कविता सामाजिक समस्याओं का अविकल अनुवाद नहीं हुआ करती, न ही हो सकती है। नागार्जुन की क़ड़ी के अंतिम कवि थे त्रिलोचन जी। उत्तरप्रदेश के सुल्तानपुर जिले के कठधरा चिरानीपट्टी में 20 अगस्त 1917 को कवि श्री त्रिलोचन शास्त्री का जन्म हुआ था। वे नागार्जुन-केदारनाथ अग्रवाल के बाद हिन्दी की प्रगतिशील कविता की अंतिम क़ड़ी थे। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी में एमए अँगरेजी के छात्र रहे श्री शास्त्री का मूल नाम वासुदेव सिंह था।
उन्होंने लाहौर से शास्त्री की डिग्री प्राप्त की थी जिसकी वजह से 'शास्त्री' उनके नाम के साथ जु़ड़ गया। श्री त्रिलोचन आज, जनवार्ता और समाज जैसे अखबारों से एक पत्रकार के रूप में जु़ड़े रहे। इसके अलावा वाराणसी के ज्ञानमंडल प्रकाशन संस्था में भी उन्होंने काम किया।
पढ़िए उनकी कुछ ये कवितायें------
"धरती" में त्रिलोचन शास्त्री लिखते हैं-
मेरी दुर्बलता को हर कर
नयी शक्ति नव साहस भर कर
तुमने फिर उत्साह दिलाया
कार्यक्षेत्र में बढ़ूँ संभल कर
तब से मैं अविरत बढ़ता हूँ
बल देता है प्यार तुम्हारा।
त्रिलोचन प्रेम के कवि हैं, लेकिन उनका प्रेम गृहस्थ की नैतिक एवं स्वस्थ भावभूमि पर खड़ा है। वे प्रकृति के कवि हैं, प्राकृतिक अनुभूतियों के कवि हैं-
कुछ सुनती हो
कुछ गुनती हो
यह पवन आज यों बार-बार
खींचता तुम्हारा आँचल है
जैसे जब-तब छोटा देवर
तुमसे हठ करता है जैसे।
त्रिलोचन जीवन संघर्ष पर लिखते हैं-
तुम्हें सौंपता हूँ
चलना ही था मुझे-
सडक, पगडंडी, दर्रे कौन खोजता,
पाँव उठाया और चल दिया।
खाना मिला न मिला,
बड़ी या छोटी हर्रें नहीं गाँठ में बाँधी,
श्रम पर अधिक बल दिया।
मुझे कहाँ जाना है यह जानता था,
मगर कैसे और किधर जाना है
यह व्यौरा अनजाना था।
त्रिलोचन जी को एक उदात्त नैतिक एवं सामाजिक चेतना दायित्व बोधों के प्रति सचेत करती रहती है। इसीलिए निष्क्रियता पर उन्हें ग्लानि और आक्रोश होता है और लिख डालते हैं कि -
कोई काम नहीं कर पाया
कोई किसी के काम न आया
जगती से अन्न-जल-पवन लेता हूँ
क्या मेरा जीवन जीवन है?
शोषकों के प्रति, राज नेताओं के प्रति, अवसरवादियों के प्रति व्यंग्य उनके काव्य में सर्वत्र बिखरे पड़े हैं-
"झूरी बोला कि बाढ़ क्या आई
लीलने अन्न को सुरसा आई
अब कि श्रीनाथ तिवारी का घर
पक्का बन जाने की सुविधा आई।"
सत्यं, शिवं, सुन्दर के दिन प्रति दिन हारने का उल्लेख भी उनके काव्य में यहाँ वहाँ मिल जाता है-
अच्छाई इन दिनों बुराई के घर पानी
भरती है
अच्छाई के बिगड़े दिन हैं, और बुराई
राजपाट करती है।
कला पक्ष के विषय में भी त्रिलोचन जी लिखते हैं-
सीधे सादे सुर में अर के गान सुनाए
मन के करघों पर रेशम के भाव बुनाए।
शब्दों से ही वर्ण गंध का काम लिया है
मैंने शब्दों को असहाय नहीं पाया है।
प्रस्तुति -अलकनंदा सिंंह