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Thursday 23 January 2014

एक सा नाता ...मेरा और उसका ?

रुई के फाहों से हैं.. फिर भी चुभते हैं ,
संस्‍कारों के वे सारे दांव जो बचपन में
मां ने अपने दूध से छानकर--
छांटकर खून में पिरो दिये थे
बेटे और बेटी दोनों में ही तो बराबर
फिर...फिर आज ये क्‍या हो गया..

कि.....
बालपन में गूंथी गई सारी
संवेदना ही ढहा दी गईं आज, जिन्‍होंने
बदल दीं वो संभावनायें भी
उसकी एक लंबी..अंतहीन चीख में..देखो !

कि.....
थरथराई और जड़ होकर हुईं विलीन सभी
भावनायें..आकांक्षायें वो उठते ज्‍वार सी
मां के दूध पर आज कोयले से लिख रही हैं
कि आदम के दिये इस नये पाठ में
हव्‍वा को हासिल हुआ बस..और..बस..
बलत्‍कृत हो खुद के मिटते जाने का दर्द

कि....
अब सड़क पर चलते हुये हर क्षण
उड़ी रहती है नींद उसकी
और बिस्‍तर ....पर...भी ?
बिस्‍तर पर सांप की तरह रेंग कर
बन जाती है फिर वही सड़क मन पर
कि जहां..
टपकती लारों से लथपथाया था शरीर
पीछा करती आंखें.. टटोलते हाथ..हब्‍शी मन..
उफ ...वो सब...मंजर !

कि.....
देखो..आज उनसे बचता हुआ
उस बलत्‍कृत के तन से गुजर कर
मेरे मन तक पहुंचा वो..
फिर पारे सा रिसता हुआ दर्द
कि स्‍वाभिमानी सांसों की वो अकड़न..
वो पीड़ा...वो लड़ाई...वो जगहंसाई...
दुत्‍कारने में पारंगत वो रहनुमाई

कि.....
अपने बूते जीने का.. हंसने का..
सफल होने का.. हौसला पाले वो
गिरती.. फिर उठती, रिसते अनुभवों से
भरा, उसका चेहरा-उसके आंसू-
क्‍यों मेरे भी पोर पोर में उतर रहे हैं
उसकी चीख और मेरी आवाज अबतक
अरे ! एक सी क्‍यों हुये जा रही है

कि .....
वेदना उसकी मैं क्‍यों झेल रही हूं
वह दृश्‍य होकर.. अदृश्‍य रूह सी
क्‍यों मुझमें ही गलती जा रही है,
हर चौथी चार-दीवारी से निकलकर
उसकी वेदना का निकास..आखिर..
क्‍यों मुझ तक ही आता है
घुटनों में दबे उसके और मेरे अस्‍तित्‍व का
ये एक सा कैसा नाता है।
- अलकनंदा सिंह

Sunday 19 January 2014

हम गौरैया..

साफ आकाश, साफ दिन
साफ घर की खिड़कियां
और इस बीच
लटकता वह जर्जर
तेजी से डोलता घोंसला
गौरैया का...
तस्‍वीर है यह उस संघर्ष की
जिसमें-
रात दिन जी रहे हैं हम
बचाकर सांसें,आत्‍मा,प्रेम
और स्‍वाभिमान भी
कितनी कठिनाई से,
उस घोंसले वाली गौरैया की भांति
- अलकनंदा सिंह

Sunday 5 January 2014

शून्‍य एक बुनें चलो

वो पल कितने भावुक और
कितने निष्‍ठुर भी थे देखो-
कि मैंने तुमको ईश्‍वर माना
इसको सच मत होने देना
सखा कहा है सखा रहो तुम
ईश्‍वर होकर बैठ ना जाना

शायद तुमको पता नहीं है
ईश्‍वर के खाते में तो
निष्‍ठुरता का ही धन जमा है
पर तुम तो मेरे सखा हुये हो
तुम्‍हारे कांधों पर ही तो है सवार
मेरा मान भी  और अपमान भी 

ये जो सब तुम देख रहे हो
लालच, इच्‍छायें, मन का भारी होना
क्‍या इन्हें तुम सुन भी रहे हो
सुनकर भी तुम मौन ना रहना
कुछ मेरे अवगुन तुम भी गुन लेना
तब शब्‍दों के ये सप्‍त समुंदर
तुमको अवगुन से पार करायेंगे

सखावृष्‍टि से हम दोनों ही तब
जीवन का,  शून्‍य एक बुन पायेंगे
चलो सखा, अब बुनें ऐसा शून्‍य एक
कि साकार हो जायें जहां.. मेरे और
तुम्‍हारे बीच घट रहे सारे ही भाव
न सखा रहे ना ईश जहां, बस जाये एक शून्‍य..
संज्ञा शून्‍य..भाव शून्‍य..तुम शून्‍य..मैं शून्‍य


- अलकनंदा सिंह



Friday 3 January 2014

वह जो आज अदृश्‍य हो गई

                  (1)

वह आत्‍मा...ही तो है अकेली जो !
निराकार..निर्लिप्‍त भाव से ही,
प्रेम का अस्‍तित्‍व बताने को -
अपने विशाल अदृश्‍य शून्‍य में...
प्रवाहित करती रहती है आकार,

निपट अकेली पड़ गई आज वो.. 
जिसने स्‍वयं को करके विलीन,
निराकार से आकारों में ढली पर ..अब..
अब ढूंढ़ रही है अपना वो दबा हुआ छोर,
जो थमा दिया था देह को.. स्‍वयं कि-
हो कर निश्‍चिंत  अब जाओ..और,
दे दो प्रेम को, उसका विराट स्‍वरूप

---पर ये षडयंत्र रचा प्रकृति ने
कि- प्रेम का सारा श्रेय..
देह अकेली ही पा गई ,
वही व्‍यक्‍त करती गई सब संप्रेषण प्रेम के-
ये देखकर --कोने में धकेली, ठगी रह गई...आत्‍मा,
और आज...
देख अपने शून्‍य का विलाप
देख देह का निर्लज्‍ज प्रलाप कि-
निर्भय हो देह ने थामा है असत्‍य 
और उसी असत्‍य के संग ...
एक छोर से.. प्रेम की पवित्रता को-
हौले हौले रौंदकर आगे चलती रही देह
गढ़ती रही प्रेम की नई नई परिभाषायें...
                     (2)

आज के प्रेम की नई भाषा..है ये कि-
जहां और जब  दिखती है.. देह,
तो  दिखता है..प्रेम भी वहीं पर
मगर इसकी आत्‍मा..हुई विलीन?
दिखाकर आज के प्रेम का नया स्‍वरूप
वह वाष्‍पित हो कबकी उड़ गई कहीं
आत्‍मविहीन हो गया प्रेम और..
ऐसे ही निष्‍प्राण प्रेम से... जो उग रहा है..
वह तप्‍त है देह के अभिमान से..आज

तभी तो.....
जल रहा है जब सृष्‍टि का आधार ही
तब..प्रेम बिन जीवन कैसा..ये
वो हुआ अब आत्‍मविहीन, तो फिर प्रेम कैसा ..
फिर इसे देह में प्रवाहित करने को 
कौन साधेगा संधान, भागीरथ अब कौन बने
कौन सिक्‍त करे.. आत्‍मा की गंगा से इसको
कंपकंपा रहा प्रेम... तप रही है देह तभी..
फिर कैसे हो सृष्‍टि का प्रेममयी आराधन
झांके कौन देह के भीतर.. पाने को मर्म स्‍पंदन

- अलकनंदा सिंह