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Sunday 27 October 2013

मेरा छठा तत्‍व

देखो..
सखा आज तुमसे कहती हूं
सुनो और बूझो बतलाओ
तुम तो पढ़ लेते थे अंतस मेरा
फिर क्‍यों आज मेरे मन के...
आखर आखर बीन रहे हो,

देखो..
सब कहते ये पांच तत्‍व से
मिलकर बना शरीर...
पर छठे तत्‍व की बनी हूं मैं
इस छठे तत्‍व को कैसे भूलूं 
जिससे चले शरीर..!

देखो..
वो शरीर जिस पर तुमने... हे सखा
पिरो दिये हैं स्‍वर-श्‍वास के कुछ फूल
वो शरीर जिस पर गिर कर
रपट रहे हैं सारे जग के तीखे शूल

देखो..
पत्‍थर पर खुरच रही हूं कबसे
इस छठे तत्‍व का नाम पता
पर देह- भीतर जो भय बैठा है
नहीं लिख पा रहा इक आखर भी
कहो... तो, इस तरह कैसे होगा
मेरे छठे तत्‍व का साक्षात्‍कार

देखो..
यूं तो मुझमें क्षमता है इतनी,
कि पी जाऊं संसार, गरल का -
पर छठे तत्‍व ने रोका मुझको
तुम पर करने को आघात
ये जितने भी हैं गरल तुम्‍हारे
क्‍यों मैं ही पी कर दिखलाऊं
कुछ तेरा भी तो कंठ भिगोये
तुझको भी तो भान कराये
क्‍यों मेरे ही सब हिस्‍से आये
तू भी जाने गरिमा इसकी
इसका करे मान सम्‍मान
देह के भीतर ''मैं'' बैठी हूं
छठे तत्‍व का पल्‍लू थाम
- अलकनंदा सिंह

Monday 14 October 2013

दंगों पर..

पत्‍थर सी बेजान पड़ी लाशें
कहीं धड़ है तो कहीं सिर
खून से लबालब हैं सारे शहर की नालियां
बहते हूये खून में भी, अब तो कीड़े पड़ गये

बचाओ बचाओ की आवाजें और उनका खौफ
न रोटी बेटी का मसला है ना मान सम्‍मान का
फिर क्‍यों श्‍मसान में तब्‍दील कीं बस्‍तियां
ए सियासत के मरीजो ! ज़रा बताओ तो
क्‍या बेचारगी से मर रही ज़िंदगी के,
नाटक तुम्‍हारे लिए कम पड़ गये

कौन रोया है हक़ीकत दंगों की देखने के बाद,
तुम तो अब मुर्दों के बनाये मंच पर
ज़़िंदा लाशों की तरह नाचते हो
शमसीर को रख लो मयान में अभी,
बचे हुये बच्‍चों के सीने छोटे हैं अभी

अरे..सियासत के मरीजो !
जाओ, कुछ साल रुक कर आना
तब तक बस्‍तियां जवान हो लेंगीं
तुम्‍हारी शमसीर भी कुछ सांस ले लेगी
तुम फिर रचोगे एक नदी
बहते हुये खून की..क्‍योंकि-
हमनिवालों का शिकार तुम्‍हें भाता है
नया जवान खून जो मुंह को है लगा
तो छूटने को हर बार शमसीर ही मांगता है
खून से सने हाथों को खून से ही धोने की
ये अजब शर्त है इस ज़मीं पर जिंदगी की
खून में नहाया भी सफेदपोश ही कहलाता है

सालों से इस माज़रे के गवाह रहे
एक गिद्ध ने दूसरे से कहा-
छोड़ो, अब ये खून.. शमसीर और
आम आदमी के रोने की बातें
अमां हमें तो कबके खाने के लाले पड़ गये
जब से मंचों पर सजे हैं ये सफेदपोश
तभी से हमें अपने बच्‍चे भी गंवाने पड़ गये...
- अलकनंदा सिंह

Wednesday 9 October 2013

सूत्रधार शर्त का

कभी देखा है तुमने-
विश्‍वास को,
सांसों से घात करते हुये
उन्‍हें ठगते हुये ? मैंने देखा है,
विश्‍वास की असली रंगत को,
जिससे भयाक्रांत हैं सांसें कि-
विश्‍वास पर विश्‍वास कभी
न करना,वरना------
यही तो बनाता है---
दोस्‍तों को द़श्‍मन,
अपनों को पराया
खून को पानी
अल्‍हढ़ को संजीदा
समय की सार्थकता
यही सिद्ध करता है
यही परिभाषित करता है प्रेम
यही पालता है स्‍वार्थ के जंगल
जीवन के सारे युद्धों का
यही है सूत्रधार
फिर भी जीवन जीने की
पहली जरूरत है विश्‍वास
पहली शर्त है विश्‍वास
जीवन का विराम है विश्‍वास
तो आओ नकारा विश्‍वास को
कर दें पदावनत अपने विश्‍वास से
और बो दें नये विश्‍वास का अंकुर
जिसकी फसल से लहलहा जाये
ये पीढ़ी और इसकी रग रग
उसके मन की कोरों में भी
फिर जम जाये अपना विश्‍वास

- अलकनंदा सिंह

Tuesday 1 October 2013

एक कदम शहर की ओर...

जा रही थी वह बेखबर
पगडंडी छोटी और
तमन्‍नायें हज़ार
निर्द्वंद प्‍यार का तूफान सांसों में
थामे आंचल में कांटे बेशुमार
वो बांटती थी प्‍यार
वो खोजती थी प्‍यार
चाहती थी ठंडी छांव
किसी की सांसों से हर बार
बस एक कदम चला शहर की ओर
और...और...और...अब तो
झोपड़ी को महल भी बनाकर देखा
मगर मिला उसे बस
दुखती रगों का अंबार
जो चाहा था नि:स्‍वार्थ प्रेम 
फिर देखा उसका रूप- विद्रूप
अंतस का स्‍वप्‍न
टूटा रहा है हर बार
क्‍यों अब भी बाकी है आशा
कि समेट ले उसके मन का भोजपत्र
कोई आकर जिस पर
टांका हुआ हो बस प्‍यार ही प्‍यार
- अलकनंदा सिंह