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Sunday, 24 January 2021

बाल‍िका द‍िवस पर आज पढ़‍िए रामधारी सिंह "दिनकर" की कव‍िता- ''नारी''


 खिली भू पर जब से तुम नारि

कल्पना-सी विधि की अम्लान

रहे फिर तब से अनु-अनु देवि!

लुब्ध भिक्षुक-से मेरे गान।


तिमिर में ज्योति-कली को देख

सुविकसित वृन्तहीन अनमोल

हुआ व्याकुल सारा संसार

किया चाहा माया का मोल।


हो उठी प्रतिभा सजग प्रदीप्त

तुम्हारी छवि ने मारा बाण

बोलने लगे स्वप्न निर्जीव

सिहरने लगे सुकवि के प्राण।


लगे रचने निज उर को तोड़

तुम्हारी प्रतिमा प्रतिमाकार

नाचने लगी कला चहुँ ओर

भाँवरी दे-दे विविध प्रकार।


ज्ञानियों ने देखा सब ओर

प्रकृति की लीला का विस्तार

सूर्य शशि उडु जिनकी नख-ज्योति

पुरुष उन चरणों का उपहार।


अगम ‘आनन्द’-जलधि में डूब

तृषित ‘सत्‌-चित्‌’ ने पाई पूर्त्ति

सृष्टि के नाभि-पद्म पर नारि!

तुम्हारी मिली मधुर रस-मूर्त्ति।


कुशल विधि के मन की नवनीत

एक लघु दिव-सी हो अवतीर्ण

कल्पना-सी माया-सी दिव्य

विभा-सी भू पर हुई विकीर्ण।


दृष्टि तुमने फेरी जिस ओर

गई खिल कमल-पंक्ति अम्लान

हिंस्र मानव के कर से स्रस्त

शिथिल गिर गए धनुष औ’ बाण।


हो गया मदिर दृगों को देख

सिंह-विजयी बर्बर लाचार

रूप के एक तन्तु में नारि

गया बँध मत्त गयन्द-कुमार।


एक चितवन के शर ने देवि!

सिन्धु को बना दिया परिमेय

विजित हो दृग-मद से सुकुमारि!

झुका पद-तल पर पुरुष अज्ञेय।


कर्मियों ने देखा जब तुम्हें

टूटने लगे शम्भु के चाप।

बेधने चला लक्ष्य गांडीव

पुरुष के खिलने लगे प्रताप।


हृदय निज फरहादों ने चीर

बहा दी पय की उज्ज्वल धार

आरती करने को सुकुमारि!

इन्दु को नर ने लिया उतार।


एक इंगित पर दौड़े शूर

कनक-मृग पर होकर हत-ज्ञान

हुई ऋषियों के तप का मोल

तुम्हारी एक मधुर मुस्कान।


विकल उर को मुरली में फूँक

प्रियक-तरु-छाया में अभिराम

बजाया हमने कितनी बार

तुम्हारा मधुमय ‘राधा’ नाम।


कढ़ीं यमुना से कर तुम स्नान

पुलिन पर खड़ी हुईं कच खोल

सिक्त कुन्तल से झरते देवि!

पिये हमने सीकर अनमोल!


तुम्हारे अधरों का रस प्राण!

वासना-तट पर पिया अधीर

अरी ओ माँ हमने है पिया

तुम्हारे स्तन का उज्ज्वल क्षीर।


पिया शैशव ने रस-पीयूष

पिया यौवन ने मधु-मकरन्द

तृषा प्राणों की पर हे देवि!

एक पल को न सकी हो मन्द।


पुरुष पँखुड़ी को रहा निहार

अयुत जन्मों से छवि पर भूल

आज तक जान न पाया नारि!

मोहिनी इस माया का मूल!


न छू सकते जिसको हम देवि!

कल्पना वह तुम अगुण अमेय

भावना अन्तर की वह गूढ़

रही जो युग-युग अकथ अगेय।


तैरती स्वप्नों में दिन-रात

मोहिनी छवि-सी तुम अम्लान

कि जिसके पीछे-पीछे नारि!

रहे फिर मेरे भिक्षुक गान।


मुंगेर: १९३६

प्रस्तुत‍ि : अलकनंदा स‍िंंह 


Friday, 15 January 2021

तुर्की के क्रांतिकारी कवि नाज़िम हिकमत की 118वीं जन्मतिथि, उनकी कुछ कव‍ितायें (अनूद‍ित ) पढ़‍िए-


 तुर्की के महान क्रांतिकारी कवि नाज़िम हिकमत की आज 118वीं जन्मतिथि है. उनका जन्म 15 जनवरी 1902 को तत्कालीन ऑटोमन साम्राज्य के सालोनिका में हुआ था. 3 जून 1963 को मास्को में उनकी मृत्यु हुई. उन्होंने अपनी ज़िंदगी का लंबा अर्सा जेल में बिताया. जेल में रहते हुए उन्होंने कई कविताएं लिखी थीं. नाज़िम को रूमानी विद्रोही कहा जाता था क्योंकि वो कहीं रूमानी तो कहीं विद्रोही और कहीं दार्शनिक नज़र आते हैं. नाज़िम की कविताओं में ज़िंदगी और विद्रोह एक साथ दिखता है. यहां पेश है उनकी एक कविता जिसमें उनके तेवर और ज़िंदगी का फलसफा नज़र आता है-

जीने के लिए मरना

जीने के लिए मरना
ये कैसी स‍आदत है
मरने के लिए जीना
ये कैसी हिमाक़त है

अकेले जीओ
एक शमशाद तन की तरह
और मिलकर जीओ
एक बन की तरह। 

यह नाज़िम हिकमत की पहली कविता है, जो उन्होंने तुर्की की कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक मुस्तफ़ा सुबही और उनके चौदह साथियों की स्मृति में 1921 में लिखी थी, जिन्हें 28 जनवरी 1921 को तुर्की के बन्दरगाह ’त्रापेजुन्द’ के क़रीब काले सागर में डुबकियाँ दे-देकर मार डाला गया था।


मेरी छाती पर लगे हैं पन्द्रह घाव

पन्द्रह चाकू

हत्थों तक घुसा दिए गए मेरी छाती में


पर धड़क रहा है

और धड़केगा दिल

 बन्द नहीं हो सकती उसकी धड़कन !


मेरी छाती पर हैं पन्द्रह घाव

और उनके चारों ओर घोर काला अन्धेरा

काले सागर का पानी

लिपटा है उनके चारों तरफ़

चिकने साँपों की तरह कुण्डलाकार


वे मेरा दम घोंट देंगे

मेरे ख़ून से रंग देंगे

काले जल को


मेरी छाती में आ घुसे हैं पन्द्रह छुरे

लेकिन फिर भी धड़क रहा है दिल

 मेरी छाती के भीतर !


मेरी छाती पर लगे हैं पन्द्रह घाव

पन्द्रह बार बेधा गया मेरा सीना

सोचते रहे वे कि छेद दिया दिल

लेकिन धड़कता रहा वह

बन्द नहीं होगी धड़कन !


मेरी छाती में जला दिए पन्द्रह अलाव

तोड़ दिए पन्द्रह चाकू मेरी छाती में

लेकिन दिल है कि धड़क रहा है

 लाल पताका की तरह

धड़केगा, धड़कता रहेगा

 बन्द नहीं होगी धड़कन !


1921

रूसी से अनुवाद : अनिल जनविजय 

कचोटती स्वतन्त्रता 

तुम खर्च करते हो अपनी आँखों का शऊर,

अपने हाथों की जगमगाती मेहनत,

और गूँधते हो आटा दर्जनों रोटियों के लिए काफ़ी

मगर ख़ुद एक भी कौर नहीं चख पाते,

तुम स्वतन्त्र हो दूसरों के वास्ते खटने के लिए

अमीरों को और अमीर बनाने के लिए

तुम स्वतन्त्र हो ।


जन्म लेते ही तुम्हारे चारों ओर

वे गाड़ देते हैं झूठ कातने वाली तकलियाँ

जो जीवनभर के लिए लपेट देती हैं

तुम्हें झूठ के जाल में ।

अपनी महान स्वतन्त्रता के साथ

सिर पर हाथ धरे सोचते हो तुम

ज़मीर की आज़ादी के लिए तुम स्वतन्त्र हो ।


तुम्हारा सिर झुका हुआ मानो आधा कटा हो

गर्दन से,

लुंज-पुंज लटकती हैं बाँहें,

यहाँ-वहाँ भटकते हो तुम

अपनी महान स्वतन्त्रता में,

बेरोज़गार रहने की आज़ादी के साथ

तुम स्वतन्त्र हो ।


तुम प्यार करते हो देश को

सबसे क़रीबी, सबसे क़ीमती चीज़ के समान ।

लेकिन एक दिन, वे उसे बेच देंगे,

उदाहरण के लिए अमेरिका को

साथ में तुम्हें भी, तुम्हारी महान आज़ादी समेत

सैनिक अड्डा बन जाने के लिए तुम स्वतन्त्र हो ।

तुम दावा कर सकते हो कि तुम नहीं हो

महज़ एक औज़ार, एक संख्या या एक कड़ी

बल्कि एक जीता-जागते इन्सान

वे फौरन हथकड़ियाँ जड़ देंगे

तुम्हारी कलाइयों पर ।

गिरफ़्तार होने, जेल जाने

या फिर फाँसी चढ़ जाने के लिए

तुम स्वतन्त्र हो ।


नहीं है तुम्हारे जीवन में लोहे, काठ

या टाट का भी परदा,

स्वतन्त्रता का वरण करने की कोई ज़रूरत नहीं :

तुम तो हो ही स्वतन्त्र ।

मगर तारों की छाँह के नीचे

इस क़िस्म की स्वतन्त्रता कचोटती है ।

जीने के लिए मरना (फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ द्वारा अनूद‍ित) 


जीने के लिए मरना

ये कैसी स‍आदत है

मरने के लिए जीना

ये कैसी हिमाक़त है


अकेले जीओ

एक शमशाद तन की तरह

अओर मिलकर जीओ

एक बन की तरह

हमने उम्मीद के सहारे

टूटकर यूँ ही ज़िन्दगी जी है

जिस तरह तुमसे आशिक़ी की है।

- Alaknand singh 


Sunday, 10 January 2021

विश्व हिंदी दिवस पर पढ़िए हिंदी की कुछ बेहतरीन रचनाएं


 विश्व हिंदी दिवस हर साल 10 जनवरी को मनाया जाता है जिसका उद्देश्य हिंदी का प्रचार-प्रसार करना है। विदेशों में भारत के दूतावास इसे ख़ास उत्साह के साथ मनाते हैं साथ ही सरकारी कार्यालयों में भी व्याख्यान आयोजित किए जाते हैं।

विश्व हिंदी दिवस पर हिंदी के बेहतरीन कवियों, लेखकों और साहित्यकारों की रचनाओं से हम आपको रूबरू करा रहे हैं। इसी कड़ी में हिंदी के प्रसिद्ध कवियों में शुमार हरिवंशराय बच्चन, रघुवीर सहाय, पाश, भवानी प्रसाद मिश्र, दुष्यंत कुमार की कविताएं निश्चित तौर पर आपके दिलों-दिमाग पर गहरा असर करेंगी।

सबसे पहले रामधारी स‍िंंह द‍िनकर की कव‍िता - हिमालय 

मेरे नगपति! मेरे विशाल!

साकार, दिव्य, गौरव विराट्,

पौरूष के पुन्जीभूत ज्वाल!

मेरी जननी के हिम-किरीट!

मेरे भारत के दिव्य भाल!

मेरे नगपति! मेरे विशाल!

युग-युग अजेय, निर्बन्ध, मुक्त,

युग-युग गर्वोन्नत, नित महान,

निस्सीम व्योम में तान रहा

युग से किस महिमा का वितान?

कैसी अखंड यह चिर-समाधि?

यतिवर! कैसा यह अमर ध्यान?

तू महाशून्य में खोज रहा

किस जटिल समस्या का निदान?

उलझन का कैसा विषम जाल?

मेरे नगपति! मेरे विशाल!

ओ, मौन, तपस्या-लीन यती!

पल भर को तो कर दृगुन्मेष!

रे ज्वालाओं से दग्ध, विकल

है तड़प रहा पद पर स्वदेश।

सुखसिंधु, पंचनद, ब्रह्मपुत्र,

गंगा, यमुना की अमिय-धार

जिस पुण्यभूमि की ओर बही

तेरी विगलित करुणा उदार,

जिसके द्वारों पर खड़ा क्रान्त

सीमापति! तू ने की पुकार,

'पद-दलित इसे करना पीछे

पहले ले मेरा सिर उतार।'

उस पुण्यभूमि पर आज तपी!

रे, आन पड़ा संकट कराल,

व्याकुल तेरे सुत तड़प रहे

डस रहे चतुर्दिक विविध व्याल।

मेरे नगपति! मेरे विशाल!

कितनी मणियाँ लुट गईं? मिटा

कितना मेरा वैभव अशेष!

तू ध्यान-मग्न ही रहा, इधर

वीरान हुआ प्यारा स्वदेश।

वैशाली के भग्नावशेष से

पूछ लिच्छवी-शान कहाँ?

ओ री उदास गण्डकी! बता

विद्यापति कवि के गान कहाँ?

तू तरुण देश से पूछ अरे,

गूँजा कैसा यह ध्वंस-राग?

अम्बुधि-अन्तस्तल-बीच छिपी

यह सुलग रही है कौन आग?

प्राची के प्रांगण-बीच देख,

जल रहा स्वर्ण-युग-अग्निज्वाल,

तू सिंहनाद कर जाग तपी!

मेरे नगपति! मेरे विशाल!

रे, रोक युधिष्ठिर को न यहाँ,

जाने दे उनको स्वर्ग धीर,

पर, फिर हमें गाण्डीव-गदा,

लौटा दे अर्जुन-भीम वीर।

कह दे शंकर से, आज करें

वे प्रलय-नृत्य फिर एक बार।

सारे भारत में गूँज उठे,

'हर-हर-बम' का फिर महोच्चार।

ले अंगडाई हिल उठे धरा

कर निज विराट स्वर में निनाद

तू शैलीराट हुँकार भरे

फट जाए कुहा, भागे प्रमाद

तू मौन त्याग, कर सिंहनाद

रे तपी आज तप का न काल

नवयुग-शंखध्वनि जगा रही

तू जाग, जाग, मेरे विशाल


रचनाकाल १९३३

हरिवंशराय बच्चन…

रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था ‘प्यार’ तुमने…
फ़ासला था कुछ हमारे बिस्तरों में
और चारों ओर दुनिया सो रही थी,
तारिकाएँ ही गगन की जानती हैं
जो दशा दिल की तुम्हारे हो रही थी,
मैं तुम्हारे पास होकर दूर तुमसे

अधजगा-सा और अधसोया हुआ सा,
रात आधी खींच कर मेरी हथेली
रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था ‘प्यार’ तुमने।

एक बिजली छू गई, सहसा जगा मैं,
कृष्णपक्षी चाँद निकला था गगन में,
इस तरह करवट पड़ी थी तुम कि आँसू
बह रहे थे इस नयन से उस नयन में,

मैं लगा दूँ आग इस संसार में है
प्यार जिसमें इस तरह असमर्थ कातर,
जानती हो, उस समय क्या कर गुज़रने
के लिए था कर दिया तैयार तुमने!
रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था ‘प्यार’ तुमने।

प्रात ही की ओर को है रात चलती
औ’ उजाले में अंधेरा डूब जाता,
मंच ही पूरा बदलता कौन ऐसी,
खूबियों के साथ परदे को उठाता,

एक चेहरा-सा लगा तुमने लिया था,
और मैंने था उतारा एक चेहरा,
वो निशा का स्वप्न मेरा था कि अपने पर
ग़ज़ब का था किया अधिकार तुमने।
रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था ‘प्यार’ तुमने।

और उतने फ़ासले पर आज तक सौ
यत्न करके भी न आये फिर कभी हम,
फिर न आया वक्त वैसा, फिर न मौका
उस तरह का, फिर न लौटा चाँद निर्मम,

और अपनी वेदना मैं क्या बताऊँ,
क्या नहीं ये पंक्तियाँ खुद बोलती हैं–
बुझ नहीं पाया अभी तक उस समय जो
रख दिया था हाथ पर अंगार तुमने।
रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था ‘प्यार’ तुमने।
रघुवीर सहाय…
अरे अब ऐसी कविता लिखो
कि जिसमें छंद घूमकर आय
घुमड़ता जाय देह में दर्द
कहीं पर एक बार ठहराय

कि जिसमें एक प्रतिज्ञा करूं
वही दो बार शब्द बन जाय
बताऊँ बार-बार वह अर्थ
न भाषा अपने को दोहराय

अरे अब ऐसी कविता लिखो
कि कोई मूड़ नहीं मटकाय
न कोई पुलक-पुलक रह जाय
न कोई बेमतलब अकुलाय

छंद से जोड़ो अपना आप
कि कवि की व्यथा हृदय सह जाय
थामकर हँसना-रोना आज
उदासी होनी की कह जाय।

भवानी प्रसाद मिश्र…
एडिथ सिटवेल ने
सूरज को धरती का
पहला प्रेमी कहा है

धरती को सूरज के बाद
और शायद पहले भी
तमाम चीज़ों ने चाहा

जाने कितनी चीज़ों ने
उसके प्रति अपनी चाहत को
अलग-अलग तरह से निबाहा

कुछ तो उस पर
वातावरण बनकर छा गए
कुछ उसके भीतर समा गए
कुछ आ गए उसके अंक में

मगर एडिथ ने
उनका नाम नहींलिया
ठीक किया मेरी भी समझ में

प्रेम दिया उसे तमाम चीज़ों ने
मगर प्रेम किया सबसे पहले
उसे सूरज ने

प्रेमी के मन में
प्रेमिका से अलग एक लगन होती है
एक बेचैनी होती है
एक अगन होती है
सूरज जैसी लगन और अगन
धरती के प्रति
और किसी में नहीं है

चाहते हैं सब धरती को
अलग-अलग भाव से
उसकी मर्ज़ी को निबाहते हैं
खासे घने चाव से

मगरप्रेमी में
एक ख़ुदगर्ज़ी भी तो होती है
देखता हूँ वह सूरज में है

रोज़ चला आता है
पहाड़ पार कर के
उसके द्वारे
और रुका रहता है
दस-दस बारह-बारह घंटों

मगर वह लौटा देती है उसे
शाम तक शायद लाज के मारे

और चला जाता है सूरज
चुपचाप
टाँक कर उसकी चूनरी में
अनगिनत तारे
इतनी सारी उपेक्षा के
बावजूद।

अवतार सिंह संधू ‘पाश’…
हमारे लहू को आदत है
मौसम नहीं देखता, महफ़िल नहीं देखता
ज़िन्दगी के जश्न शुरू कर लेता है
सूली के गीत छेड़ लेता है

शब्द हैं की पत्थरों पर बह-बहकर घिस जाते हैं
लहू है की तब भी गाता है
ज़रा सोचें की रूठी सर्द रातों को कौन मनाए ?
निर्मोही पलों को हथेलियों पर कौन खिलाए ?
लहू ही है जो रोज़ धाराओं के होंठ चूमता है
लहू तारीख़ की दीवारों को उलांघ आता है
यह जश्न यह गीत किसी को बहुत हैं —
जो कल तक हमारे लहू की ख़ामोश नदी में
तैरने का अभ्यास करते थे ।
दुष्यंत कुमार…
ये जो शहतीर है पलकों पे उठा लो यारो
अब कोई ऐसा तरीका भी निकालो यारो

दर्दे—दिल वक़्त पे पैग़ाम भी पहुँचाएगा
इस क़बूतर को ज़रा प्यार से पालो यारो

लोग हाथों में लिए बैठे हैं अपने पिंजरे
आज सैयाद को महफ़िल में बुला लो यारो

आज सीवन को उधेड़ो तो ज़रा देखेंगे
आज संदूक से वो ख़त तो निकालो यारो

रहनुमाओं की अदाओं पे फ़िदा है दुनिया
इस बहकती हुई दुनिया को सँभालो यारो

कैसे आकाश में सूराख़ हो नहीं सकता
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो

लोग कहते थे कि ये बात नहीं कहने की
तुमने कह दी है तो कहने की सज़ा लो यारो। 

प्रस्तुत‍ि - अलकनंदा स‍िंंह