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Saturday, 28 December 2013

ये ज़िद का आलम...है

ज़रूरतों पर जो टिकी हैं शादियां
यूं हैं... जैसे हों चढे़ कब्रों पर फूल
उनमें रंगत है.. खुश्‍बू भी हैं तैरती
मगर किसी बेवज़ूद के सीने पर
चढ़े वो ढूंढ़ते हैं अपना ही वज़ूद

जिस एक सांस के लिए भागते हो
उन्‍हें ही जीना छोड़ दिया है कबका
सांसों को भी है सांस की ज़रूरत
अंधाधुंद दौड़ती एक ज़िद का आलम
पसरा है सबकुछ पाने की बदहवासी में,

तमाम-काम और काम-तमाम के बीच
सांसों को जीने दो वो खुश्‍बुयें फूलों की
उंगलियों के पोरों में समाने दो रंगत
थोड़ी रफ्तार कम करके तो देखो
खुश्‍बुयें सभी तैर रही हैं तुम्‍हारी तरफ
सबकुछ पाने की चाहत में
बहुतकुछ छूट भी जाता है
इस छूटने और पाने के बीच की
कुछ सांसें अपनी धड़कनों के भी नाम करो

तो क्‍यों न अब ये ठान लिया जाये
जी लिया जाये उस रंगत को भी
बहकर तो देखें उस खुश्‍बू में
जो दिखेगी मगर मिल न सकेगी ,
जिस खुश्‍बू को जीने के लिए हांफते-
दौड़ते रहे ताउम्र तुम
कब्र में सोने के बाद तो सुन लो कि
सांसें भी गुलाम होती हैं मिट्टी की

तो क्‍यों न चंद सांसें चंद अल्‍फाज़
चंद कतरनें यादों की और --
चंद चाहतों की खुश्‍बू से तरबतर कर लो

ज़रूरतों पर टिके रिश्‍तों में कुछ
सांसें अपनी भी डालो और जी लो
अपनी ही खुश्‍बू को.. रंगत को तुम
फिर कभी पर न छोड़ों इन खुश्‍बुओं को
यूं भागते रहने से नींव खोई और छूटा
रिश्‍तों की धड़कन का सिरा कोई
ज़रूरत से रिश्‍ते नहीं बनते पर
रिश्‍तों की ज़रूरत होती है हमें...

- अलकनंदा सिंह

उस दिन सीता नहीं जली थी...

सीमा काढ़ जब धनुष कोर से                 
लक्ष्‍मण ने बांटा था अस्‍तित्‍व
सीमा लांघ जब रावण ने डाला
दुस्‍साहस का नया दांव एक..
तब ही से सीमा स्‍त्रीलिंग हो गई ..

सीमा का ही वो उल्लंघन था
जो सीता बन गई एक स्‍त्रीदेह मात्र
कहीं ताड़का--मंदोदरी- तो कहीं
उर्मिला और द्रुपदसुताओं को...
सीमाओं में कैद कर गया समय,
सीमाओं के तटबंधों से लेकर..
घर की दहलीजों से चौराहों तक जाते
सीताओं के मत्‍थे पर सीमा काढ़ते
न जाने कितने राम मिलेंगे.. तुमको हे सीते!


शुद्धि की अग्‍नि में उस दिन
एक सीता नहीं जली थी, और ना ही
एक राम का जीता था विश्‍वास
वरन हार गई थी प्रेमिका-पत्‍नी-
और एक स्‍त्री भी... जिसने खोया
अपनी सांसों पर अपना अधिकार,
टूटा था उन सब सीताओं का दंभ
जो अपने रामों को पा फूला नहीं समाता था,

भंग हुआ था घोर प्रमाद हर आधे की
अधिकारी - रानी - साम्राज्ञी होने का
सर्वस्‍व तब नहीं गया था, जब
रावण ने हरण किया था,
हारी तो तब थी पत्‍नी भी और स्‍त्री..भी
जब लपटों से बाहर आकर उसने
अपने उसी राम को खोया था

अब चयन करो ! संकल्‍प करो !  हे सीते,
कि हों कोई रावण.. लक्ष्‍मण या फिर हों..
कोई भी राम तुम्‍हारे जीवन में ..
कोई क्‍यों खींचे-बांधे-काढ़े सीमाओं को
स्‍वत्‍व संधान का अधिकार तुम्‍हारा है
- अलकनंदा सिंह