विश्व हिंदी दिवस हर साल 10 जनवरी को मनाया जाता है जिसका उद्देश्य हिंदी का प्रचार-प्रसार करना है। विदेशों में भारत के दूतावास इसे ख़ास उत्साह के साथ मनाते हैं साथ ही सरकारी कार्यालयों में भी व्याख्यान आयोजित किए जाते हैं।विश्व हिंदी दिवस पर हिंदी के बेहतरीन कवियों, लेखकों और साहित्यकारों की रचनाओं से हम आपको रूबरू करा रहे हैं। इसी कड़ी में हिंदी के प्रसिद्ध कवियों में शुमार हरिवंशराय बच्चन, रघुवीर सहाय, पाश, भवानी प्रसाद मिश्र, दुष्यंत कुमार की कविताएं निश्चित तौर पर आपके दिलों-दिमाग पर गहरा असर करेंगी।
सबसे पहले रामधारी सिंंह दिनकर की कविता - हिमालय
मेरे नगपति! मेरे विशाल!
साकार, दिव्य, गौरव विराट्,
पौरूष के पुन्जीभूत ज्वाल!
मेरी जननी के हिम-किरीट!
मेरे भारत के दिव्य भाल!
मेरे नगपति! मेरे विशाल!
युग-युग अजेय, निर्बन्ध, मुक्त,
युग-युग गर्वोन्नत, नित महान,
निस्सीम व्योम में तान रहा
युग से किस महिमा का वितान?
कैसी अखंड यह चिर-समाधि?
यतिवर! कैसा यह अमर ध्यान?
तू महाशून्य में खोज रहा
किस जटिल समस्या का निदान?
उलझन का कैसा विषम जाल?
मेरे नगपति! मेरे विशाल!
ओ, मौन, तपस्या-लीन यती!
पल भर को तो कर दृगुन्मेष!
रे ज्वालाओं से दग्ध, विकल
है तड़प रहा पद पर स्वदेश।
सुखसिंधु, पंचनद, ब्रह्मपुत्र,
गंगा, यमुना की अमिय-धार
जिस पुण्यभूमि की ओर बही
तेरी विगलित करुणा उदार,
जिसके द्वारों पर खड़ा क्रान्त
सीमापति! तू ने की पुकार,
'पद-दलित इसे करना पीछे
पहले ले मेरा सिर उतार।'
उस पुण्यभूमि पर आज तपी!
रे, आन पड़ा संकट कराल,
व्याकुल तेरे सुत तड़प रहे
डस रहे चतुर्दिक विविध व्याल।
मेरे नगपति! मेरे विशाल!
कितनी मणियाँ लुट गईं? मिटा
कितना मेरा वैभव अशेष!
तू ध्यान-मग्न ही रहा, इधर
वीरान हुआ प्यारा स्वदेश।
वैशाली के भग्नावशेष से
पूछ लिच्छवी-शान कहाँ?
ओ री उदास गण्डकी! बता
विद्यापति कवि के गान कहाँ?
तू तरुण देश से पूछ अरे,
गूँजा कैसा यह ध्वंस-राग?
अम्बुधि-अन्तस्तल-बीच छिपी
यह सुलग रही है कौन आग?
प्राची के प्रांगण-बीच देख,
जल रहा स्वर्ण-युग-अग्निज्वाल,
तू सिंहनाद कर जाग तपी!
मेरे नगपति! मेरे विशाल!
रे, रोक युधिष्ठिर को न यहाँ,
जाने दे उनको स्वर्ग धीर,
पर, फिर हमें गाण्डीव-गदा,
लौटा दे अर्जुन-भीम वीर।
कह दे शंकर से, आज करें
वे प्रलय-नृत्य फिर एक बार।
सारे भारत में गूँज उठे,
'हर-हर-बम' का फिर महोच्चार।
ले अंगडाई हिल उठे धरा
कर निज विराट स्वर में निनाद
तू शैलीराट हुँकार भरे
फट जाए कुहा, भागे प्रमाद
तू मौन त्याग, कर सिंहनाद
रे तपी आज तप का न काल
नवयुग-शंखध्वनि जगा रही
तू जाग, जाग, मेरे विशाल
रचनाकाल १९३३
हरिवंशराय बच्चन…
रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था ‘प्यार’ तुमने…
फ़ासला था कुछ हमारे बिस्तरों में
और चारों ओर दुनिया सो रही थी,
तारिकाएँ ही गगन की जानती हैं
जो दशा दिल की तुम्हारे हो रही थी,
मैं तुम्हारे पास होकर दूर तुमसे
अधजगा-सा और अधसोया हुआ सा,
रात आधी खींच कर मेरी हथेली
रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था ‘प्यार’ तुमने।
एक बिजली छू गई, सहसा जगा मैं,
कृष्णपक्षी चाँद निकला था गगन में,
इस तरह करवट पड़ी थी तुम कि आँसू
बह रहे थे इस नयन से उस नयन में,
मैं लगा दूँ आग इस संसार में है
प्यार जिसमें इस तरह असमर्थ कातर,
जानती हो, उस समय क्या कर गुज़रने
के लिए था कर दिया तैयार तुमने!
रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था ‘प्यार’ तुमने।
प्रात ही की ओर को है रात चलती
औ’ उजाले में अंधेरा डूब जाता,
मंच ही पूरा बदलता कौन ऐसी,
खूबियों के साथ परदे को उठाता,
एक चेहरा-सा लगा तुमने लिया था,
और मैंने था उतारा एक चेहरा,
वो निशा का स्वप्न मेरा था कि अपने पर
ग़ज़ब का था किया अधिकार तुमने।
रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था ‘प्यार’ तुमने।
और उतने फ़ासले पर आज तक सौ
यत्न करके भी न आये फिर कभी हम,
फिर न आया वक्त वैसा, फिर न मौका
उस तरह का, फिर न लौटा चाँद निर्मम,
और अपनी वेदना मैं क्या बताऊँ,
क्या नहीं ये पंक्तियाँ खुद बोलती हैं–
बुझ नहीं पाया अभी तक उस समय जो
रख दिया था हाथ पर अंगार तुमने।
रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था ‘प्यार’ तुमने।
रघुवीर सहाय…
अरे अब ऐसी कविता लिखो
कि जिसमें छंद घूमकर आय
घुमड़ता जाय देह में दर्द
कहीं पर एक बार ठहराय
कि जिसमें एक प्रतिज्ञा करूं
वही दो बार शब्द बन जाय
बताऊँ बार-बार वह अर्थ
न भाषा अपने को दोहराय
अरे अब ऐसी कविता लिखो
कि कोई मूड़ नहीं मटकाय
न कोई पुलक-पुलक रह जाय
न कोई बेमतलब अकुलाय
छंद से जोड़ो अपना आप
कि कवि की व्यथा हृदय सह जाय
थामकर हँसना-रोना आज
उदासी होनी की कह जाय।
भवानी प्रसाद मिश्र…
एडिथ सिटवेल ने
सूरज को धरती का
पहला प्रेमी कहा है
धरती को सूरज के बाद
और शायद पहले भी
तमाम चीज़ों ने चाहा
जाने कितनी चीज़ों ने
उसके प्रति अपनी चाहत को
अलग-अलग तरह से निबाहा
कुछ तो उस पर
वातावरण बनकर छा गए
कुछ उसके भीतर समा गए
कुछ आ गए उसके अंक में
मगर एडिथ ने
उनका नाम नहींलिया
ठीक किया मेरी भी समझ में
प्रेम दिया उसे तमाम चीज़ों ने
मगर प्रेम किया सबसे पहले
उसे सूरज ने
प्रेमी के मन में
प्रेमिका से अलग एक लगन होती है
एक बेचैनी होती है
एक अगन होती है
सूरज जैसी लगन और अगन
धरती के प्रति
और किसी में नहीं है
चाहते हैं सब धरती को
अलग-अलग भाव से
उसकी मर्ज़ी को निबाहते हैं
खासे घने चाव से
मगरप्रेमी में
एक ख़ुदगर्ज़ी भी तो होती है
देखता हूँ वह सूरज में है
रोज़ चला आता है
पहाड़ पार कर के
उसके द्वारे
और रुका रहता है
दस-दस बारह-बारह घंटों
मगर वह लौटा देती है उसे
शाम तक शायद लाज के मारे
और चला जाता है सूरज
चुपचाप
टाँक कर उसकी चूनरी में
अनगिनत तारे
इतनी सारी उपेक्षा के
बावजूद।
अवतार सिंह संधू ‘पाश’…
हमारे लहू को आदत है
मौसम नहीं देखता, महफ़िल नहीं देखता
ज़िन्दगी के जश्न शुरू कर लेता है
सूली के गीत छेड़ लेता है
शब्द हैं की पत्थरों पर बह-बहकर घिस जाते हैं
लहू है की तब भी गाता है
ज़रा सोचें की रूठी सर्द रातों को कौन मनाए ?
निर्मोही पलों को हथेलियों पर कौन खिलाए ?
लहू ही है जो रोज़ धाराओं के होंठ चूमता है
लहू तारीख़ की दीवारों को उलांघ आता है
यह जश्न यह गीत किसी को बहुत हैं —
जो कल तक हमारे लहू की ख़ामोश नदी में
तैरने का अभ्यास करते थे ।
दुष्यंत कुमार…
ये जो शहतीर है पलकों पे उठा लो यारो
अब कोई ऐसा तरीका भी निकालो यारो
दर्दे—दिल वक़्त पे पैग़ाम भी पहुँचाएगा
इस क़बूतर को ज़रा प्यार से पालो यारो
लोग हाथों में लिए बैठे हैं अपने पिंजरे
आज सैयाद को महफ़िल में बुला लो यारो
आज सीवन को उधेड़ो तो ज़रा देखेंगे
आज संदूक से वो ख़त तो निकालो यारो
रहनुमाओं की अदाओं पे फ़िदा है दुनिया
इस बहकती हुई दुनिया को सँभालो यारो
कैसे आकाश में सूराख़ हो नहीं सकता
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो
लोग कहते थे कि ये बात नहीं कहने की
तुमने कह दी है तो कहने की सज़ा लो यारो।
प्रस्तुति - अलकनंदा सिंंह