नहीं जानते क्या सखा तुम..
जिस धड़कन में तुम बसते हो
नित नये बहानों से डसते हो
दिल के टुकड़े टुकड़े करते हो..
छाती की वो उड़ती किरचें
नभ को छूने जाती हैं
सखाभाव से जिनको तुमने
थाम लिया था सांसों में,
पायल और तुम्हारी साजिश
खूब समझ आती है सखा
वो चुप हैं.. तुम हंसते हो
क्या घोला है मन-स्पंदन में,
आज तुम्हारी साजिश्ा का मैं
हिस्सा नहीं बनने वाली
पीठ दिखाकर कहते हो ये
आदत तो मेरी बचपन वाली,
कुंती- कुब्जा- रुकमणी नहीं मैं
याचक बनकर नहीं जिऊंगी
तेरे हर स्पंदन में घुलकर
उन किरचों के संग बहूंगी...
सखाभाव से जिनको तुमने
थाम लिया था सांसों में,
धारा संग तो सब बहते हैं
उल्टी जो बहती - वही सखी मैं
पग से बहकर मन तक पहुंचूं
मुझे कामना नहीं रास की
मैं तो उन किरचों में ही खुश हूं...
सखाभाव से जिनको तुमने
थाम लिया था सांसों में।
-अलकनंदा सिंह
जिस धड़कन में तुम बसते हो
नित नये बहानों से डसते हो
दिल के टुकड़े टुकड़े करते हो..
छाती की वो उड़ती किरचें
नभ को छूने जाती हैं
सखाभाव से जिनको तुमने
थाम लिया था सांसों में,
पायल और तुम्हारी साजिश
खूब समझ आती है सखा
वो चुप हैं.. तुम हंसते हो
क्या घोला है मन-स्पंदन में,
आज तुम्हारी साजिश्ा का मैं
हिस्सा नहीं बनने वाली
पीठ दिखाकर कहते हो ये
आदत तो मेरी बचपन वाली,
कुंती- कुब्जा- रुकमणी नहीं मैं
याचक बनकर नहीं जिऊंगी
तेरे हर स्पंदन में घुलकर
उन किरचों के संग बहूंगी...
सखाभाव से जिनको तुमने
थाम लिया था सांसों में,
धारा संग तो सब बहते हैं
उल्टी जो बहती - वही सखी मैं
पग से बहकर मन तक पहुंचूं
मुझे कामना नहीं रास की
मैं तो उन किरचों में ही खुश हूं...
सखाभाव से जिनको तुमने
थाम लिया था सांसों में।
-अलकनंदा सिंह
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