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Wednesday, 27 May 2020

राजनांदगांव की तीन हिंदी त्रिवेणी धाराओं में से एक - डॉ. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

Jayanti Special: Literature Dr. Padumlal Punnalal Bakshi

‘मास्टरजी’ के नाम से से प्रख्‍यात हिंदी के लेखक और निबंधकार डॉ. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी का जन्‍म 
27 मई 1894 को छत्तीसगढ़ के राजनंदगांव में हुआ था।
राजनांदगांव की तीन हिंदी त्रिवेणी धाराओं में से एक डॉ. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी की त्रिवेणी परिसर में ही उनके सम्मान में मूर्तियां स्थापित हैं।
उनके पिता पुन्नालाल बख्शी खैरागढ़ (राजनंदगांव) के प्रतिष्ठित परिवारों में से थे। इनके बाबा का नाम ‘श्री उमराव बख्शी’ था। उनकी प्राथमिक शिक्षा मप्र के प्रथम मुख्‍यमंत्री पं. रविशंकर शुक्‍ल जैसे मनीषियों के सानिध्‍य में विक्‍टोरिया हाई स्‍कूल, खैरागढ में हुई थी।
प्रारंभ से ही प्रखर पदुमलाल पन्‍नालाल बख्‍शी की प्रतिभा को खैरागढ़ के ही इतिहासकार लाल प्रद्युम्‍न सिंह जी ने समझा एवं बख्‍शी जी को साहित्‍य सृजन के लिए प्रोत्‍साहित किया। प्रतिभावान बख्‍शी जी ने बनारस हिन्‍दू कॉलेज से बीए किया और एलएलबी करने लगे किन्‍तु वे साहित्‍य के प्रति अपनी प्रतिबद्धता एवं समयाभाव के कारण एलएलबी पूरी नहीं कर पाए।
जबलपुर से निकलने वाली ‘हितकारिणी’ में बख्शी की प्रथम कहानी ‘तारिणी’ प्रकाशित हुई थी।
पदुमलाल पन्नालाल बख्शी ने अध्यापन तथा संपादन लेखन के क्षेत्र में कार्य किए। उन्होंने कविताएँ, कहानियाँ और निबंध सभी कुछ लिखा हैं पर उनकी ख्याति विशेष रूप से निबंधों के लिए ही है। उनका पहला निबंध ‘सोना निकालने वाली चींटियाँ’ सरस्वती में प्रकाशित हुआ था। उन्होंने राजनांदगाँव के स्टेट हाई स्कूल में सर्वप्रथम 1916 से 1919 तक संस्कृत शिक्षक के रूप में सेवा की। दूसरी बार 1929 से 1949 तक खैरागढ़ विक्टोरिया हाई स्कूल में अंगरेज़ी शिक्षक के रूप में नियुक्त रहे। कुछ समय तक उन्होंने कांकेर में भी शिक्षक के रूप में काम किया। सन् 1920 में सरस्वती के सहायक संपादक के रूप में नियुक्त किये गये और एक वर्ष के भीतर ही 1921 में वे सरस्वती के प्रधान संपादक बनाये गये जहाँ वे अपने स्वेच्छा से त्यागपत्र देने (1925) तक उस पद पर बने रहे। 1927 में पुनः उन्हें सरस्वती के प्रधान संपादक के रूप में ससम्मान बुलाया गया। दो साल के बाद उनका साधु मन वहाँ नहीं रम सका, उन्होंने इस्तीफा दे दिया। कारण था- संपादकीय जीवन के कटुतापूर्ण तीव्र कटाक्षों से क्षुब्ध हो उठना। उन्होंने 1952 से 1956 तक महाकौशल के रविवासरीय अंक का संपादन कार्य भी किया तथा 1955 से 1956 तक खैरागढ में रहकर ही सरस्वती का संपादन कार्य किया। तीसरी बार 20 अगस्त 1959 में दिग्विजय कॉलेज राजनांदगाँव में हिंदी के प्रोफेसर बने और जीवन पर्यन्त वहीं शिक्षकीय कार्य करते रहे।
28 दिसंबर 1971 को छत्तीसगढ़ के ही रायपुर में उनकी मृत्‍यु हुई।

पढ़ि‍ए उनकी कव‍िताऐं-

पदुमलाल पन्नालाल बख्शी की कव‍िता : मातृ मूर्ति

क्या तुमने मेरी माता का देखा दिव्याकार,
उसकी प्रभा देख कर विस्मय-मुग्ध हुआ संसार ।।

अति उन्नत ललाट पर हिमगिरि का है मुकुट विशाल,
पड़ा हुआ है वक्षस्थल पर जह्नुसुता का हार।।

हरित शस्य से श्यामल रहता है उसका परिधान,
विन्ध्या-कटि पर हुई मेखला देवी की जलधार।।

भत्य भाल पर शोभित होता सूर्य रश्मि सिंदूर,
पाद पद्म को को प्रक्षालित है करता सिंधु अपार।.

सौम्य वदन पर स्मित आभा से होता पुष्प विराम,
पाद पद्म को प्रक्षालित है करता सिंधु अपार ।।

सौम्य वदन पर स्मित आभा से होता पुष्प विराम,
जिससे सब मलीन पड़ जाते हैं रत्नालंकार ।।

दयामयी वह सदा हस्त में रखती भिक्षा-पात्र,
जगधात्री सब ही का उससे होता है उपकार ।।

देश विजय की नहीं कामना आत्म विजय है इष्ट ,
इससे ही उसके चरणों पर नत होता संसारा ।।

एक बाल कव‍िता : बुढ़‍िया

बुढ़िया चला रही थी चक्की,
पूरे साठ वर्ष की पक्की।
दोने में थी रखी मिठाई,
उस पर उड़कर मक्खी आई।
बुढ़िया बाँस उठाकर दौड़ी,
बिल्ली खाने लगी पकौड़ी।
झपटी बुढ़िया घर के अंदर,
कुत्ता भागा रोटी लेकर।
बुढ़िया तब फिर निकली बाहर,
बकरा घुसा तुरत ही भीतर।
बुढ़िया चली, गिर गया मटका,
तब तक वह बकरा भी सटका।
बुढ़िया बैठ गई तब थककर,
सौंप दिया बिल्ली को ही घर।