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Saturday, 28 August 2021

तेरा 'फिराक' तो उस दम तेरा फिराक हुआ, जब उनको प्यार किया मैंने, जिनसे प्यार नहीं


28 अगस्त 1896 को गोरखपुर जिले को गोला तहसील के बनवारपार में एक कायस्थ परिवार में जन्मे फिराक गोरखपुरी का पूरा नाम रघुपति सहाय उर्फ फिराक गोरखपुरी था। उनकी मृत्‍यु 3 मार्च 1982 को हुई। फिराक गोरखपुरी की शिक्षा अरबी, फारसी व अंग्रेजी में हुई। 29 जून 14 को उनका विवाह जमींदार विन्देश्वरी प्रसाद की बेटी किशोरी देवी से हुआ। कला स्नातक में पूरे प्रदेश में चौथा स्थान पाने के बाद प्रतिष्ठित परीक्षा आईसीएस में चुने गए। उन्होंने गुल- ए -नगमा,अंदाजे इश्किया शायरी,रूह -ए- कायनात, गजलिस्तान, शेरिस्तान,शबनमिस्तान आदि रचनाएं लिखीं। महात्मागांधी के विचारों से प्रभावित होकर 1920 में फिराक ने नौकरी छोड़ दी। आजादी के जंग में शामिल हो गए। डेढ़ साल की सजा कांटी। 3 मार्च 1982 को उनकी मृत्यु हो गई।

गुल ए नगमा के लिए मिला ज्ञानपीठ पुरस्कार
फिराक इलाहाबाद विश्वविद्यालय में 1930 से लेकर1959 तक अंग्रेजी के अध्यापक रहे। 1970 में उन्हें ‘गुल- ए -नगमा’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार और सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड से भी नवाजा गया। 1970 में साहित्य अकादमी का सदस्य भी बनाया गया। भारत सरकार ने फिराक को पद्मभूषण से सम्मानित किया।
पैतृक गांव में भी नही मिली है पहचान
शासन की उदासीनता के चलते फिराक का गांव में उनके पैतृक भवन का अधिकांश हिस्सा गिर चुका है। गिरे भाग पर फिराक संस्थान के अध्यक्ष डॉक्टर छोटेलाल द्वारा फिराक साहब के नाम से एक जूनियर हाईस्कूल चलाया जाता है। 18 अक्टूबर 2012 को फिराक सेवा संस्थान के अध्यक्ष श्री यादव की मांग पर तत्कालीन मुख्यमंत्री ने कम्युनिटी सेंटर बनाने का आदेश दिया था। बनवारपार में एक बड़े हाल, भव्य मंच, आर्ट गैलरी, वाचनालय, पुस्तकालय, गेस्टरूम व शौचालय आदि के निर्माण के लिए 61 लाख रुपये का प्रस्ताव बनाकर शासन को भेजा गया लेकिन हुआ कुछ नही। गांव में एक पुस्तकालय है। जिसका संचालन फिराक सेवा स्थान के अध्यक्ष डॉक्टर छोटे लाल यादव करते हैं।
मशहूर शायर ‘फिराक’ रहने वाले गोरखपुर के थे लेकिन उनकी कर्मस्थली इलाहाबाद रही। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान उन्हें जेल जाना पड़ा लेकिन गजलों के कारवां को सलाखें रोक न सकीं।
इविवि के उर्दू विभागाध्यक्ष प्रो. अली अहमद फातमी उनको अपना गुरु मानते थे। प्रो. फातमी कहते हैं कि ‘फिराक’ साहब जब गोरखपुर से इलाहाबाद आए तो पं. जवाहर लाल नेहरू से मिले। पं. नेहरू ने उनकी बहुत मदद की। उनकी परेशानी और बेरोजगारी को देखते हुए उन्हें कांग्रेस के कार्यालय में संयुक्त सचिव बना दिया। इंदिरा गांधी फिराक को चाचा कहती थीं।
उस समय कांग्रेस एक दल नहीं बल्कि राष्ट्रीय आंदोलन का प्रतीक था। फिराक साहब के जिम्मे कार्यालय की पूरी जिम्मेदारी थी। एक दिन कार्यालय में छापा पड़ा और वे गिरफ्तार होकर नैनी जेल भेज दिए गए। फिर नैनी से आगरा और फिर लखनऊ भेज दिए गए। आगरा जेल में 18 महीने तक रहे। उस समय आगरा जेल में बंद मौलाना शाहिद फाकरी और अहमद फफूलकी जैसे नामचीन शायरों से मुलाकात हुई और शायरी, गजलें कहने का सिलसिला शुरू हो गया। उनकी शायरी का अंदाज बिल्क़ुल अलग रहता था। 1935 में प्रलेस कार्यकारिणी की बैठक इलाहाबाद में हुई तब फिराक साहब शामिल हुए। प्रलेस की बुनियाद भी ‘फिराक’ साहब के सानिध्य में रखी गई।
उर्दू गजल को ईरान से लाए हिन्दुस्तान
फिराक गोरखपुरी ने उर्दू गजल को ईरान से निकालकर हिन्दुस्तान तक लाने का काम किया। फिराक अक्सर कहते थे कि ‘प्रेमिका से प्रेम करना छोटी बात है, आम लोगों से प्यार करना ज्यादा कठिन।’ इस बारे में उनकी एक शायरी है ‘तेरा फिराक तो उस दम तेरा फिराक हुआ, जब उनको प्यार किया मैंने, जिनसे प्यार नहीं।
फ़िराक़ मूलत: प्रेम और सौन्दर्य के कवि थे। जिसकी झलक उनक काव्य में साफ में दिखती है यहां पढ़‍िए उनकी कुछ ग़ज़लें-

1. 

फ़ितरत मेरी इश्क़-ओ-मोहब्बत क़िस्मत मेरी तंहाई
कहने की नौबत ही न आई हम भी किसू के हो लें हैं

आई है कुछ न पूछ क़यामत कहाँ कहाँ
उफ़ ले गई है मुझ को मोहब्बत कहाँ कहाँ

कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम
उस निगाह-ए-आश्ना को क्या समझ बैठे थे हम

कुछ भी अयाँ निहाँ न था कोई ज़माँ मकाँ न था
देर थी इक निगाह की फिर ये जहाँ जहाँ न था

किसी का यूँ तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी
ये हुस्न ओ इश्क़ तो धोका है सब मगर फिर भी

फिर वही रंग-ए-तकल्लुम निगह-ए-नाज़ में है
वही अंदाज़ वही हुस्न-ए-बयाँ है कि जो था

बात निकले बात से जैसे वो था तेरा बयाँ
नाम तेरा दास्ताँ-दर-दास्ताँ बनता गया

जिन की ज़िंदगी दामन तक है बेचारे फ़रज़ाने हैं
ख़ाक उड़ाते फिरते हैं जो दीवाने दीवाने हैं

बस इतने पर हमें सब लोग दीवाना समझते हैं
कि इस दुनिया को हम इक दूसरी दुनिया समझते हैं

दीदार में इक-तरफ़ा दीदार नज़र आया
हर बार छुपा कोई हर बार नज़र आया

खो दिया तुम को तो हम पूछते फिरते हैं यही
जिस की तक़दीर बिगड़ जाए वो करता क्या है

बस्तियाँ ढूँढ रही हैं उन्हें वीरानों में
वहशतें बढ़ गईं हद से तिरे दीवानों में

बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
तुझे ऐ ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं

बहसें छिड़ी हुई हैं हयात-ओ-ममात की
सौ बात बन गई है ‘फ़िराक़’ एक बात की

मुझ को मारा है हर इक दर्द ओ दवा से पहले
दी सज़ा इश्क़ ने हर जुर्म-ओ-ख़ता से पहले

ये नर्म नर्म हवा झिलमिला रहे हैं चराग़
तेरे ख़याल की ख़ुशबू से बस रहे हैं दिमाग़

रुकी रुकी सी शब-ए-मर्ग ख़त्म पर आई
वो पौ फटी वो नई ज़िंदगी नज़र आई

रस में डूबा हुआ लहराता बदन क्या कहना
करवटें लेती हुई सुब्ह-ए-चमन क्या कहना

रात भी नींद भी कहानी भी
हाए क्या चीज़ है जवानी भी

वो चुप-चाप आँसू बहाने की रातें
वो इक शख़्स के याद आने की रातें.

2.

बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं 

तुझे ऐ ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं 


मिरी नज़रें भी ऐसे क़ातिलों का जान ओ ईमाँ हैं 

निगाहें मिलते ही जो जान और ईमान लेते हैं 


जिसे कहती है दुनिया कामयाबी वाए नादानी 

उसे किन क़ीमतों पर कामयाब इंसान लेते हैं 


निगाह-ए-बादा-गूँ यूँ तो तिरी बातों का क्या कहना 

तिरी हर बात लेकिन एहतियातन छान लेते हैं 


तबीअ'त अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में 

हम ऐसे में तिरी यादों की चादर तान लेते हैं 


ख़ुद अपना फ़ैसला भी इश्क़ में काफ़ी नहीं होता 

उसे भी कैसे कर गुज़रें जो दिल में ठान लेते हैं 


हयात-ए-इश्क़ का इक इक नफ़स जाम-ए-शहादत है 

वो जान-ए-नाज़-बरदाराँ कोई आसान लेते हैं 


हम-आहंगी में भी इक चाशनी है इख़्तिलाफ़ों की 

मिरी बातें ब-उनवान-ए-दिगर वो मान लेते हैं 


तिरी मक़बूलियत की वज्ह वाहिद तेरी रमज़िय्यत 

कि उस को मानते ही कब हैं जिस को जान लेते हैं 


अब इस को कुफ़्र मानें या बुलंदी-ए-नज़र जानें 

ख़ुदा-ए-दो-जहाँ को दे के हम इंसान लेते हैं 


जिसे सूरत बताते हैं पता देती है सीरत का 

इबारत देख कर जिस तरह मा'नी जान लेते हैं 


तुझे घाटा न होने देंगे कारोबार-ए-उल्फ़त में 

हम अपने सर तिरा ऐ दोस्त हर एहसान लेते हैं 


हमारी हर नज़र तुझ से नई सौगंध खाती है 

तो तेरी हर नज़र से हम नया पैमान लेते हैं 


रफ़ीक़-ए-ज़िंदगी थी अब अनीस-ए-वक़्त-ए-आख़िर है 

तिरा ऐ मौत हम ये दूसरा एहसान लेते हैं 


ज़माना वारदात-ए-क़ल्ब सुनने को तरसता है 

इसी से तो सर आँखों पर मिरा दीवान लेते हैं 


'फ़िराक़' अक्सर बदल कर भेस मिलता है कोई काफ़िर 

कभी हम जान लेते हैं कभी पहचान लेते हैं.


3.  


सर में सौदा भी नहीं दिल में तमन्ना भी नहीं 

लेकिन इस तर्क-ए-मोहब्बत का भरोसा भी नहीं 


दिल की गिनती न यगानों में न बेगानों में 

लेकिन उस जल्वा-गह-ए-नाज़ से उठता भी नहीं 


मेहरबानी को मोहब्बत नहीं कहते ऐ दोस्त 

आह अब मुझ से तिरी रंजिश-ए-बेजा भी नहीं 


एक मुद्दत से तिरी याद भी आई न हमें 

और हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं 


आज ग़फ़लत भी उन आँखों में है पहले से सिवा 

आज ही ख़ातिर-ए-बीमार शकेबा भी नहीं 


बात ये है कि सुकून-ए-दिल-ए-वहशी का मक़ाम 

कुंज-ए-ज़िंदाँ भी नहीं वुसअ'त-ए-सहरा भी नहीं 


अरे सय्याद हमीं गुल हैं हमीं बुलबुल हैं 

तू ने कुछ आह सुना भी नहीं देखा भी नहीं 


आह ये मजमा-ए-अहबाब ये बज़्म-ए-ख़ामोश 

आज महफ़िल में 'फ़िराक़'-ए-सुख़न-आरा भी नहीं 


ये भी सच है कि मोहब्बत पे नहीं मैं मजबूर 

ये भी सच है कि तिरा हुस्न कुछ ऐसा भी नहीं 


यूँ तो हंगामे उठाते नहीं दीवाना-ए-इश्क़ 

मगर ऐ दोस्त कुछ ऐसों का ठिकाना भी नहीं 


फ़ितरत-ए-हुस्न तो मा'लूम है तुझ को हमदम 

चारा ही क्या है ब-जुज़ सब्र सो होता भी नहीं 


मुँह से हम अपने बुरा तो नहीं कहते कि 'फ़िराक़' 

है तिरा दोस्त मगर आदमी अच्छा भी नहीं .

4. 

किसी का यूँ तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी 

ये हुस्न ओ इश्क़ तो धोका है सब मगर फिर भी 


हज़ार बार ज़माना इधर से गुज़रा है 

नई नई सी है कुछ तेरी रहगुज़र फिर भी 


कहूँ ये कैसे इधर देख या न देख उधर 

कि दर्द दर्द है फिर भी नज़र नज़र फिर भी 


ख़ुशा इशारा-ए-पैहम ज़हे सुकूत-ए-नज़र 

दराज़ हो के फ़साना है मुख़्तसर फिर भी 


झपक रही हैं ज़मान ओ मकाँ की भी आँखें 

मगर है क़ाफ़िला आमादा-ए-सफ़र फिर भी 


शब-ए-फ़िराक़ से आगे है आज मेरी नज़र 

कि कट ही जाएगी ये शाम-ए-बे-सहर फिर भी 


कहीं यही तो नहीं काशिफ़-ए-हयात-ओ-ममात 

ये हुस्न ओ इश्क़ ब-ज़ाहिर हैं बे-ख़बर फिर भी 


पलट रहे हैं ग़रीब-उल-वतन पलटना था 

वो कूचा रू-कश-ए-जन्नत हो घर है घर फिर भी 


लुटा हुआ चमन-ए-इश्क़ है निगाहों को 

दिखा गया वही क्या क्या गुल ओ समर फिर भी 


ख़राब हो के भी सोचा किए तिरे महजूर 

यही कि तेरी नज़र है तिरी नज़र फिर भी 


हो बे-नियाज़-ए-असर भी कभी तिरी मिट्टी 

वो कीमिया ही सही रह गई कसर फिर भी 


लिपट गया तिरा दीवाना गरचे मंज़िल से 

उड़ी उड़ी सी है ये ख़ाक-ए-रहगुज़र फिर भी 


तिरी निगाह से बचने में उम्र गुज़री है 

उतर गया रग-ए-जाँ में ये नेश्तर फिर भी 


ग़म-ए-फ़िराक़ के कुश्तों का हश्र क्या होगा 

ये शाम-ए-हिज्र तो हो जाएगी सहर फिर भी 


फ़ना भी हो के गिराँ-बारी-ए-हयात न पूछ 

उठाए उठ नहीं सकता ये दर्द-ए-सर फिर भी 


सितम के रंग हैं हर इल्तिफ़ात-ए-पिन्हाँ में 

करम-नुमा हैं तिरे जौर सर-ब-सर फिर भी 


ख़ता-मुआफ़ तिरा अफ़्व भी है मिस्ल-ए-सज़ा 

तिरी सज़ा में है इक शान-ए-दर-गुज़र फिर भी 


अगरचे बे-ख़ुदी-ए-इश्क़ को ज़माना हुआ 

'फ़िराक़' करती रही काम वो नज़र फिर भी .


स्रोत : पुस्तक : Gul-e-Naghma प्रकाशन : Maktaba Farogh-e-urdu Matia Mahal Jama Masjid Delhi (2006) संस्करण : 2006

प्रस्‍तुत‍ि : अलकनंदा स‍िंंह