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Monday 2 December 2013

उन्‍मुक्‍त हास

Painting: Her Shame by  Dine Lowery
अरे जरा देखूं तो...
यह क्‍या है जो
अपरिचित सी है पर
लगती चिरपरिचित
ये आकुलता है...जो
चेतना से संग संग चल रही है
रेंग रही है...घिसट रही है..
कई स्‍तर हैं इस चेतना के
जिनमें ये चलती हैं एक साथ
दोनों हाथ थामें
चलती रहती है निरंतर
कुछ बुनते  हुये
कुछ गुनते हुये
कुछ सुलझते हुये
फिर क्‍यों मन करता है
कि-
इतना रोऊं..इतना चीखूं कि-
सारा आकुल रुदन बदल जाये
उन्‍मुक्‍त हास में
नहीं या फिर
इतना खिलखिलाऊं कि आंखें
निर्झर सी दीख पड़ें-
- अलकनंदा सिंह

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