रुई के फाहों से हैं.. फिर भी चुभते हैं ,
संस्कारों के वे सारे दांव जो बचपन में
मां ने अपने दूध से छानकर--
छांटकर खून में पिरो दिये थे
बेटे और बेटी दोनों में ही तो बराबर
फिर...फिर आज ये क्या हो गया..
कि.....
बालपन में गूंथी गई सारी
संवेदना ही ढहा दी गईं आज, जिन्होंने
बदल दीं वो संभावनायें भी
उसकी एक लंबी..अंतहीन चीख में..देखो !
कि.....
थरथराई और जड़ होकर हुईं विलीन सभी
भावनायें..आकांक्षायें वो उठते ज्वार सी
मां के दूध पर आज कोयले से लिख रही हैं
कि आदम के दिये इस नये पाठ में
हव्वा को हासिल हुआ बस..और..बस..
बलत्कृत हो खुद के मिटते जाने का दर्द
कि....
अब सड़क पर चलते हुये हर क्षण
उड़ी रहती है नींद उसकी
और बिस्तर ....पर...भी ?
बिस्तर पर सांप की तरह रेंग कर
बन जाती है फिर वही सड़क मन पर
कि जहां..
टपकती लारों से लथपथाया था शरीर
पीछा करती आंखें.. टटोलते हाथ..हब्शी मन..
उफ ...वो सब...मंजर !
कि.....
देखो..आज उनसे बचता हुआ
उस बलत्कृत के तन से गुजर कर
मेरे मन तक पहुंचा वो..
फिर पारे सा रिसता हुआ दर्द
कि स्वाभिमानी सांसों की वो अकड़न..
वो पीड़ा...वो लड़ाई...वो जगहंसाई...
दुत्कारने में पारंगत वो रहनुमाई
कि.....
अपने बूते जीने का.. हंसने का..
सफल होने का.. हौसला पाले वो
गिरती.. फिर उठती, रिसते अनुभवों से
भरा, उसका चेहरा-उसके आंसू-
क्यों मेरे भी पोर पोर में उतर रहे हैं
उसकी चीख और मेरी आवाज अबतक
अरे ! एक सी क्यों हुये जा रही है
कि .....
वेदना उसकी मैं क्यों झेल रही हूं
वह दृश्य होकर.. अदृश्य रूह सी
क्यों मुझमें ही गलती जा रही है,
हर चौथी चार-दीवारी से निकलकर
उसकी वेदना का निकास..आखिर..
क्यों मुझ तक ही आता है
घुटनों में दबे उसके और मेरे अस्तित्व का
ये एक सा कैसा नाता है।
- अलकनंदा सिंह
संस्कारों के वे सारे दांव जो बचपन में
मां ने अपने दूध से छानकर--
छांटकर खून में पिरो दिये थे
बेटे और बेटी दोनों में ही तो बराबर
फिर...फिर आज ये क्या हो गया..
कि.....
बालपन में गूंथी गई सारी
संवेदना ही ढहा दी गईं आज, जिन्होंने
बदल दीं वो संभावनायें भी
उसकी एक लंबी..अंतहीन चीख में..देखो !
कि.....
थरथराई और जड़ होकर हुईं विलीन सभी
भावनायें..आकांक्षायें वो उठते ज्वार सी
मां के दूध पर आज कोयले से लिख रही हैं
कि आदम के दिये इस नये पाठ में
हव्वा को हासिल हुआ बस..और..बस..
बलत्कृत हो खुद के मिटते जाने का दर्द
कि....
अब सड़क पर चलते हुये हर क्षण
उड़ी रहती है नींद उसकी
और बिस्तर ....पर...भी ?
बिस्तर पर सांप की तरह रेंग कर
बन जाती है फिर वही सड़क मन पर
कि जहां..
टपकती लारों से लथपथाया था शरीर
पीछा करती आंखें.. टटोलते हाथ..हब्शी मन..
उफ ...वो सब...मंजर !
कि.....
देखो..आज उनसे बचता हुआ
उस बलत्कृत के तन से गुजर कर
मेरे मन तक पहुंचा वो..
फिर पारे सा रिसता हुआ दर्द
कि स्वाभिमानी सांसों की वो अकड़न..
वो पीड़ा...वो लड़ाई...वो जगहंसाई...
दुत्कारने में पारंगत वो रहनुमाई
कि.....
अपने बूते जीने का.. हंसने का..
सफल होने का.. हौसला पाले वो
गिरती.. फिर उठती, रिसते अनुभवों से
भरा, उसका चेहरा-उसके आंसू-
क्यों मेरे भी पोर पोर में उतर रहे हैं
उसकी चीख और मेरी आवाज अबतक
अरे ! एक सी क्यों हुये जा रही है
कि .....
वेदना उसकी मैं क्यों झेल रही हूं
वह दृश्य होकर.. अदृश्य रूह सी
क्यों मुझमें ही गलती जा रही है,
हर चौथी चार-दीवारी से निकलकर
उसकी वेदना का निकास..आखिर..
क्यों मुझ तक ही आता है
घुटनों में दबे उसके और मेरे अस्तित्व का
ये एक सा कैसा नाता है।
- अलकनंदा सिंह
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