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Monday, 31 August 2020

आज़ाद रूह की नुमाइंदगी कर साह‍ित्य की रूह को जगा गईं अमृता प्रीतम


कल्पना का इतना ऊंचा दरख़्त खड़ा कर दो क‍ि कोई उसके पार जा ही ना पाये और थकहार कर कहे क‍ि अब बस भी करो अमृता… साह‍ित्य में रुह से इतने गहरे तक कौन ताअल्लुक बनाता है … मगर नहीं, अमृता आज भी हमारी रूहों को टटोल कर कहती हैं क‍ि कल्पना को कोई नहीं बांध सका..इसल‍िए उड़ो और उड़ो …और उड़ते चलो …
ढलते सूरज की रोशनी से ऐसा चराग जल रहा हो जिसकी लपटें काल्पनिक शब्दों के सहारे कागज़ को यथार्थ की आग से सुलगा रही हो। कहानियों का ये स्वभाव सिर्फ और सिर्फ हिंदी-पंजाबी की उम्दा लेखिका रहीं अमृता प्रीतम की कहानियों में मिलता है। जहां वो अपने पात्रों के साथ एक ऐसे सफर पर ले चलती हैं जो अक्सर पाठकों को अपना खुद का सफर लगने लगता है।अमृता प्रीतम अपनी कहानियों के पात्रों और उसके पाठकों के बीच एक अलग तरह के संबंध को देखती थीं। ठीक उसी तरह जैसे ये सब एक दूसरे से जुड़े हुए हों। इस बात की तस्दीक वो खुद करती हैं। इसके पीछे उन्होंने संजीदा और विचारणीय तर्क भी दिए हैं।
उनकी चुनिंदा कहानियों के संग्रह ‘मेरी प्रिय कहानियां’ की भूमिका में वो लिखती हैं, ‘हर कहानी का एक मुख्य पात्र होता है और जो कोई उसको मुख्य पात्र बनाने का कारण बनता है, चाहे वह उसका महबूब हो और चाहे उसका माहौल, वह उस कहानी का दूसरा पात्र होता है पर मैं सोचती हूं, हर कहानी का एक तीसरा पात्र भी होता है।कहानी का तीसरा पात्र उसका पाठक होता है जो उस कहानी को पहली बार लफ्ज़ों में से उभरते हुए देखता है और उसके वजूद की गवाही देता है।’
वास्तव में उनकी कहानियां पढ़ते हुए हम उस दुनिया में प्रवेश करने लगते हैं जहां उसके पात्रों को रचा गया है। न चाहते हुए भी हम अमृता प्रीतम के ही शब्दों में उनकी कहानियों का तीसरा पात्र बन जाते हैं। और पात्रों का सुख, दुख हमारे अपने होते चले जाते हैं। जब उनकी कहानियों से गुज़रना होता है तो उनमें भी मानवीय करूणा, महिलाओं की पीड़ा, नारी की स्थिति बड़ी संजीदगी और गंभीरता से उकेरी हुई जान पड़ती है।
2020 का साल यानि जब कोरोनावायरस महामारी को हम सब भुगत रहे हैं , तब उसी समाज की परतों को खंगालती अमृता प्रीतम की कहानियों न केवल महत्वपूर्ण हो जाती है बल्कि उस दायरे को भी बढ़ाती है जिसका शिखर प्रेम रूपी समाज होना चाहिए। जैसे कि ” जंगली बूटी” में अमृता प्रीतम ने महिलाओं की उस स्थिति को बताया है जिसमें नारी खुद को विश्वासों और संस्कारों के बंधन में बांधे रखती है और उसे तोड़ना मानों उसे ऐसा लगता है कि किसी ने उसे कोई बूटी खिला दी हो तभी वो उन दायरों से बाहर निकल रही है।
इसी तरह ”गुलियाना का एक खत” कहानी में गुलियाना के जरिए औरतों की आज़ादी की पैरवी की गई है। वो पात्रों के जरिए औरत की इच्छाओं की दुनिया को दिखाती है लेकिन समाज रूपी दुनिया मानो एक बाधा बनकर उसे पीछे धकेल रही हो और उसकी स्वतंत्रता को कैद कर लेना चाहती हो।
अमृता प्रीतम की लेखनी के दायरे को सिर्फ महिलाओं तक ही बांध कर देखना नाइंसाफी ही कही जाएगी। उनकी कहानियों में पुरुषों की भावनाओं का भी जिक्र मिलता है जिसे उन्होंने बड़ी ही नाटकीय और मानवीय संवेदना के जरिए अपने काल्पनिक शब्दों की जादूगरी से पिरोया है। धुंआ और लाट, लाल मिर्च, बू, मैं सब जानता हूं, एक गीत का सृजन, एक लड़की: एक जाम – मर्दों के मन के भीतर की दुनिया को सामने लाकर रख देती है। उनकी कथित ठोस व्यक्तित्व के पीछे के ममत्व स्वाभाव और बैचेनी को भी उभारती है जो पुरुष और महिला के व्यक्तित्व का साझा स्वभाव है।
ये भी अजब इत्त‍िफाक ही रहा क‍ि अमृता प्रीतम ने दो ”31” तारीखों के बीच पूरा जीवन जी लिया , जी हां, 31 अगस्‍त 1919 को जन्‍मी Amrita Pritam का निधन भी 31 अक्‍तूबर 2005 को हुआ।
कव‍िताओं में उनका कोई सानी नहीं, उनकी अध‍िकांश कव‍िताऐं पंजाबी में ल‍िखी गईं, हालांक‍ि ह‍िंदी में भी ल‍िखी हैं, परंतु जो बात उनकी पंजाबी कव‍िता में आती है, वो क‍िसी को भी झकझोरने के ल‍िए काफी है। उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि पंजाबी कविता की अपनी एक अलग पहचान है, उसकी अपनी शक्ति है अपना सौंदर्य है, अपना तेवर है और वे उसका प्रतिनिधित्व करती हैं।
अमृता प्रीतम का जन्म १९१९ में गुजरांवाला पंजाब में हुआ। बचपन बीता लाहौर में, शिक्षा भी वहीं हुई। किशोरावस्था से लिखना शुरू किया — कविता, कहानी और निबंध। पचास से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हुयीं और देशी विदेशी अनेक भाषाओं में अनूदित भी हुईं। वे १९५७ में साहित्य अकादमी पुरस्कार, १९५८ में पंजाब सरकार के भाषा द्वारा, १९८८ में बल्गारिया वैप्त्त्सरोव पुरस्कार (अन्तर्राष्ट्रीय) और १९८१ में भारत के सर्वोच्च साहित्यिक पुरस्कार ज्ञानपीठ से सम्मानित हुईं।
आज उन्‍हें श्रद्धांजलिस्‍वरूप मैं उन्‍हीं की तीन पंजाबी कविताऐं देना चाहती हूं, जिनका हिन्‍दी अनुवाद भी साथ ही दिया गया है।
1. मेरा पता
अज मैं आपणें घर दा नंबर मिटाइआ है
ते गली दे मत्थे ते लग्गा गली दा नांउं हटाइया है
ते हर सड़क दी दिशा दा नाउं पूंझ दित्ता है
पर जे तुसां मैंनूं ज़रूर लभणा है
तां हर देस दे, हर शहर दी, हर गली दा बूहा ठकोरो
इह इक सराप है, इक वर है
ते जित्थे वी सुतंतर रूह दी झलक पवे
– समझणा उह मेरा घर है।
मेरा पता का हिन्‍दी अनुवाद
मेरा पता
आज मैंने अपने घर का नंबर मिटाया है
और गली के माथे पर लगा गली का नाम हटाया है
और हर सड़क की दिशा का नाम पोंछ दिया है
पर अगर आपको मुझे ज़रूर पाना है
तो हर देश के, हर शहर की, हर गली का द्वार खटखटाओ
यह एक शाप है, एक वर है
और जहाँ भी आज़ाद रूह की झलक पड़े
– समझना वह मेरा घर है।
2. इक ख़त
मैं – इक परबत्ती ‘ते पई पुस्तक।
शाइद साध–बचन हाँ, जां भजन माला हाँ,
जां कामसूत्र दा इक कांड,
जो कुझ आसण ‘ते गुप्त रोगां दे टोटके,
पर जापदा – मैं इन्हां विचों कुझ वी नहीं।
(कुझ हुंदी तां ज़रूर कोई पढ़दा)
ते जापदा इक क्रांतिकारीआं दी सभा होई सी
ते सभा विच जो मत्ता पास होईआ सी
मैं उसे दी इक हथ–लिखत कापी हाँ।
ते फेर उत्तों पुलिस दा छापा
ते कुझ पास होईआ सी, कदे लागू न होईआ
सिर्फ़ ‘कारवाई’ खातर सांभ के रखिआ गिआ।
ते हुण सिर्फ़ कुझ चिड़िआं अउदीआं
चुझ विच तीले लिअउंदीआं
ते मेरे बदन उत्ते बैठ के
उह दूसरी पीढ़ी दा फिकर करदीआं।
(दूसरी पीढ़ी दा फिकर किन्ना हसीन फिकर है!)
पर किसे उपराले लई चिड़िआं दे खम्ब हुंदे हन
ते किसे मते दा कोई खम्ब नहीं हुंदा।
(जां किसे मते दी कोई दूसरो पीढ़ी नहीं हुंदी?)
हिन्‍दी अनुवाद
एक ख़त
मैं – एक आले में पड़ी पुस्तक।
शायद संत–वचन हूँ, या भजन–माला हूँ,
या काम–सूत्र का एक कांड,
या कुछ आसन, और गुप्त रोगों के टोटके
पर लगता है मैं इन में से कुछ भी नहीं।
(कुछ होती तो ज़रूर कोई पढ़ता)
और लगता – कि क्रांतिकारियों की सभा हुई थीं
और सभा में जो प्रस्ताव रखा गया
मैं उसी की एक प्रतिलिपि हूँ
और फिर पुलिस का छापा
और जो पास हुआ कभी लागू न हुआ
सिर्फ़ कार्रवाई की ख़ातिर संभाल कर रखा गया।
और अब सिर्फ़ कुछ चिड़ियाँ आती हैं
चोंच में कुछ तिनके लाती हैं
और मेरे बदन पर बैठ कर
वे दूसरी पीढ़ी की फ़िक्र करती हैं
(दूसरी पीढ़ी की फ़िक्र कितनी हसीन फ़िक्र है!)
पर किसी भी यत्न के लिए चिड़ियों के पंख होते हैं,
पर किसी प्रस्ताव का कोई पंख नहीं होता।
(या किसी प्रस्ताव की कोई दूसरी पीढ़ी नहीं होती?)
3. तू नहीं आया
चेतर ने पासा मोड़िया, रंगां दे मेले वास्ते
फुल्लां ने रेशम जोड़िया – तू नहीं आया
होईआं दुपहिरां लम्बीआं, दाखां नू लाली छोह गई
दाती ने कणकां चुम्मीआं – तू नहीं आया
बद्दलां दी दुनीआं छा गई, धरती ने बुक्कां जोड़ के
अंबर दी रहिमत पी लई – तू नहीं आया
रुकखां ने जादू कर लिआ, जंग्गल नू छोहंदी पौण दे
होंठों ‘च शहद भर गिआ – तू नहीं आया
रूत्तां ने जादू छोहणीआं, चन्नां ने पाईआं आण के
रातां दे मत्थे दौणीआं – तू नहीं आया
अज फेर तारे कह गए, उमरां दे महिलीं अजे वी
हुसनां दे दीवे बल रहे – तू नहीं आया
किरणां दा झुरमुट आखदा, रातां दी गूढ़ी नींद चों
हाले वी चानण जागदा – तू नहीं आया
हिन्‍दी अनुवाद
तू नहीं आया
चैत ने करवट ली, रंगों के मेले के लिए
फूलों ने रेशम बटोरा – तू नहीं आया
दोपहरें लंबी हो गईं, दाख़ों को लाली छू गई
दरांती ने गेहूँ की वालियाँ चूम लीं – तू नहीं आया
बादलों की दुनिया छा गई, धरती ने दोनों हाथ बढ़ा कर
आसमान की रहमत पी ली – तू नहीं आया
पेड़ों ने जादू कर दिया, जंगल से आई हवा के
होंठों में शहद भर गया – तू नहीं आया
ऋतु ने एक टोना कर दिया, चाँद ने आकर
रात के माथे झूमर लटका दिया – तू नहीं आया
आज तारों ने फिर कहा, उम्र के महल में अब भी
हुस्न के दिये जल रहे हैं – तू नहीं आया
किरणों का झुरमुट कहता है, रातों की गहरी नींद से
रोशनी अब भी जागती है – तू नहीं आया।
- अलकनंदा स‍िंंह