जिस पर सोये थे सपने अपनी आंखें मींचे
वही शाख जो मन पर मां के
आंचल सी बिछ जाती
आज उसी ने झाड़ दिये हैं
यादों के सब पत्ते नीचे
मिट्टी मिट्टी में घुल जाये
वही मुहब्बत बसती है मुझमें
जो सर से पांव तक दौड़ रही है
कोई शिकवों के फिर द्वार ना खींचे
बूंद बूंद झर जड़ बनती जाऊं
ठहरूं उसी शज़र के नीचे
ठांव छांह से चुन लूं उनको
जिन सपनों ने पांव थे खींचे
- अलकनंदा सिंह
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