोये चीखे खिसियाये अपने पुरखों की भांति
आत्मसम्मान से भूख नहीं मिटती
एक आत्मसम्मान ही तो है, जिसे कांख में दबाकर,
देख रहा है वह कर रहा अट्टहास...
देखो जिंदा मरते गये पुरखो तुम भी कि-
तुम्हारा हिस्से का राशन भ्ाी कर रहा पत्थरों पर शासन,
खुश हो जाओ, तृप्त हो जाओ...कि
वह मंदिर में चढ़कर पुण्य कमा रहा है।
- अलकनंदा सिंह
No comments:
Post a Comment