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Thursday, 25 March 2021

धूप की छाया रचने वाले कवि तेज राम शर्मा का जन्मद‍िन आज, कुछ प्रस‍ि‍द्ध कव‍ितायें


 आज ही के द‍िन यान‍ि 25 मार्च 1943 को हिन्दी भाषा के कवि तेज राम शर्मा का जन्म शिमला (हिमाचल प्रदेश) के गाँव बम्न्होल (सुन्नी) में हुआ था । वे भारत सरकार में विशेष सचिव के पद से सेवानिवृत्त होने के बाद स्वतंत्र लेखन में लगातार सक्र‍िय रहे।

उनके दो कव‍िता संग्रह 1984 में प्रकाश‍ित ”धूप की छाया” और 2000 में प्रकाश‍ित ”बंदनवार ”, ज‍िसमें बंदनवार का अनुवाद बांग्ला में हुआ। इसके अलावा एक कविता संग्रह “नहाए रोशनी में” भी प्रकाश‍ित हुआ।

कविताओं में- अकेलापन, उसने चुना, ऐनक, फ़ोटो, बहुत दूर, वरना वह भी, सागर का रंग बहुत प्रस‍िद्ध रहीं।

उनकी शिक्षा- हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय, शिमला से एम.ए. हिंदी, पोस्ट ग्रैजुएट डिप्लोमा इन ट्रेनिंग एंड डेवलपमेंट, मॅन्चेस्टर विश्वविद्यालय, यू.के.से क‍िया था । इसके अलावा डिप्लोमा इन ट्रेनिंग मॅनेजमेंट, इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रेनिंग एंड डेवलपमेंट, यू.के व डिप्लोमा इन फ्रेंच, हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय, शिमला भी उन्होंने क‍िया ।

कव‍ि तेजराम शर्मा को अखिल भारतीय कलाकार संघ साहित्य पुरस्कार, ठाकुर वेद राम राष्ट्रीय पुरस्कार, पंजाब कला साहित्य अकादमी पुरस्कार, हिमाचल साहित्य अकादमी सम्मान से नवाजा जा चुका है।

आज पढ़‍िए उनकी कुछ प्रस‍ि‍द्ध कव‍ितायें- 

गाँव के मन्दिर के प्राँगण में-
गाँव के मंदिर प्राँगण में
यहां जीर्ण-शीर्ण होते देवालय के सामने
धूप और छाँव का
नृत्य होता रहता है

यहाँ स्लेट छत की झालर से लटके
लकड़ी के झुमके
इतिहास पृष्ठों की तरह
गुम हो गए है

दुपहर बाद की मीठी धूप को छेड़ता
ठण्डी हवा का कोई झोंका
कुछ बचे झुमकों को हिला कर
विस्मृत युग को जगा जाता है

धूप में चमकती है ऊँची कोठी
पहाड़ का विस्मृत युग
देवदार की कड़ियों की तरह
कटे पत्थर की तहों के नीचे
काला पड़ रहा है
बूढे बरगद की पंक्तियों सा
सड़ रहा है
बावड़ी के तल में

इस गुनगुनी धूप में
पुरानी कोठी की छाया कुछ हिलती है
और लम्बी तन कर सो जाती है।

सपने अपने-अपने-

बालक ने सपना देखा
उड़ गया वह आकाश में
पीठ से फिसला उसका बस्ता
एक-एक कर आसमान से गिरी
पुस्तकें और काँपियाँ
देख कर मुस्कराया और उड़ता रहा
फिर गिरा आँखों से उसका चश्मा
धरती इतनी सुंदर है
उसने कभी सपने में भी न सोचा था

युवा ने सपना देखा
हवाई जहाज़ से
उसने लगाई छलांग
करतब दिखाता हुआ
निर्भय गिरता रहा धरती की ओर
जंगल जब तेजी से उसके पास आया
तो उसने पैराशूट खोल दिया
हवा का एक तेज़ झोंका
उसे राह से विचलित कर गया
पैराशूट को नियंत्रित करता हुआ
साहस के साथ वह
पेड़ों से घिरी चारागाह में उतरा
वहाँ एक युवती दौड़कर उसके पास आई
और प्यार भरी आँखों से उसे देखने लगी
सपने में ही अपना सिर उसकी गोद में रखकर
वह जीने के सपने देखने लगा

बूढ़े ने सपना देखा
सुबह-सुबह नदी स्नान करते हुए
फिसला जाता है उसका पाँव
वह नदी में डूबने लगता है
शिथिल इन्द्रियोँ से
छटपताता है बाहर निकलने के लिए
अपने-पराये कोई नहीं सुनते उसकी चीख
सब कुछ छूटता नज़र आता है
जैसे ही अंतिम साँस निकलने को होती है
बिस्तर पर जाग पड़ता है वह भयानक सपने से
काँपते हाथों से पानी पीता है और
सपने देखने से डरने लगता है।

कोई दिन-

हमारे सारे के सारे दिन
नष्ट नहीं हो जाते
कहीं एक दिन बच निकलता है
और जीवित रहता है
हवा,पानी, धूप, तूफान,काल
सब से लड़ता रहता है
लड़ते-लड़ते दूर तक निकल जाता है

सभी दिन तितली नहीं होते
कोई दिन तितली की तरह
पन्नों के बीच बच निकलता है
और क्षण-भंगुरता को चकमा दे जाता है
दिन
जिसमें मैं जीता हूँ
मेरा अपना नहीं हो पाता
मुट्ठी की रेत हो जाता है

पर वह दिन
जो बादलों की पीठ पर चढ़ कर
घूम आता है पर्वत–पर्वत
जीवित रहेगा बहुत दिनों
चीड़ और देवदार की गंध
आती रहेगी बरसों तक
उसके कोट से

मुझे अच्छा लगता है
जब बर्फ़ में ठिठुर रहे दिनों से
मैं उठा लाता हूँ एक दिन
गर्म पानी में हाथ-पाँव धुला कर
आग के पास बैठता हूँ
और शब्दों का एक गर्म-सा कंबल ओढ़ाता हूँ।

राग देस-

फासला
कि पार ही नहीं होता
हाथ से भाग्य-रेखा
रहती है सदा गायब
किसके पक्ष में
घटित हो रहा है सब कुछ
खतरनाक भीड़
कहाँ से उमड़ रही है?

इधर दीवारों से पलस्तर
उखड़ रहा है
उभर रहा है उसमें एक ही चेहरा
इस मौसम में
मिट्टी-गारे को ही
ताकती रह जाती है
दीवार पर उभरी इबारत

चोटियों पर गिरती है संकल्पों–सी लुभावनी बर्फ़
पर घाटी में ग्लेशियर
पिछली रात
नींव तक हिला गया है
गाँव-गाँव
घरों की दीवारें

उधर वैज्ञानिक
शुक्राणुओं में कम होती हलचल से
चिंतित हैं

इधर ऊसर में छिड़के बीज
चिड़ियाँ चुग जाती हैं
हाथ मलते रह जाते हैं शब्द

च्रारागाह में
भेड़ें पंक्तिबद्ध हैं
उतर रही है ऊन
सूरज छिपा है काले बादलों के बीच
पगडंडियाँ
कि दबती ही जा रही हैं
और उड़ती जाती है धूल
रंगमंच
कि नायक सभी हुए जाते हैं पतझड़ के चिनार
अगस्त्य हुए अरमानों के आगे
उमड़ रही है
आचमन के लिए भीड़
अबाअ सातों सुतों सहित हाथ जोड़े खड़ी है

विरासत
कि रेगिस्तान
फैला है ओर–छोर
शून्य में ताकते लोग़
पूछ रहे हैं
कौन-सी ऋचाओं के
अधिष्ठाता हैं
इन्द्र?
संस्कार
कि फिसल न जाए जनेऊ कान से
शंका करते हुए
नदियों से उठती
आग की लपटें
अग्निपुत्र पी रहें हैं लावा
सपनों की सूरत
निखरी हुई रेतीली आँखों में
साफ झलकते
परियों की चेहरे

मौसम कि बदलते ही
बीहड़ वन में फूलते हैं बरूस
पहाड़ में औरते छानती हैं सफेद मिट्टी
चमकती हैं घरो की दीवारें
स्लेट छत के चारों और
खिंचती हैं बरूस की बंदनवार रस्सियाँ
नज़र
कि अटकी रह जाती है
समुद्र किनारे के
नारियल के झुरमुटों बीच।

Alaknanda Singh - Legend News

Sunday, 7 March 2021

''किसी का सत्य था, मैंने संदर्भ में जोड़ दिया'' ल‍िखने वाले अज्ञेय, पढ़‍िए उनकी और भी कव‍ितायें

आधुनिक साहित्य के शलाका-पुरुष, जिन्‍होंने हिंदी साहित्य में भारतेंदु के बाद एक दूसरे आधुनिक युग का प्रवर्तन किया। 

प्रसिद्ध साहित्यकार सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन “अज्ञेय” का जन्‍म 7 मार्च 1911 को उत्तर प्रदेश के देवरिया जिला अंतर्गत कुशीनगर में हुआ था। बचपन लखनऊ, कश्मीर, बिहार और मद्रास में बीता। बीएससी करके अंग्रेजी में एमए करते वक्‍त क्रांतिकारी आन्दोलन से जुड़कर बम बनाते हुए पकड़े गये और वहाँ से फरार भी हो गए। सन् 1930 ई. के अन्त में पकड़ लिये गये। 1930 से 1936 तक का समय विभिन्न जेलों में कटा। अज्ञेय प्रयोगवाद एवं नई कविता को साहित्य जगत में प्रतिष्ठित करने वाले कवि हैं। अनेक जापानी हाइकु कविताओं को अज्ञेय ने अनूदित किया। बहुआयामी व्यक्तित्व के एकान्तमुखी प्रखर कवि होने के साथ-साथ वे एक अच्छे फोटोग्राफर और सत्यान्वेषी पर्यटक भी थे।

अज्ञेय ने गूढ़ कविताओं की रचना कर कविता में ‘दर्शन’ का रहस्य पैदा कर दिया। उनकी शब्द साधना ने हिंदी में कथा-साहित्य को एक महत्त्वपूर्ण मोड़ दिया। नई कविताओं में उनका योगदान काफी अहम है।

आज पढ़‍िए उनकी कुछ चुन‍िंदा कव‍ितायें ... 

नया कवि : आत्म-स्वीकार

किसी का सत्य था,

मैंने संदर्भ में जोड़ दिया ।

कोई मधुकोष काट लाया था,

मैंने निचोड़ लिया ।


किसी की उक्ति में गरिमा थी

मैंने उसे थोड़ा-सा संवार दिया,

किसी की संवेदना में आग का-सा ताप था

मैंने दूर हटते-हटते उसे धिक्कार दिया ।


कोई हुनरमन्द था:

मैंने देखा और कहा, 'यों!'

थका भारवाही पाया -

घुड़का या कोंच दिया, 'क्यों!'


किसी की पौध थी,

मैंने सींची और बढ़ने पर अपना ली।

किसी की लगाई लता थी,

मैंने दो बल्ली गाड़ उसी पर छवा ली ।


किसी की कली थी

मैंने अनदेखे में बीन ली,

किसी की बात थी

मैंने मुँह से छीन ली ।


यों मैं कवि हूँ, आधुनिक हूँ, नया हूँ:

काव्य-तत्त्व की खोज में कहाँ नहीं गया हूँ ?

चाहता हूँ आप मुझे

एक-एक शब्द पर सराहते हुए पढ़ें ।

पर प्रतिमा--अरे, वह तो

जैसी आप को रुचे आप स्वयं गढ़ें ।

.......................

सत्य तो बहुत मिले

खोज़ में जब निकल ही आया

सत्य तो बहुत मिले ।


कुछ नये कुछ पुराने मिले

कुछ अपने कुछ बिराने मिले

कुछ दिखावे कुछ बहाने मिले

कुछ अकड़ू कुछ मुँह-चुराने मिले

कुछ घुटे-मँजे सफेदपोश मिले

कुछ ईमानदार ख़ानाबदोश मिले ।


कुछ ने लुभाया

कुछ ने डराया

कुछ ने परचाया-

कुछ ने भरमाया-

सत्य तो बहुत मिले

खोज़ में जब निकल ही आया ।


कुछ पड़े मिले

कुछ खड़े मिले

कुछ झड़े मिले

कुछ सड़े मिले

कुछ निखरे कुछ बिखरे

कुछ धुँधले कुछ सुथरे

सब सत्य रहे

कहे, अनकहे ।


खोज़ में जब निकल ही आया

सत्य तो बहुत मिले

पर तुम

नभ के तुम कि गुहा-गह्वर के तुम

मोम के तुम, पत्थर के तुम

तुम किसी देवता से नहीं निकले:

तुम मेरे साथ मेरे ही आँसू में गले

मेरे ही रक्त पर पले

अनुभव के दाह पर क्षण-क्षण उकसती

मेरी अशमित चिता पर

तुम मेरे ही साथ जले ।


तुम-

तुम्हें तो

भस्म हो

मैंने फिर अपनी भभूत में पाया

अंग रमाया

तभी तो पाया ।


खोज़ में जब निकल ही आया,

सत्य तो बहुत मिले-

एक ही पाया ।


काशी (रेल में), 15 फरवरी, 1954

...................

चांदनी जी लो


शरद चांदनी बरसी

अँजुरी भर कर पी लो


ऊँघ रहे हैं तारे

सिहरी सरसी

ओ प्रिय कुमुद ताकते

अनझिप क्षण में

तुम भी जी लो ।


सींच रही है ओस

हमारे गाने

घने कुहासे में

झिपते

चेहरे पहचाने


खम्भों पर बत्तियाँ

खड़ी हैं सीठी

ठिठक गये हैं मानों

पल-छिन

आने-जाने


उठी ललक

हिय उमगा

अनकहनी अलसानी

जगी लालसा मीठी,

खड़े रहो ढिंग

गहो हाथ

पाहुन मन-भाने,

ओ प्रिय रहो साथ

भर-भर कर अँजुरी पी लो


बरसी

शरद चांदनी

मेरा अन्त:स्पन्दन

तुम भी क्षण-क्षण जी लो !

.......................

उड़ चल हारिल


उड़ चल हारिल लिये हाथ में

यही अकेला ओछा तिनका

उषा जाग उठी प्राची में

कैसी बाट, भरोसा किन का!


शक्ति रहे तेरे हाथों में

छूट न जाय यह चाह सृजन की

शक्ति रहे तेरे हाथों में

रुक न जाय यह गति जीवन की!


ऊपर ऊपर ऊपर ऊपर

बढ़ा चीर चल दिग्मण्डल

अनथक पंखों की चोटों से

नभ में एक मचा दे हलचल!


तिनका तेरे हाथों में है

अमर एक रचना का साधन

तिनका तेरे पंजे में है

विधना के प्राणों का स्पंदन!


काँप न यद्यपि दसों दिशा में

तुझे शून्य नभ घेर रहा है

रुक न यद्यपि उपहास जगत का

तुझको पथ से हेर रहा है!


तू मिट्टी था, किन्तु आज

मिट्टी को तूने बाँध लिया है

तू था सृष्टि किन्तु सृष्टा का

गुर तूने पहचान लिया है!


मिट्टी निश्चय है यथार्थ पर

क्या जीवन केवल मिट्टी है?

तू मिट्टी, पर मिट्टी से

उठने की इच्छा किसने दी है?


आज उसी ऊर्ध्वंग ज्वाल का

तू है दुर्निवार हरकारा

दृढ़ ध्वज दण्ड बना यह तिनका

सूने पथ का एक सहारा!


मिट्टी से जो छीन लिया है

वह तज देना धर्म नहीं है

जीवन साधन की अवहेला

कर्मवीर का कर्म नहीं है!


तिनका पथ की धूल स्वयं तू

है अनंत की पावन धूली

किन्तु आज तूने नभ पथ में

क्षण में बद्ध अमरता छू ली!


ऊषा जाग उठी प्राची में

आवाहन यह नूतन दिन का

उड़ चल हारिल लिये हाथ में

एक अकेला पावन तिनका!


गुरदासपुर, 2 अक्टूबर, 1938

..................

दृष्टि-पथ से तुम जाते हो जब


दृष्टि-पथ से तुम जाते हो जब।

 

तब ललाट की कुंचित अलकों-

तेरे ढरकीले आँचल को,

तेरे पावन-चरण कमल को,

छू कर धन्य-भाग अपने को लोग मानते हैं सब के सब।


मैं तो केवल तेरे पथ से

उड़ती रज की ढेरी भर के,

चूम-चूम कर संचय कर के

रख भर लेता हूँ मरकत-सा मैं अन्तर के कोषों में तब।


पागल झंझा के प्रहार सा,

सान्ध्य-रश्मियों के विहार-सा,

सब कुछ ही यह चला जाएगा-

इसी धूलि में अन्तिम आश्रय मर कर भी मैं पाऊँगा दब !


दृष्टि-पथ से तुम जाते हो जब।


दिल्ली जेल, दिसम्बर, 1931.

प्रस्तुत‍ि : अलकनंदा स‍िंंह