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Friday, 30 April 2021

सूफिज्म से आगे रूहानी इबादत की बात करते हैं शायर सुरेंद्र चतुर्वेदी

 ‘जिसके पास एहसासों की दौलत हो, वो अल्फाजों की गुलामी नहीं करता।’ तो ऐसे ही अल्फाजों के दौलतमंद हैं सूफिज्म को शायरी के मुकाम में ढालने वाले सूफी शायर सुरेंद्र चतुर्वेदी। अजमेर (राजस्थान) के रहने वाले हरदिल अज़ीज सुरेंद्र चतुर्वेदी के गीत, ‘शब को रोज जगा देता है, कैसे ख्वाब सजा देता है। जब मैं रूह में ढलना चाहूं, क्यों तू जिस्म बना देता है’, उनको चाहने वालों के कानो में अक्सर गूंजते रहते हैं।

सूफिज्म का अहसास तब और गहरा हो जाएगा जब सुरेन्द्र चतुर्वेदी का ये शेर पढ़ेंगे आप –

‘रूह मे तबदील हो जाता है मेरा ये बदन,
जब किसी की याद में हद से गुज़र जाता हूँ मैं।

2017 में एक फिल्‍म आई थी ‘अनवर’, फिल्म का उनका गीत ‘मौला मेरे मौला मेरे, आंखें तेरी कितनी हसीं’ आज भी करोड़ों दिलों को खुद में डुबो लेता है।
फिल्म ‘लाहौर’, ‘घात’, ‘कहीं नहीं’, ‘नूरजहां’ आदि में फिल्माए गए उनके गीतों ने भी उन्हें खूब शोहरत से नवाजा है। टी सीरिज से हिन्दी-उर्दू मिश्रित गीतों पर उनका एक एलबम ‘तन्हा’ जारी कर चुका है।

चतुर्वेदी के अब तक सात गजल संग्रह, एक उपन्यास, ‘अंधा अभिमन्यु’, करीब पंद्रह कहानियां प्रकाशित हो चुकी हैं। ‘मानव व्यवहार और पुलिस’ नामक एक मनोविज्ञान पुस्तक भी छप चुकी है, जो आईपीएस को प्रशिक्षण के दौरान पढ़ाई जाती है।

छात्र जीवन से ही लेखन में जुट गए सुरेंद्र चतुर्वेदी दैनिक न्याय, दैनिक नवज्योति, दैनिक भास्कर, नवभारत टाइम्स, आकाशवाणी, दूरदर्शन और स्थानीय न्यूज चैनल से जुड़े रहे हैं। वह मुशायरों, कवि सम्मेलनों में भी शिरकत करते रहे हैं।

सतपाल ख़याल लिखते हैं – सुरेन्द्र चतुर्वेदी आजकल मुंबई में फिल्मों में पटकथा लेखन से जुड़े हैं। किसी शायर की तबीयत जब फ़क़ीरों जैसी हो जाती है तो वो किसी दैवी शक्ति के प्रभाव में ऐसे अशआर कह जाता है जिस पर ख़ुद शायर को भी ताज्ज़ुब होता है कि ये उसने कहे हैं।

फ़कीराना तबीयत के मालिक सुरेन्द्र चतुर्वेदी के शेर भी ऐसे ही हैं- ‘रूह मे तबदील हो जाता है मेरा ये बदन, जब किसी की याद में हद से गुज़र जाता हूँ मैं। एक सूफ़ी की ग़ज़ल का शेर हूँ मैं दोस्तों, बेखुदी के रास्ते दिल में उतर जाता हूँ मैं।’

सुरेन्द्र चतुर्वेदी के बारे में गुलज़ार साहब ने कहा है – ‘मुझे हमेशा यही लगा कि मेरी शक़्ल का कोई शख़्स सुरेन्द्र में भी रहता है, जो हर लम्हा उसे उंगली पकड़कर लिखने पे मज़बूर करता है।’

नीरज गोस्वामी के शब्दों के साथ सुरेंद्र चतुर्वेदी की शख्सियत के बारे में थोड़ा और गहरे उतरते हैं। वह लिखते हैं- एक बार जयपुर प्रवास के दौरान वहां के दैनिक भास्कर अखबार में एक छोटी सी खबर छपी कि शायर सुरेन्द्र चतुर्वेदी से जयपुर के शायर लोकेश साहिल ‘आर्ट कैफे’ में बैठ कर बातचीत करेंगे। जयपुर में कोई आर्ट कैफे भी है, ये भी तब तक पता नहीं था।

आइये, उनकी छपी हुई किताब ‘ये समंदर सूफियाना है’ की नज्‍़म है-

खुदाया इस से पहले कि रवानी ख़त्म हो जाए,
रहम ये कर मेरे दरिया का पानी ख़त्म हो जाए।
हिफाज़त से रखे रिश्ते भी टूटे इस तरह जैसे,
किसी गफलत में पुरखों की निशानी ख़त्म हो जाए।
लिखावट की जरूरत आ पड़े इस से तो बेहतर है,
हमारे बीच का रिश्ता जुबानी ख़त्म हो जाए।
हज़ारों ख्वाहिशों ने ख़ुदकुशी कुछ इस तरह से की,
बिना किरदार के जैसे कहानी ख़त्म हो जाए।

सुरेन्द्र चतुर्वेदी ने अपने लेखन की शुरुआत कविताओं से की और फिर वो कवि सम्मेलनों में बुलाये जाने लगे। मंचीय कवियों की तरह उन्होंने ऐसी रचनाएँ रचीं, जो श्रोताओं को गुदगुदाएँ और तालियाँ बजाने पर मजबूर करें। ज़ाहिर है ऐसी कवि सम्मेलनी रचनाओं ने उन्हें नाम और दाम तो भरपूर दिया लेकिन आत्मतुष्टि नहीं। साहित्य के विविध क्षेत्रों में हाथ आजमाने के बाद अंत में ग़ज़ल विधा में वो सुकून मिला, जिसकी उन्हें तलाश थी।

फैसलों में अपनी खुद्दारी को क्यूँ जिंदा किया।
उम्र भर कुछ हसरतों ने इसलिए झगड़ा किया।
मुझसे हो कर तो उजाले भी गुज़रते थे मगर,
इस ज़माने ने अंधेरों का फ़क़त चर्चा किया।
मैंने जब खामोश रहने की हिदायत मान ली,
तोहमतें मुझ पर लगा कर आपने अच्छा किया।
कुछ नहीं हमने किया रिश्ता निभाने के लिए,
अब जरा बतलाइये कि आपने क्या क्या किया।

सुरेन्द्र जब फिल्मों में किस्मत आजमाने के लिए मुंबई लिए रवाना हुए तो परिवार और इष्ट मित्रों ने उन्हें वहां के तौर तरीकों से अवगत कराते हुए सावधान रहने को कहा। मुंबई के सिने संसार में अच्छे साहित्यकारों की जो दुर्गति होती है, वो किसी से छिपी नहीं। सुरेन्द्र ने मुंबई जाने से पहले किसी भी कीमत पर साहित्य की सौदेबाजी न करने का दृढ़ निश्चय किया। मुंबई प्रवास के शुरुआती दौर में उन्हें अपने इस निश्चय पर टिके रहने में ढेरों समस्याएं आयीं लेकिन वह अपने निश्चय पर अटल रहे।

मुंबई की फिल्म नगरी में दक्ष साहित्यकारों की रचनाओं को खरीद कर या उनसे लिखवा कर अपने नाम से प्रसारित करने वाले मूर्धन्य साहित्यकारों की भीड़ में सुरेन्द्र को एक ऐसा शख्स मिला जिसने उनके जीवन की दिशा ही बदल दी। उस अजीम शख्स को हम सब गुलज़ार के नाम से जानते हैं। अपनी एक किताब में सुरेन्द्र कहते हैं “ज़िन्दगी में पहली बार महसूस हुआ कि फ़िल्मी कैनवास पर कोई रंग ऐसा भी है, जो दिखता ही नहीं, महसूस भी होता है।’

वह कहते हैं कि गुलज़ार साहब के व्यक्तित्व और कृतित्व ने मुझे बेइन्तहा प्रभावित किया। सुरेन्द्र और उनकी शायरी के बारे में गुलज़ार साहब फरमाते हैं, ‘सुरेन्द्र की ग़ज़लों में बदन से रूह तक पहुँचने का ऐसा हुनर मौजूद है, जिसे वो खुद Sufism रंग कहते हैं मगर मेरा मानना है कि वे कभी कभी Sufism से भी आगे बढ़ कर रूहानी इबादत के हकदार हो जाते हैं। कभी वे कबायली ग़ज़लें कहते नज़र आते हैं तो कभी मौजूदा हालातों पर तबसरा करते!’

Literature Desk: Legend News

Thursday, 22 April 2021

पृथ्‍वी दिवस पर पढ़‍िए ''सुमित्रानंदन पंत'' की ये मशहूर कविता

छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक सुमित्रानंदन पंत का जन्‍म बागेश्‍वर (उत्तराखंड) के कौसानी में हुआ था। वहां का उनका घर आज ‘सुमित्रा नंदन पंत साहित्यिक वीथिका’ नामक संग्रहालय बन चुका है। झरना, बर्फ, पुष्प, लता, भ्रमर-गुंजन, उषा-किरण, शीतल पवन, तारों की चुनरी ओढ़े गगन से उतरती संध्या तक सब उनके सहज काव्य का उपादान बने।

आज पृथ्‍वी दिवस पर सुमित्रानंदन पंत की वो मशहूर कविता पढ़िए जो बहुत प्रासांगिक है-
मैंने छुटपन में छिपकर पैसे बोये थे,
सोचा था, पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे,
रुपयों की कलदार मधुर फसलें खनकेंगी
और फूल-फलकर मैं मोटा सेठ बनूँगा
पर बंजर धरती में एक न अंकुर फूटा
बन्ध्या मिट्टी ने न एक भी पैसा उगला
सपने जाने कहाँ मिटे, कब धूल हो गये
मैं हताश हो बाट जोहता रहा दिनों तक
बाल-कल्पना के अपलर पाँवडे बिछाकर
मैं अबोध था, मैंने गलत बीज बोये थे,
ममता को रोपा था, तृष्णा को सींचा था।

अर्द्धशती हहराती निकल गयी है तबसे
कितने ही मधु पतझर बीत गये अनजाने
ग्रीष्म तपे, वर्षा झूली, शरदें मुसकाई
सी-सी कर हेमन्त कँपे, तरु झरे, खिले वन
और जब फिर से गाढ़ी, ऊदी लालसा लिये
गहरे, कजरारे बादल बरसे धरती पर
मैंने कौतूहल-वश आँगन के कोने की
गीली तह यों ही उँगली से सहलाकर
बीज सेम के दबा दिये मिट्टी के नीचे
भू के अंचल में मणि-माणिक बाँध दिये हो
मैं फिर भूल गया इस छोटी-सी घटना को
और बात भी क्या थी याद जिसे रखता मन
किन्तु, एक दिन जब मैं सन्ध्या को आँगन में
टहल रहा था, तब सहसा, मैंने देखा
उसे हर्ष-विमूढ़ हो उठा मैं विस्मय से

देखा-आँगन के कोने में कई नवागत
छोटे-छोटे छाता ताने खड़े हुए हैं
छाता कहूँ कि विजय पताकाएँ जीवन की
या हथेलियाँ खोले थे वे नन्हीं प्यारी
जो भी हो, वे हरे-हरे उल्लास से भरे
पंख मारकर उड़ने को उत्सुक लगते थे
डिम्ब तोड़कर निकले चिड़ियों के बच्चों से
निर्निमेष, क्षण भर, मैं उनको रहा देखता
सहसा मुझे स्मरण हो आया,कुछ दिन पहले
बीज सेम के मैंने रोपे थे आँगन में,
और उन्हीं से बौने पौधो की यह पलटन
मेरी आँखों के सम्मुख अब खड़ी गर्व से,
नन्हें नाटे पैर पटक, बढ़ती जाती है।

तब से उनको रहा देखता धीरे-धीरे
अनगिनती पत्तों से लद, भर गयी झाड़ियाँ,
हरे-भरे टंग गये कई मखमली चँदोवे
बेलें फैल गयी बल खा, आँगन में लहरा,
और सहारा लेकर बाड़े की पट्टी का
हरे-हरे सौ झरने फूट पड़े ऊपर को
मैं अवाक रह गया-वंश कैसे बढ़ता है
छोटे तारों-से छितरे, फूलों के छीटे
झागों-से लिपटे लहरों श्यामल लतरों पर
सुन्दर लगते थे, मावस के हँसमुख नभ-से,
चोटी के मोती-से, आँचल के बूटों-से।

ओह, समय पर उनमें कितनी फ़लियाँ फूटी
कितनी सारी फ़लियाँ, कितनी प्यारी फलियाँ
पतली चौड़ी फलियाँ! उफ उनकी क्या गिनती
लम्बी-लम्बी अँगुलियों – सी नन्हीं-नन्हीं
तलवारों-सी पन्ने के प्यारे हारों-सी,
झूठ न समझे चन्द्र कलाओं-सी नित बढ़तीं,
सच्चे मोती की लड़ियों-सी, ढेर-ढेर खिल
झुण्ड-झुण्ड झिलमिलकर कचपचिया तारों-सी
आह इतनी फलियाँ टूटीं, जाड़ों भर खाई,
सुबह शाम वे घर-घर पकीं, पड़ोस पास के
जाने-अनजाने सब लोगों में बँटबाई
बंधु-बांधवों, मित्रों, अभ्यागत, मँगतों ने
जी भर-भर दिन-रात महुल्ले भर ने खाई
कितनी सारी फ़लियाँ, कितनी प्यारी फ़लियाँ

यह धरती कितना देती है! धरती माता
कितना देती है अपने प्यारे पुत्रों को
नहीं समझ पाया था मैं उसके महत्व को
बचपन में स्वार्थ, लोभ-वश पैसे बोकर
रत्न प्रसविनी है वसुधा, अब समझ सका हूँ
इसमें सच्ची समता के दाने बोने हैं
इसमें जन की क्षमता के दाने बोने हैं
इसमें मानव-ममता के दाने बोने हैं
जिससे उगल सके फिर धूल सुनहली फसलें
मानवता की- जीवन श्रम से हँसे दिशाएँ-
हम जैसा बोयेंगे वैसा ही पायेंगे।

प्रस्तुत‍ि: अलकनंदा स‍िंंह