मेरी अन्य वेबसाइट्स

Tuesday 24 March 2020

मुखौटा नोचकर इंसानियत के ठेकेदारों को नंगा करती हैं हबीब जालिब की गज़लें

हबीब जालिब का जन्म 24 मार्च 1928 को पंजाब के होशियारपुर में हुआ था. भारत के बंटवारे को हबीब जालिब नहीं मानते थे लेकिन घर वालों की मोहब्बत में इन्हें पाकिस्तान जाना पड़ा.
हबीब जालिब इंसान और इंसानियत के कवि थे. उनका तेवर खालिस इंक़लाबी था. ना हुक्म मानते थे ना झुकते थे. हबीब जालिब को तो हुक्मरानों ने कई बार जंजीरों में जकड़ने की कोशिश की लेकिन उनकी कलम कभी ना जकड़ पाए. वो चलती रही मजबूरों और मजदूरों के लिए, सत्ता के खिलाफ बिना डरे.
हबीब तरक्की पसंद कवि थे. इनकी सीधी-सपाट बातें ज़ुल्म करने वालों के मुंह पर तमाचा थीं. शायद यही वजह रही कि अदब की दुनिया में हबीब जालिब जैसा मशहूर कोई ना हो सका, कारण इन्हें जनकवि का तमगा जन से मिला किसी अवॉर्ड से नहीं.
हबीब जालिब को उतने लोग नहीं जानते जितना फ़ैज़ को जानते हैं. तुलना ही बेकार है क्योंकि जालिब की नज़्में भाव नहीं क्रांति मांगती हैं, मुखौटा नोचकर इंसानियत के ठेकेदारों को नंगा करती हैं.
उनकी नज़्म ‘दस्तूर’ पढ़िए-
दीप जिस का महल्लात ही में जले
चंद लोगों की ख़ुशियों को ले कर चले
वो जो साए में हर मस्लहत के पले
ऐसे दस्तूर को सुब्ह-ए-बे-नूर को
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता
मैं भी ख़ाइफ़ नहीं तख़्ता-ए-दार से
मैं भी मंसूर हूँ कह दो अग़्यार से
क्यूँ डराते हो ज़िंदाँ की दीवार से
ज़ुल्म की बात को जहल की रात को
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता
फूल शाख़ों पे खिलने लगे तुम कहो
जाम रिंदों को मिलने लगे तुम कहो
चाक सीनों के सिलने लगे तुम कहो
इस खुले झूट को ज़ेहन की लूट को
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता
तुम ने लूटा है सदियों हमारा सुकूँ
अब न हम पर चलेगा तुम्हारा फ़ुसूँ
चारागर दर्दमंदों के बनते हो क्यूँ
तुम नहीं चारागर कोई माने मगर
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता
जालिब की लिखी हर लाइन गरीबों के हाथ में जलती मशाल जैसी है. इन पक्तियों में किसी भी सत्ता को झुलसा देने का दम है. अपनी शर्तों पर ज़िंदगी जीने वाले हबीब की मृत्यु 12 मार्च 1993 को 64 साल की उम्र में पाकिस्तान के लाहौर में हुई थी.

Saturday 21 March 2020

विश्व कविता दिवस पर पढ़‍िए हिंदी साहित्य की बेहतरीन कविताएं


सन् 1999 में पेरिस में हुए यूनेस्को के 30वें अधिवेशन में तय किया गया कि हर साल 21 मार्च को विश्व कविता दिवस के रूप में मनाया जाएगा। ऐसा अभिव्यक्ति व कला के इस माध्यम को बढ़ावा देने के लिए किया गया था। कविताएं प्राचीन काल से ही न ही सिर्फ़ मानव मन को बल्कि समाज के विभिन्न मुद्दों को कलात्मक ढंग से कहने का एक ठोस तरीका रही हैं।
भारत में ऋषि-मुनियों ने काव्य व छंदों में कितनी ही बातें कहीं हैं, कितना साहित्य चौपाई और दोहे में संजोया गया है।
इसी क्रम में यूनेस्को का मानना है कि कविताएं के माध्यम से आंचलिक भाषाओं को भी बचाया जा सकता है। 21 मार्च का यह दिन कविता के रूप में मानव सभ्यता के भीतर मौजूद भाषाओं की विविधता का उत्सव है। कविताओं ने सदा से ही अपने समय की गवाही दी है, मानव मन के राग गाए हैं और लोगों को जोड़ने का काम किया है। कितने ही आंदोलनों से लेकर पर्वों तक कविताएं ही एक स्वर के रूप में बाहर आती हैं। 
आज आपके लिए पेश हैं हिंदी साहित्य की बेहतरीन कविताएं

कलम, आज उनकी जय बोल / रामधारी सिंह ‘दिनकर’
जला अस्थियाँ बारी-बारी
चिटकाई जिनमें चिंगारी,
जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर
लिए बिना गर्दन का मोल
कलम, आज उनकी जय बोल।
जो अगणित लघु दीप हमारे
तूफानों में एक किनारे,
जल-जलाकर बुझ गए किसी दिन
माँगा नहीं स्नेह मुँह खोल
कलम, आज उनकी जय बोल।
पीकर जिनकी लाल शिखाएँ
उगल रही सौ लपट दिशाएं,
जिनके सिंहनाद से सहमी
धरती रही अभी तक डोल
कलम, आज उनकी जय बोल।
अंधा चकाचौंध का मारा
क्या जाने इतिहास बेचारा,
साखी हैं उनकी महिमा के
सूर्य चन्द्र भूगोल खगोल
कलम, आज उनकी जय बोल।
जाना / केदारनाथ सिंह
मैं जा रही हूँ – उसने कहा
जाओ – मैंने उत्तर दिया
यह जानते हुए कि जाना
हिंदी की सबसे खौफनाक क्रिया है
जो तुम आ जाते एक बार / महादेवी वर्मा
जो तुम आ जाते एक बार
कितनी करुणा कितने संदेश
पथ में बिछ जाते बन पराग
गाता प्राणों का तार तार
अनुराग भरा उन्माद राग
आँसू लेते वे पथ पखार
जो तुम आ जाते एक बार
हँस उठते पल में आर्द्र नयन
धुल जाता होठों से विषाद
छा जाता जीवन में बसंत
लुट जाता चिर संचित विराग
आँखें देतीं सर्वस्व वार
जो तुम आ जाते एक बार
नर हो, न निराश करो मन को / मैथिलीशरण गुप्त
नर हो, न निराश करो मन को
कुछ काम करो, कुछ काम करो
जग में रह कर कुछ नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो, न निराश करो मन को।
संभलो कि सुयोग न जाय चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलंबन को
नर हो, न निराश करो मन को।
जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ
फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो
उठके अमरत्व विधान करो
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को।
निज गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे
मरणोंत्तर गुंजित गान रहे
सब जाय अभी पर मान रहे
कुछ हो न तजो निज साधन को
नर हो, न निराश करो मन को।
प्रभु ने तुमको कर दान किए
सब वांछित वस्तु विधान किए
तुम प्राप्त करो उनको न अहो
फिर है यह किसका दोष कहो
समझो न अलभ्य किसी धन को
नर हो, न निराश करो मन को।
किस गौरव के तुम योग्य नहीं
कब कौन तुम्हें सुख भोग्य नहीं
जन हो तुम भी जगदीश्वर के
सब है जिसके अपने घर के
फिर दुर्लभ क्या उसके जन को
नर हो, न निराश करो मन को।
करके विधि वाद न खेद करो
निज लक्ष्य निरन्तर भेद करो
बनता बस उद्यम ही विधि है
मिलती जिससे सुख की निधि है
समझो धिक् निष्क्रिय जीवन को
नर हो, न निराश करो मन को
कुछ काम करो, कुछ काम करो।
जो बीत गई सो बात गयी/हरिवंशराय बच्चन
जो बीत गई सो बात गई
जीवन में एक सितारा था
माना वह बेहद प्यारा था
वह डूब गया तो डूब गया
अम्बर के आनन को देखो
कितने इसके तारे टूटे
कितने इसके प्यारे छूटे
जो छूट गए फिर कहाँ मिले
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अम्बर शोक मनाता है
जो बीत गई सो बात गई
जीवन में वह था एक कुसुम
थे उसपर नित्य निछावर तुम
वह सूख गया तो सूख गया
मधुवन की छाती को देखो
सूखी कितनी इसकी कलियाँ
मुर्झाई कितनी वल्लरियाँ
जो मुर्झाई फिर कहाँ खिली
पर बोलो सूखे फूलों पर
कब मधुवन शोर मचाता है
जो बीत गई सो बात गई
जीवन में मधु का प्याला था
तुमने तन मन दे डाला था
वह टूट गया तो टूट गया
मदिरालय का आँगन देखो
कितने प्याले हिल जाते हैं
गिर मिट्टी में मिल जाते हैं
जो गिरते हैं कब उठतें हैं
पर बोलो टूटे प्यालों पर
कब मदिरालय पछताता है
जो बीत गई सो बात गई
मृदु मिटटी के हैं बने हुए
मधु घट फूटा ही करते हैं
लघु जीवन लेकर आए हैं
प्याले टूटा ही करते हैं
फिर भी मदिरालय के अन्दर
मधु के घट हैं मधु प्याले हैं
जो मादकता के मारे हैं
वे मधु लूटा ही करते हैं
वह कच्चा पीने वाला है
जिसकी ममता घट प्यालों पर
जो सच्चे मधु से जला हुआ
कब रोता है चिल्लाता है
जो बीत गई सो बात गई.

Friday 20 March 2020

उर्दू अदब के शायरों में एक अलग स्थान रखते हैं नज़ीर

सदियों की उपेक्षा के बाद जब हिंदी-उर्दू के साहित्य-संसार ने नज़ीर को कवि माना, तब से उनके कलामों को बहुत श‍िद्दत से याद किया जाने लगा। उर्दू अदब में एक से एक बेहतरीन शायर हुए हैं, लेकिन नज़ीर अपना अलग स्थान रखते हैं।
नज़ीर को सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल के तौर पर देखा जाता है। उन्होंने होली से लेकर लगभग सभी हिंदू-मुस्लिम त्योहारों पर अपनी कलम चलाई। नज़ीर के शायराने मिज़ाज पर होली का पूरा रंग चढ़ता था, उनकी कलम की स्याही होली के रंगों में मिल जाती थी, उन्होंने झूमकर लिखा। पेश है नज़ीर की कविताओं से होली के रंग…
जब आई होली रंग भरी, सो नाज़-ओ-अदा से मटक-मटक
और घूंघट के पट खोल दिये, वह रूप दिखाया चमक-चमक
कुछ मुखड़ा करता दमक-दमक कुछ अबरन करता झलक-झलक
जब पांव रखा खु़शवक़्ती से तब पायल बाजी झनक-झनक
कुछ उछलें, सैनें नाज़ भरें, कुछ कूदें आहें थिरक-थिरक
खड़ी बोली आधुनिक हिंदी कविता के प्रथम कवि नज़ीर अकबराबादी को गंगा जमुनी तहज़ीब का प्रतिनिधि कवि कहना चाहिए और नज़ीर को इसी रूप में पढ़ने और समझने की जरूरत है। लेकिन यह एक स्थापित तथ्य है कि नज़ीर उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभ में ही अपनी कविता के उत्कर्ष पर पहुँच चुके थे, पर बहुत दिनों तक उसे वह मान्यता न मिल सकी जिसका वह अधिकारी थे।
नज़ीर के काव्य पर विभिन्न संदर्भों में फिर कभी विस्तार से बात होगी, आज तो बस होली और फागुनी फुहारों पर उनकी रचनाओं को पढ़वाना उद्देश्य है।
यह रूप दिखाकर होली के, जब नैन रसीले टुक मटके
मंगवाये थाल गुलालों के, भर डाले रंगों से मटके
फिर स्वांग बहुत तैयार हुए, और ठाठ खु़शी के झुरमुट के
गुल शोर हुए ख़ुश हाली के, और नाचने गाने के खटके
मरदंगें बाजी, ताल बजे, कुछ खनक-खनक कुछ धनक-धनक
होली संबंधी कविताओं में नज़ीर की मस्ती, खुलापन आदि और भी रंग लाते हैं। नज़ीर दो समुदायों के उन तमाम दूरियों को मिटा देते हैं और सही-सही हिंदुस्तानियत के रंग से सराबोर कर देते हैं। उनका खुलापन और मस्ती देखिए-
सनम तू हमसे न हो बदगुमान होली में
कि यार रखते हैं यारों का मान होली में
वह अपनी छोड़ दे अब ज़िद की आन होली में
हमारे साथ तू चल महरबान होली में
फिर तेरी घट न जावेगी शान होली में॥
सामान्य रूप में आज हमारी धारणा बन गई है कि मुसलमान होली में रंग खेलना पसंद नहीं करते। पर नज़ीर के जमाने में हिंदू-मुसलमान साथ मिलकर होली मनाने में परहेज नहीं करते थे। उन्होंने इसका वर्णन ‘होली (1)’ में किया है। सांप्रदायिक सद्भाव का यह अद्भुत नजारा है…
उधर से रंग लिए आओ तुम इधर से हम
गुलाल अबीर मलें मुँह पे होके खुश हर दम
खुशी से बोलें हँसें होली खेलकर बाहम
बहुत दिनों से हमें तो तुम्हारे सर की कसम
इसी उम्मीद में था इंतिजार होली का
‘होली’ पर 20 से अधिक रचनाएं नज़ीर ने लिखी हैं और सब एक से बढ़कर एक। हिंदुस्तान एक उत्सवधर्मी देश है और त्यौहारों में आमो-ख़ास के उल्लास दिखाई पड़ते हैं, नज़ीर उसी उल्लास को पकड़ते हैं और होली के एक-एक रंग को अपने अल्फ़ाज़ों से सजा देते हैं।
क़ातिल जो मेरा ओढ़े इक सुर्ख़ शाल आया
खा-खा के पान ज़ालिम कर होंठ लाल आया
गोया निकल शफ़क़ से बदरे-कमाल आया
जब मुंह में वह परीरू मल कर गुलाल आया।
एक दम तो देख उसको होली को हाल आया।
चेहरों पे गुलाल उनके लगा है जो बहुत सा।
आता है नज़र हुस्न का कुछ ज़ोर ही नक्शा।
है रंग में और रूप में झमका जो परी का।
देख उनकी बहारें यही कहते हैं अहा हा।
दुनियां में यह आई है परिस्तान से ‘होली’॥
हैं क्या-क्या सर में रंग भरे और स्वांग भी क्या-क्या आते हैं
कर बातें हर दम चुहल भरी, खुश हंसते और हंसाते हैं
कुछ जोगी चेले बैठे हैं कुछ कामिनियों की गाते हैं
कुछ और तरह के स्वांग बने कुछ नाचते हैं कुछ गाते हैं।
हर आन ‘नज़ीर’ इस फ़रहत का, सामान दिखाया होली ने॥
कोई तो शर्म से घूंघट में सैन करती है।
और अपने यार के नैनों में नैन करती है।
कोई तो दोनों की बातों को गै़न करती है।
कोई निगाहों में आशिक़ को चैन करती है।
ग़रज तमाशे हैं होते हज़ार होली में॥
कोई तो बांधे है दस्तार गुलनारी।
किसी के हाथ में हैंगा गुलाल पिचकारी॥
किसी की रंग में पोशाक ग़र्क है सारी।
किसी के गाल पे है सुर्ख़ रंग की धारी॥
अजब बहार जो ठहरी है आन होली में
कोई तो हुस्न में अपने कहे हैं गुलशन हूं।
कोई बहार दिखाकर कहे हैं लालन हूं॥
लुभा के दिल के और बोला कि मैं तो मोहन हूं।
कोई पुकारे है आशिक मैं बामन हूं॥
दिलाओ अब कोई बोसे का दान होली में
मिलने का तेरे रखते हैं हम ध्यान इधर देख।
भाती है बहुत हमको तेरी आन इधर देख।
हम चाहने वाले हैं तेरे जान! इधर देख।
होली है सनम, हंस के तो एक आन इधर देख।
ऐ! रंग भरे नौ गुले खंदान इधर देख॥
मजे़ की होती है होली भी राव राजों के यां।
कई महीनों से होता है फाग का सामां।
महकती होलियां गाती हैं गायनें खड़ियां।
गुलाल अबीर भी छाया है दर ज़मीनों ज़मां।
चहार तरफ़ है रंगों की मार होली में॥
भागे हैं कहीं रंग किसी पर जो कोई डाल
वह पोटली मारे है उसे दौड़ के फ़िलहाल
यह टांग घसीटे है तो वह खींचे पकड़ बाल
वह हाथ मरोड़े तो यह तोड़े है खड़ा गाल
इस ढब के हर इक जा पे मचे ढंग ज़मीं पर
होली ने मचाया है अज़ब रंग ज़मीं पर॥

Tuesday 17 March 2020

आज के ही दिन उर्दू शायर दाग़ देहलवी ने छोड़ दी थी दुनिया

25 May 1831 को दिल्‍ली में जन्‍मे दाग़ देहलवी का 17 मार्च 1905 को हैदराबाद में इंतकाल हुआ था। नवाब मिर्जा खाँ ‘दाग़’ , उर्दू के प्रसिद्ध कवि थे। इनके पिता शम्सुद्दीन खाँ नवाब लोहारू के भाई थे। जब दाग़ पाँच-छह वर्ष के थे तभी इनके पिता मर गए। इनकी माता ने बहादुर शाह “ज़फर” के पुत्र मिर्जा फखरू से विवाह कर लिया, तब यह भी दिल्ली में लाल किले में रहने लगे। यहाँ दाग़ को हर प्रकार की अच्छी शिक्षा मिली। यहाँ ये कविता करने लगे और जौक़ को गुरु बनाया। सन् 1856 में मिर्जा फखरू की भी मृत्यु हो गई।
सन् 1890 ई. में दाग़ हैदराबाद गए और निज़ाम के कविता गुरु नियत हो गए। इन्हें यहाँ धन तथा सम्मान दोनों मिला और यहीं सन् 1905 ई. में फालिज से इनकी मृत्यु हुई।

तुम्हारे ख़त में नया इक सलाम किस का था

तुम्हारे ख़त में नया इक सलाम किस का था
न था रक़ीब तो आख़िर वो नाम किस का था

वो क़त्ल कर के हर किसी से पूछते हैं
ये काम किस ने किया है ये काम किस का था

वफ़ा करेंगे ,निबाहेंगे, बात मानेंगे
तुम्हें भी याद है कुछ ये कलाम किस का था

रहा न दिल में वो बेदर्द और दर्द रहा
मुक़ीम कौन हुआ है मुक़ाम किस का था

न पूछ-ताछ थी किसी की वहाँ न आवभगत
तुम्हारी बज़्म में कल एहतमाम किस का था

हमारे ख़त के तो पुर्जे किए पढ़ा भी नहीं
सुना जो तुम ने बा-दिल वो पयाम किस का था

इन्हीं सिफ़ात से होता है आदमी मशहूर
जो लुत्फ़ आप ही करते तो नाम किस का था

तमाम बज़्म जिसे सुन के रह गई मुश्ताक़
कहो, वो तज़्किरा-ए-नातमामकिसका था

गुज़र गया वो ज़माना कहें तो किस से कहें
ख़याल मेरे दिल को सुबह-ओ-शाम किस का था

अगर्चे देखने वाले तेरे हज़ारों थे
तबाह हाल बहुत ज़ेरे-बाम किसका था

हर इक से कहते हैं क्या 'दाग़' बेवफ़ा निकला

ये पूछे इन से कोई वो ग़ुलाम किस का था.

दाग़ नाम शायद उन्हें रास न आया

अपने भीतर के शायर के लिए उन्होंने दाग नाम चुना था और देहलवी यानी दिल्लीवाला को उन्होंने अपना तखल्लुस बनाया। पर दाग़ नाम शायद उन्हें रास न आया। उनका जीवन भी उनके नाम की तरह ही दर्द, जख्म और बेदखली की बानगी से भरा रहा। साल 1856 में मिर्जा फखरू की मौत होने के दूसरे ही साल बलवा शुरू हो गया. मजबूरन दाग ने दिल्ली छोड़ दिया, वह रामपुर चले गए लेकिन मन से कभी दिल्ली को भूल नहीं पाए। स्थान परिवर्तन का यह गम उन्हें जिंदगी भर सालता रहा।
दाग़ देहलवी 1857 की तबाहियों से गुजरे थे। दिल्ली के गली-मोहल्लों में लाशों का नज़ारा उन्होंने देखा था। उनकी शायरी में दर्द और नयेपन के मिश्रण का ऐसा घोल है, जिसे पढ़ने के बाद लंबे समय तक उसमें खोए रहने का मन करता है। उनकी शायरी में दिल्ली की तहजीब नजर आती है। छोटी उम्र में पिता को खोने का दर्द, मां की दूसरी शादी, जिस दिल्ली से उन्हें बेहद लगाव, उसी दिल्ली से उनकी रूखसत, और जिस प्यार को उन्होंने गले लगाना चाहा उस प्यार से भी रुसवाई… दाग की ज़िंदगी और उनकी शायरी दोनों ही ऐसे फलसफों से भरी है।
आज दाग़ देहलवी को दुनिया से रुखसत हुए भले ही करीब 25 साल गुजर गए हों पर उनकी शायरी आज भी गुनगुनाई जाती है-
ब’अद मुद्दत के ये ऐ ‘दाग़’ समझ में आया।
वही दाना है कहा जिस ने न माना दिल का।।

Wednesday 11 March 2020

जन्मद‍िन व‍िशेष: कानों में इश्क घोल देती हैं हस्‍तीमल हस्‍ती की गज़लें

जिनकी गज़ल ‘प्यार का पहला खत लिखने में वक्त तो लगता है’ को जगजीत सिंह जैसे दिग्‍गज गायक ने अपनी आवाज दी, उन हस्तीमल ‘हस्ती’ का जन्‍म 11 मार्च 1946 को हुआ था।
हस्तीमल ‘हस्ती’ प्रेम गीतों के वो उम्दा गीतकार हैं, जिनकी गजलें धीरे से कानों में इश्क को इस कदर घोल देती हैं कि उनका असर लंबे समय तक रहता है।
हस्तीमल ‘हस्ती’ की कुछ अन्‍य चुनिंदा गजलें हैं-
ये मुमकिन है कि मिल जाएँ तेरी खोई हुई चीज़ें
क़रीने से सजा कर रखा ज़रा बिखरी हुई चीज़ें
कभी यूँ भी हुआ है हँसते हँसते तोड़ दी हमने
हमें मालूम था जुड़ती नहीं टूटी हुई चीज़ें
ज़माने के लिए जो हैं बड़ी नायाब और महँगी
हमारे दिल से सब की सब हैं वो उतरी हुई चीज़ें
दिखाती हैं हमें मजबूरियाँ ऐसे भी दिल अक्सर
उठानी पड़ती हैं फिर से हमें फेंकी हुई चीज़ें
किसी महफ़िल में जब इंसानियत का नाम आया है
हमें याद आ गई बाज़ार में बिकती हुई चीज़ें
बैठते जब हैं खिलौने वो बनाने के लिए
उनसे बन जाते हैं हथियार ये क़िस्सा क्या है
वो जो क़िस्से में था शामिल वही कहता है मुझे
मुझको मालूम नहीं यार ये क़िस्सा क्या है
तेरी बीनाई किसी दिन छीन लेगा देखना
देर तक रहना तिरा ये आइनों के दरमियाँ
शीशे के मुक़द्दर में बदल क्यूँ नहीं होता
इन पत्थरों की आँख में जल क्यूँ नहीं होता
क़ुदरत के उसूलों में बदल क्यूँ नहीं होता
जो आज हुआ है वही कल क्यूँ नहीं होता
हर झील में पानी है हर इक झील में लहरें
फिर सब के मुक़द्दर में कँवल क्यूँ नहीं होता
जब उस ने ही दुनिया का ये दीवान रचा है
हर आदमी प्यारी सी ग़ज़ल क्यूँ नहीं होता
हर बार न मिलने की क़सम खा के मिले हम
अपने ही इरादों पे अमल क्यूँ नहीं होता
हर गाँव में मुम्ताज़ जनम क्यूँ नहीं लेती
हर मोड़ पे इक ताज-महल क्यूँ नहीं होता.

सच कहना और पत्थर खाना पहले भी था आज भी है

सच कहना और पत्थर खाना पहले भी था आज भी है
बन के मसीहा जान गँवाना पहले भी था और आज भी है

दफ़्न हज़ारों ज़ख़्म जहाँ पर दबे हुए हैं राज़ कई
दिल के भीतर वो तहखाना पहले भी था आज भी है

जिस पंछी की परवाज़ों में दिल की लगन भी शामिल हो
उसकी ख़ातिर आबोदाना पहले भी था आज भी है

कतना, बुनना, रँगना, सिलना, फटना, फिर कतना-बुनना
जीवन का ये पा पुराना पहले भी था आज भी है

बदल गया है हर इक किस्साफ़ानी दुनिया का लेकिन
मेरी कहानी तेरा फ़साना पहले भी था आज भी है.

उस जगह सरहदें नहीं होतीं

उस जगह सरहदें नहीं होतीं
जिस जगह ऩफरतें नहीं होतीं

उसका साया घना नहीं होता
जिसकी गहरी जड़ें नहीं होतीं

बस्तियों में रहें कि जंगल में
किस जगह उलझनें नहीं होतीं

मुँह पे कुछ और पीठ पे कुछ और
हमसे ये हरकतें नहीं होतीं

रास्ते उस तऱफ भी जाते हैं
जिस तऱफ मंज़िलें नहीं होतीं

Wednesday 4 March 2020

आदिम रात्रि की महक को रचने वाले ‘रेणु’ जी का आज जन्मद‍िन

हिन्दी भाषा के प्रसिद्ध साहित्यकार फणीश्वर नाथ ‘ रेणु ‘ का जन्म 4 मार्च 1921 को बिहार के अररिया जिला अंतर्गत औराही हिंगना गाँव में हुआ था। उस समय यह पूर्णिया जिले में था।


फणीश्वर नाथ ‘ रेणु ‘ की लेखन-शैली वर्णणात्मक थी जिसमें पात्र के प्रत्येक मनोवैज्ञानिक सोच का विवरण लुभावने तरीके से किया होता था। पात्रों का चरित्र-निर्माण काफी तेजी से होता था क्योंकि पात्र एक सामान्य-सरल मानव मन (प्रायः) के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता था। इनकी लगभग हर कहानी में पात्रों की सोच घटनाओं से प्रधान होती थी। 

रेणु जी द्वारा ल‍िखी गई कहानी ''एक आदिम रात्रि की महक'' इसका एक सुंदर उदाहरण है, तो आज पढ़‍िए उनकी यही  कहानी - 

...न ...करमा को नींद नहीं आएगी।
नए पक्के मकान में उसे कभी नींद नहीं आती। चूना और वार्निश की गंध के मारे उसकी कनपटी के पास हमेशा चौअन्नी-भर दर्द चिनचिनाता रहता है। पुरानी लाइन के पुराने 'इस्टिसन' सब हजार पुराने हों, वहाँ नींद तो आती है।...ले, नाक के अंदर फिर सुड़सुड़ी जगी ससुरी...!
करमा छींकने लगा। नए मकान में उसकी छींक गूँज उठी।
'करमा, नींद नहीं आती?' 'बाबू' ने कैंप-खाट पर करवट लेते हुए पूछा।
गमछे से नथुने को साफ करते हुए करमा ने कहा - 'यहाँ नींद कभी नहीं आएगी, मैं जानता था, बाबू!'
'मुझे भी नींद नहीं आएगी,' बाबू ने सिगरेट सुलगाते हुए कहा - 'नई जगह में पहली रात मुझे नींद नहीं आती।'
करमा पूछना चाहता था कि नए 'पोख्ता' मकान में बाबू को भी चूने की गंध लगती है क्या? कनपटी के पास दर्द रहता है हमेशा क्या?...बाबू कोई गीत गुनगुनाने लगे। एक कुत्ता गश्त लगाता हुआ सिगनल-केबिन की ओर से आया और बरामदे के पास आ कर रुक गया। करमा चुपचाप कुत्ते की नीयत को ताड़ने लगा। कुत्ते ने बाबू की खटिया की ओर थुथना ऊँचा करके हवा में सूँघा। आगे बढ़ा। करमा समझ गया - जरूर जूता-खोर कुत्ता है, साला!... नहीं, सिर्फ सूँघ रहा था। कुत्ता अब करमा की ओर मुड़ा। हवा सूँघने लगा। फिर मुसाफिरखाने की ओर दुलकी चाल से चला गया।
बाबू ने पूछा - 'तुम्हारा नाम करमा है या करमचंद या करमू?'
...सात दिन तक साथ रहने के बाद, आज आधी रात के पहर में बाबू ने दिल खोल कर एक सवाल के जैसा सवाल किया है।
'बाबू, नाम तो मेरा करमा ही है। वैसे लोगों के हजार मुँह हैं, हजार नाम कहते हैं।...निताय बाबू कोरमा कहते थे, घोस बाबू करीमा कह कर बुलाते थे, सिंघ जी ने ब दिन कामा ही कहा और असगर बाबू तो हमेशा करम-करम कहते थे। खुश रहने पर दिल्लगी करते थे - हाय मेरे करम!...नाम में क्या है, बाबू? जो मन में आए कहिए। हजार नाम...!'
'तुम्हारा घर संथाल परगना में है, या राँची-हजारीबाग की ओर?'
करमा इस सवाल पर अचकचाया, जरा! ऐसे सवालों के जवाब देते समय वह रमते जोगी की मुद्रा बना लेता है। 'घर? जहाँ धड़, वहाँ घर। माँ-बाप-भगवान जी!'...लेकिन, बाबू को ऐसा जवाब तो नहीं दे सकता!
...बाबू भी खूब हैं। नाम का 'अरथ' निकाल कर अनुमान लगा लिया - घर संथाल परगना या राँची-हजारीबाग की ओर होगा, किसी गाँव में? करमा-पर्व के दिन जन्म हुआ होगा, इसीलिए नाम करमा पड़ा। माथा, कपाल, होंठ और देह की गठन देख कर भी...।
...बाबू तो बहुत 'गुनी' मालुम होते हैं। अपने बारे में करमा को कुछ मालुम नहीं। और बाबू नाम और कपाल देख कर सब कुछ बता रहे हैं। इतने दिन के बाद एक बाबू मिले हैं, गोपाल बाबू जैसे!
करमा ने कहा - 'बाबू, गोपाल बाबू भी यही कहते थे! यह 'करमा' नाम तो गोपाल बाबू का ही दिया हुआ है!'
करमा ने गोपाल बाबू का किस्सा शुरु किया - '...गोपाल बाबू कहते थे, आसाम से लौटती हुई कुली-गाड़ी में एक 'डोको' के अंदर तू पड़ा था, बिना 'बिलटी-रसीद' के ही...लावारिस माल।'
...चलो, बाबू को नींद आ गई। नाक बोलने लगी। गोपाल बाबू का किस्सा अधूरा ही रह गया।
...कुतवा फिर गश्त लगाता हुआ आया। यह कातिक का महीना है न! ससुरा पस्त हो कर आया है। हाँफ रहा है।...ले, तू भी यहीं सोएगा? ऊँह! साले की देह की गंध यहाँ तक आती है - धेत! धेत!
बाबू ने जग कर पूछा, 'हूँ-ऊ-ऊ! तब क्या हुआ तुम्हारे गोपाल बाबू का?'
कुत्ता बरामदे के नीचे चला गया। उलट कर देखने लगा। गुर्राया। फिर, दो-तीन बार दबी हुई आवाज में 'बुफ-बुफ' कर जनाने मुसाफिरखाने के अंदर चला गया, जहाँ पैटमान जी सोता है।
'बाबू, सो गए क्या?'
…चलो, बाबू को फिर नींद आ गई ! बाबू की नाक ठीक 'बबुआनी आवाज' में ही 'डाकती' है!...पैटमान जी तो, लगता है, लकड़ी चीर रहे हैं! - गोपाल बाबू की नाक बीन-जैसी बजती थी - सुर में!!...असगर बाबू का खर्राटा...सिंघ जी फुफकारते थे और साहू बाबू नींद में बोलते थे - 'ए, डाउन दो, गाड़ी छोड़ा...!'
...तार की घंटी! स्टेशन का घंटा! गार्ड साहब की सीटी! इंजिन का बिगुल! जहाज का भोंपो! - सैकडों सीटियाँ...बिगुल...भोंपा...भों-ओं-ओं-ओं...!
- हजार बार, लाख बार कोशिश करके भी अपने को रेल की पटरी से अलग नहीं कर सका, करमा। वह छटपटाया। चिल्लाया, मगर जरा भी टस-से-मस नहीं हुई उसकी देह। वह चिपका रहा। धड़धड़ाता हुआ इंजिन गरदन और पैरों को काटता हुआ चला गया। ...लाइन के एक ओर उसका सिर लुढ़का हुआ पड़ा था, दूसरी ओर दोनों पैर छिटके हुए! उसने जल्दी से अपने कटे हुए पैरों को बटोरा - अरे, यह तो एंटोनी 'गाट' साहब के बरसाती जूते का जोड़ा है! गम-बूट!...उसका सिर क्या हुआ?..धेत,धेत! ससुरा नाक-कान बचा रहा...!
'करमा!'
- धेत-धेत!
'उठ करमा, चाय बना?'
करमा धड़फड़ा कर उठ बैठा।...ले, बिहान हो गया। मालगाड़ी को 'थुरु-पास' करके, पैटमान जी हाथ में बेंत की कमानी घुमाता हुआ आ रहा है। ...साला! ऐसा भी सपना होता है, भला? बारह साल में, पहली बार ऐसा अजूबा सपना देखा करमा ने। बारह साल में एक दिन के लिए भी रेलवे-लाइन से दूर नहीं गया, करमा। इस तरह 'एकसिडंटवाला सपना' कभी नहीं देखा उसने!
करमा रेल-कंपनी का नौकर नहीं। वह चाहता तो पोटर, खलासी पैटमान या पानी पाँडे़ की नौकरी मिल सकती थी। खूब आसानी से रेलवे-नौकरी में 'घुस' सकता था। मगर मन को कौन समझाए! मन माना नहीं। रेल-कंपनी का नीला कुर्ता और इंजिन-छाप बटन का शौक उसे कभी नहीं हुआ!
रेल-कंपनी क्या, किसी की नौकरी करमा ने कभी नहीं की। नामधाम पूछने के बाद लोग पेशे के बारे में पूछते हैं। करमा जवाब देता है - 'बाबू के 'साथ' रहते हैं।'...एक पैसा भी मुसहरा न लेनेवालों को 'नौकर' तो नहीं कह सकते!
...गोपाल बाबू के साथ, लगातार पाँच वर्ष! इसके बाद कितने बाबुओं के साथ रहा, यह गिन कर कर बतलाना होगा! लेकिन, एक बात है - 'रिलिफिया बाबू' को छोड़ कर किसी 'सालटन बाबू' के साथ वह कभी नहीं रहा। ...सालटन बाबू माने किसी 'टिसन' में 'परमानंटी' नौकरी करनेवाला - फैमिली के साथ रहनेवाला!
...जा रे गोपाल बाबू! वैसा बाबू अब कहाँ मिले? करमा का माय-बाप, भाय-बहिन, कुल-परिवार जो बूझिए - सब एक गोपाल बाबू!...बिना 'बिलटी-रसीद' का लावारिस माल था, करमा। रेलवे अस्पताल से छुड़ा कर अपने साथ रखा गोपाल बाबू ने।जहाँ जाते, करमा साथ जाता। जो खाते, करमा भी खाता। ...लेकिन आदमी की मति को क्या कहिए! रिलिफिया काम छोड़ कर सालटानी काम में गए। फिर, एक दिन शादी कर बैठे। ...बौमा ...गोपाल बाबू की 'फैमली' - राम-हो-राम! वह औरत थी? साच्छात चुड़ैल! ...दिन-भर गोपाल बाबू ठीक रहते। साँझ पड़ते ही उनकी जान चिड़िया की तरह 'लुकाती' फिरती।...आधी रात को कभी-कभी 'इसपेसल' पास करने के लिए बाबू निकलते। लगता, अमरीकन रेलवे-इंजिन के 'बायलर' में कोयला झोंक कर निकले हैं। ...करमा 'क्वाटर' के बरामदे पर सोता था। तीन महीने तक रात में नींद नहीं आई, कभी। ...बौमा 'फों-फों' करती - बाबू मिनमिना कुछ बोलते। फिर शुरु होता रोना-कराहना, गाली-गलौज, मारपीट। बाबू भाग कर बाहर निकलते और वह औरत झपट कर माथे का केश पकड़ लेती। ...तब करमा ने एक उपाय निकाला। ऐसे समय में वह उठ कर दरवाजा खटखटा कर कहता - 'बाबू, 'इसपेशल' का 'कल' बोलता है...।' बाबू की जान कितने दिनों तक बचाता करमा? ...बौमा एक दिन चिल्लाई - 'ए छोकरा हरामजदा के दूर करो। यह चोर है, चो-ओ-ओ-र!'
...इसके बाद से ही किसी 'टिसन' के फैमिली क्वाटर को देखते ही करमा के मन में एक पतली आवाज गूँजने लगती है - चो-ओ-ओ-र! हरामजदा! फैमिली क्वाटर ही क्यों - जनाना मुसाफिरखाना, जनाना दर्जा, जनाना... जनाना नाम से ही करमा को उबकाई आने लगती है।
...एक ही साल में गोपाल बाबू को 'हाड़-गोड़' सहित चबा कर खा गई, वह जनाना! फूल-जैसे सुकुमार गोपाल बाबू! जिंदगी में पहली बार फूट-फूट कर रोया था, करमा।
...रमता-जोगी, बहता-पानी और रिलिफिया बाबू! हेड-क्वाटर में चौबीस घंटे हुए कि 'परवाना' कटा - फलाने टिशन का मास्टर बीमार है, सिक-रिपोट आया है। तुरंत 'जोआएन' करो।...रिलिफिया बाबू का बोरिया-बिस्तर हमेशा 'रेडी' रहना चाहिए। कम-से-कम एक सप्ताह रिलिफिया बाबू। ...लकड़ी के एक बक्से में सारी गुहस्थी बंद करके - आज यहाँ, कल वहाँ।...पानीपाड़ा से भातगाँव, कुरैहा से रौताड़ा। पीर, हेड-क्वाटर, कटिहार! ...गोपाल बाबू ने ही घोस बाबू के साथ लगा दिया था - 'खूब भालो बाबू। अच्छी तरह रखेगा। लेकिन, घोस बाबू के साथ एक महीना से ज्यादा नहीं रह सका, करमा। घोस बाबू की बेवजह गाली देने की आदत! गाली भी बहुत खराब-खराब! माँ-बहन की गाली।...इसके अलावा घोस बाबू में कोई ऐब नहीं था। अपने 'समांग' की तरह रखते थे। ...घोस बाबू आज भी मिलते हैं तो गाली से ही बात शुरु करते हैं - 'की रे...करमा? किसका साथ में हैं आजकल मादर्च...?'
घोस बाबू को माँ-बहन की गाली देनेवाला कोई नहीं। नहीं तो समझते कि माँ-बहन की गाली सुन कर आदमी का खून किस तरह खौलने लगता है। किसी भले आदमी को ऐसी खराब गाली बकते नहीं सुना है करमा ने, आज तक।
...राम बाबू की सब आदत ठीक थी। लेकिन - भा-आ-री 'इस्की आदमी।' जिस टिसन में जाते, पैटमान-पोटर-सूपर को एकांत में बुला कर घुसर-फुसर बतियाते। फिर रात में कभी मालगोदाम की ओर तो कभी जनाना मुसाफिरखाना में, तो कभी जनाना-पैखाना में...छिः-छिः...जहाँ जाते छुछुआते रहते - 'क्या जी, असल-माल-वाल का कोई जोगाड़ जंतर नहीं लगेगा?'...आखिर वही हुआ जो करमा ने कहा था - 'माल' ही उनका 'काल' हुआ। पिछले साल, जोगबनी-लाइन में एक नेपाली ने खुकरी से दो टुकड़ा काट कर रख दिया। और उड़ाओ माल! ...जैसी अपनी इज्जत वैसी पराई !
...सिंघ जी भारी 'पुजेगरी'! सिया सहित राम-लछमन की मूर्ति हमेशा उनकी झोली में रहती थी। रोज चार बजे भोर से ही नहा कर पूजा की घंटी हिलाते रहते। इधर 'कल' की घंटी बजती। ...जिस घर में ठाकुर जी की झोली रहती, उसमें बिना नहाए कोई पैर भी नहीं दे सकता। ...कोई अपनी देह को उस तरह बाँध कर हमेशा कैसे रह सकता है? कौन दिन में दस बार नहाए और हजार बार पैर धोए! सो भी, जाड़े के मौसम में! ...जहाँ कुछ छुओ कि हूँहूँहूँ-हाँहाँहाँ-अरेरेरे-छू दिया न? ...ऐसे छुतहा आदमी को रेल-कंपनी में आने की क्या जरुरत? ...सिंघ जी का साथ नहीं निभ सका।
...साहू बाबू दरियादिल आदमी थे। मगर मदक्की ऐसे कि दिन-दोपहर को पचास-दारु एक बोतल पी कर मालगाड़ी को 'थुरुपास' दे दिया और गाड़ी लड़ गई। करमा को याद है, 'एकसिडंट' की खबर सुन कर साहू बाबू ने फिर एक बोतल चढ़ा लिया। ...आखिर डॉक्टर ने दिमाग खराब होने का 'साटिफिटिक' दे दिया।
...लेकिन, उस 'एकसिडंट' के समय भी किसी रात को करमा ने ऐसा सपना नहीं देखा!
...न ...भोर-भार ऐसी कुलच्छन-भरी बात बाबू को सुना कर करमा ने अच्छा नहीं किया। रेलवे की नौकरी में अभी तुरत 'घुसवै' किए हैं।
...न...बाबू के मिजाज का टेर-पता अब तक करमा को नहीं मिला है। करीब एक सप्ताह तक साथ में रहने के बाद, कल रात में पहली बार दिल खोल कर दो सवाल-जवाब किया बाबू ने। इसीलिए, सुबह को करमा ने दिल खोल कर अपने सपने की बात शुरु की थी। चाय की प्याली सामने रखने के बाद उसने हँस कर कहा - 'हँह बाबू, रात में हम एक अ-जू-ऊ-ऊ-बा सपना देखा। धड़धड़ाता इंजिन... लाइन पर चिपकी हमारी देह टस-से-मस- नहीं... सिर इधर और पैर लाइन के उधर... एंटोनी गाट साहब के बरसाती जूते का जोड़ा... गमबोट...!'
'धेत! क्या बेसिर-पैर की बात करते हो, सुबह-सुबह? गाँजा-वाँजा पीता है क्या?'
...करमा ने बाबू को सपने की बात सुना कर अच्छा नहीं किया।
करमा उठ कर ताखे पर रखे हुए आईने में अपना मुँह देखने लगा। उसने 'अ-जू-ऊ-ऊ-बा' कह कर देखा। छिः उसके होंठ तीतर की चोच की तरह...।
'का करमचन? का बन रहा है?'
...पानी पाँड़े भला आदमी है। पुरानी जान-पहचान है इससे, करमा की। कई टिसन में संगत हुआ हैं। लेकिन, यह पैटमान 'लटपटिया' आदमी मालूम होता है। हर बात में पुच-पुच कर हँसनेवाला।
'करमचन, बाबू कौन जाती के हैं?'
'क्यों? बंगाली हैं।'
'भैया, बंगाली में भी साढ़े-बारह बरन के लोग होते है।'
पानी पाँड़े जाते-जाते कह गया, 'थोड़ी तरकारी बचा कर रखना, करमचन!'
...घर कहाँ? कौन जाति? मनिहारी घाट के मस्ताना बाबा का सिखाया हुआ जवाब, सभी जगह नहीं चलता - हरि के भजे सो हरी के होई! मगर, हरि की भी जाति थी! ...ले, यह घटही-गाड़ी का इंजन कैसे भेज दिया इस लाइन में आज? संथाली-बाँसी जैसी पतली सीटी-सी-ई-ई!!
...ले, फक्का! एक भी पसिंजर नहीं उतरा, इस गाड़ी से भी। काहे को इतना खर्चा करके रेल-कंपनी ने यहाँ टिसन बनाया, करमा के बुद्धि में नहीं आता। फायदा? बस, नाम ही आदमपुरा है - आमदनी नदारद। सात दिन में दो टिकट कटे हैं और सिर्फ पाँच पासिंजर उतरे हैं, तिसमें दो बिना टिकट के। ...इतने दिन के बाद पंद्रह बोरा बैंगन उस दिन बुक हुआ। पंद्रह बैंगन दे कर ही काम बना लिया, उस बूढ़े ने।...उस बैंगनवाले की बोली-बानी अजीब थी। करमा से खुल कर गप करना चाहता था बूढ़ा। घर कहाँ है? कौन जाति? घर में कौन-कौन हैं? ...करमा ने सभी सवालों का एक ही जवाब दिया था - ऊपर की ओर हाथ दिखला कर! बूढ़ा हँस पड़ा था। ...अजीब हँसी!
...घटही-गाड़ी! सी-ई-ई-ई!!
करमा मनिहारीघाट टिसन में भी रहा है, तीन महीने तक एक बार, एक महीना दूसरी बार। ...मनिहारीघाट टिसन की बात निराली है। कहाँ मनिहारीघाट और कहाँ आदमपुरा का यह पिद्दी टिसन!
...नई जगह में, नए टिसन में पहुँच कर आसपास के गाँवों में एकाध चक्कर घुमे-फिरे बिना करमा को न जाने 'कैसा-कैसा' - लगता है। लगता है, अंध-कूप में पड़ा हुआ है। ...वह 'डिसटन-सिंगल' के उस पार दूर-दूर तक खेत फैले हैं। ...वह काला जंगल ...ताड़ का वह अकेला पेड़ ...आज बाबू को खिला-पिला कर करमा निकलेगा। इस तरह बैठे रहने से उसके पेट का भात नहीं पचेगा। ...यदि गाँव-घर और खेत मैदान में नहीं घूमता-फिरता, तो वह पेड़ पर चढ़ना कैसे सीखता? तैरना कहाँ सीखता?
...लखपतिया टिसन का नाम कितना 'जब्बड़' है! मगर टिसन पर एक 'सत्तू-फरही' की भी दुकान नहीं। आसपास में, पाँच कोस तक कोई गाँव नहीं। मगर, टिसन से पूरब जो दो पोखरे हैं, उन्हें कैसे भूल सकता है करमा? आईना की तरह झलमलाता हुआ पानी। ...बैसाख महीने की दोपहरी में, घंटो गले-भर पानी में नहाने का सुख! मुँह से कह कर बताया नहीं जा सकता!
...मुदा, कदमपुरा - सचमुच कदमपुरा है। टिसन से शुरु करके गाँव तक हजारों कदम के पेड़ हैं। ...कदम की चटनी खाए एक युग हो गया!
...वारिसगंज टिसन, बीच कस्बा में है। बड़े-बड़े मालगोदाम, हजारों गाँठ-पाट, धान-चावल के बोरे, कोयला-सीमेंट-चूना की ढेरी! हमेशा हजारों लोगों की भीड़! करमा को किसी का चेहरा याद नहीं। ...लेकिन टिसन से सटे उत्तर की ओर मैदान में तंबू डाल कर रहनेवाले गदहावाले मगहिया डोमों की याद हमेशा आती है। ...घाघरीवाली औरतें, हाथ में बड़े-बड़े कड़े, कान में झुमके ...नंगे बच्चे, कान में गोल-गोल कुंडलवाले मर्द! ...उनके मुर्गे! उनके कुत्ते!
...बथनाह टिसन के चारों ओर हजार घर बन गए हैं। कोई परतीत करेगा कि पाँच साल पहले बथनाह टिसन पर दिन-दोपहर को टिटही बोलती थी।
...कितनी जगहों, कितने लोगों की याद आती है! ...सोनबरसा के आम ...कालूचक की मछलियाँ ...भटोतर की दही ...कुसियारगाँव का ऊख!
...मगर सबसे ज्यादा आती है मनिहारीघाट टिसन की याद। एक तरफ धरती, दूसरी ओर पानी। इधर रेलगाड़ी, उधर जहाज। इस पार खेत-गाँव-मैदान, उस पार साहेबगंज-कजरोटिया का नीला पहाड़। नीला पानी - सादा बालू! ...तीन एक, चार-चार महीने तक तीसों दिन गंगा में नहाया है, करमा। चार 'जनम तक' पाप का कोई असर तो नहीं होना चाहिए! इतना बढ़िया नाम शायद ही किसी टिसन का होगा - मनीहार। ...बलिहारी! मछुवे जब नाव से मछलियाँ उतारते तो चमक के मारे करमा की आँखे चौंधिया जातीं।
...रात में, उधर जहाज चला जाता - धू-धू करता हुआ। इधर गाड़ी छकछकाती हुई कटिहार की ओर भागती। अजू साह की दुकान की 'झाँपी' बंद हो जाती। तब घाट पर मस्तानबाबा की मंडली जुटती।
...मस्तानबाबा कुली-कुल के थे। मनिहारीघाट पर ही कुली का काम करते थे। एक बार मन ऐसा उदास हो गया कि दाढ़ी और जटा बढ़ा कर बाबा जी हो गए। खंजड़ी बजा कर निरगुन गाने लगे। बाबा कहते - 'घाट-घाट का पानी पी कर देखा - सब फीका। एक गंगाजल मीठा...।' बाबा एक चिलम गाँजा पी कर पाँच किस्सा सुना देते। सब बेद-पुरान का किस्सा! करमा ने ग्यान की दो-चार बोली मनिहारीघाट पर ही सीखीं। मस्तानबाबा के सत्संग में। लेकिन, गाँजा में उसने कभी दम नहीं लगाया। ...आज बाबू ने झुँझला कर जब कहा, 'गाँजा-वाँजा पीते हो क्या' - तो करमा को मस्तानबाबा की याद आई। बाबा कहते - हर जगह की अपनी खुशबू-बदबू होती है! ...इस आदमपुरा की गंध के मारे करमा को खाना-पीना नहीं रुचता।
...मस्तानबाबा को बाद दे कर मनिहारीघाट की याद कभी नहीं आती।
करमा ने ताखे पर रखे आईने में फिर अपना मुखड़ा देखा। उसने आँखे अधमुँदी करके दाँत निकाल कर हँसते हुए मस्तानबाबा के चेहरे की नकल उतारने की चेष्टा की - 'मस्त रहो! ...सदा आँख-कान खोल कर रहो। ...धरती बोलती है। गाछ-बिरिच्छ भी अपने लोगों को पहचानते हैं। ...फसल को नाचते-गाते देखा है, कभी? रोते सुना है कभी अमावस्या की रात को? है...है...है - मस्त रहो...।'
...करमा को क्या पता कि बाबू पीछे खड़े हो कर सब तमाशा देख रहे हैं। बाबू ने अचरज से पूछा, 'तुम जगे-जगे खड़े हो कर भी सपना देखता है? ...कहता है कि गाँजा नहीं पीता?'
सचमुच वह खड़ा-खड़ा सपना देखने लगा था। मस्तानबाबा का चेहरा बरगद के पेड़ की तरह बड़ा होता गया। उसकी मस्त हँसी आकाश में गूँजने लगी! गाँजे का धुआँ उड़ने लगा। गंगा की लहरे आईं। दूर, जहाज का भोंपा सुनाई पड़ा - भों-ओं-ओं!
बाबू ने कहा, 'खाना परोसो। देखूँ, क्या बनाया है? तुमको लेकर भारी मुश्किल है...।'
मुँह का पहला कौर निगल कर बाबू करमा का मुँह ताकने लगे, 'लेकिन, खाना तिओ बहोत बढ़िया बनाया है!'
खाते-खाते बाबू का मन-मिजाज एकदम बदल गया। फिर रात की तरह दिल खोल कर गप करने लगे, 'खाना बनाना किसने सिखलाया तुमको? गोपाल बाबू की घरवाली ने?'
...गोपाल बाबू की घरवाली? माने बौमा? वह बोला, 'बौमा का मिजाज तो इतना खट्टा था कि बोली सुन कर कड़ाही का ताजा दूध फट जाए। वह किसी को क्या सिखावेगी? फूहड़ औरत?'
'और यह बात बनाना किसने सिखलाया तुमको?'
करमा को मस्तान बाबा की 'बानी' याद आई, 'बाबू,सिखलाएगा कौन? ...सहर सिखाए कोतवाली!'
'तुम्हारी बीबी को खूब आराम होगा!'
बाबू का मन-मिजाज इसी तरह ठीक रहा तो एक दिन करमा मस्तानबाबा का पूरा किस्सा सुनाएगा।
'बाबू, आज हमको जरा छुट्टी चाहिए।'
'छुट्टी! क्यों? कहाँ जाएगा?'
करमा ने एक ओर हाथ उठाते हुए कहा, 'जरा उधर घूमने-फिरने...।'
पैटमान जी ने पुकार कर कहा, 'करमा! बाबू को बोलो, 'कल' बोलता है।'
...तुम्हारी बीबी को खूब आराम होगा! ...करमा की बीबी! वारीसगंज टिसन ...मगहिया डोमो के तंबू ...उठती उमेरवाली छौंड़ी ...नाक में नथिया ...नाक और नथिया में जमे हुए काले मैले ...पीले दाँतो में मिस्सी!!
करमा अपने हाथ का बना हुआ हलवा-पूरी उस छौंड़ी को नहीं खिला सका। एक दिन कागज की पुड़िया में ले गया। लेकिन वह पसीने से भीग गया। उसकी हिम्मत ही नहीं हुई। ...यदि यह छौंड़िया चिल्लाने लगे कि तुम हमको चुरा-छिपा कर हलवा काहे खिलाता है? ...ओ, मइयो-यो-यो-यो-यो-यो...!!
...बाबू हजार कहें, करमा का मन नहीं मानता कि उसका घर संथाल-परगना या राँची की ओर कहीं होगा। मनिहारीघाट में दो-दो बार रह आया है, वह। उस पार के साहेबगंज-कजरौटिया के पहाड़ ने उसको अपनी ओर नहीं खींचा कभी! और वारिसगंज, कदमपुरा, कालूचक, लखपतिया का नाम सुनते ही उसके अंदर कुछ झनझना उठता है। जाने-पहचाने, अचीन्हे, कितने लोगों के चेहरों की भीड़ लग जाती है! कितनी बातें सुख-दुख की! खेत-खलिहान, पेड़-पौधे, नदी-पोखरे, चिरई-चुरमुन-सभी एक साथ टानते हैं, करमा को!
...सात दिन से वह काला जंगल और ताड़ का पेड़ उसको इशारे से बुला रहे है। जंगल के ऊपर आसमान में तैरती हुई चील आ कर करमा को क्यों पुकार जाती है? क्यों?
रेलवे-हाता पार करने के बाद भी जब कुत्ता नहीं लौटा तो करमा ने झिड़की दी, 'तू कहाँ जाएगा ससुर? जहाँ जाएगा झाँव-झाँव करके कुत्ते दौड़ेंगे। ...जा! भाग! भाग!!'
कुत्ता रुक कर करमा को देखने लगा। धनखेतों से गुजरनेवाली पगडंडी पकड़ कर करमा चल रहा है। धान की बालियाँ अभी फूट कर निकली नहीं हैं। ...करमा को हेडक्वाटर के चौधरी बाबू की गर्भवती घरवाली की याद आई। सुना है, डॉक्टैरनी ने अंदर का फोटो ले कर देखा है - जुड़वाँ बच्चा है पेट में!
...इधर, 'हथिया-नच्छत्तर अच्छा 'झरा' था। खेतों में अभी भी पानी लगा हुआ है। ...मछली?
...पानी में माँगुर मछलियों को देख कर करमा की देह अपने-आप बँध गई। वह साँस रोक कर चुपचाप खड़ा रहा। फिर धीरे-धीरे खेत की मेंड़ पर चला गया। मछलियाँ छलमलाईं। आईने की तरह थिर पानी अचानक नाचने लगा। ...करमा कया करे? ...उधर की मेंड़ से सटा कर एक 'छेंका' दे कर पानी को उलीच दिया जाए तो...?
...हैहै-हैहै! साले! बन का गीदड़, जाएगा किधर? और छ्लमलाओ! ...अरे, काँटा करमा को क्या मारता है? करमा नया शिकारी नहीं।
आठ माँगुर और एक गहरी मछली! सभी काली मछलियाँ! कटिहार हाट में इसी का दाम बेखटके तीन रुपयो ले लेता। ...कर्मा ने गमछे में मछलियों को बाँध लिया। ऐसा 'संतोख' उसको कभी नहीं हुआ, इसके पहले। बहुत-बहुत मछली का शिकार किया उसने!
एक बूढ़ा भैंसवार मिला जो अपनी भैंस को खोज रहा था, 'ए भाय! उधर किसी भैंस पर नजर पड़ी है?'
भैंसवार ने करमा से एक बीड़ी माँगी। उसको अचरज हुआ - कैसा आदमी है, न बीड़ी पीता है, न तंबाकू खाता है। उसने नाराज हो कर जिरह शुरु किया, 'इधर कहाँ जाना है? गाँव में तुम्हारा कौन है? मछली कहाँ ले जा रहे हो?'
...ताड़ का पेड़ तो पीछे की ओर घसकता जाता है! करमा ने देखा, गाँव आ गया। गाँव में कोई तमाशावाला आया है। बच्चे दौड़ रहे हैं। हाँ, भालू वाला ही है। डमरु की बोली सुन कर करमा ने समझ लिया था।
...गाँव की पहली गंध! गंध का पहला झोंका!
...गाँव का पहला आदमी। यह बूढ़ा गोबी को पानी से पटा रहा है। बाल सादा हो गए हैं, मगर पानी भरते समय बाँह में जवानी ऐंठती है! ...अरे, यह तो वही बूढ़ा है जो उस दिन बैंगन बुक कराने गया था और करमा से घुल-मिल कर गप करना चाहता था। करमा से खोद-खोद कर पूछता था - माय-बाप है नहीं या माय-बाप को छोड़ भाग आए हो? ...ले, उसने भी करमा को पहचान लिया!
'क्या है, भाई! इधर किधर?'
'ऐसे ही। घूमने-फिरने! ...आपका घर इसी गाँव में है?'
बूढ़ा हँसा। घनी मूँछें खिल गई। ...बूढ़ा ठीक सत्तो बाबू टीटी के बाप की तरह हँसता है।
एक लाल साड़ीवाली लड़की हुक्के पर चिलम चढ़ा कर फूँकती हुई आई। चिलम को फूँकते समय उसके दोनों गाल गोल हो गए थे। करमा को देख कर वह ठिठकी। फिर गोभी के खेत के बाड़े को पार करने लगी। बूढ़े ने कहा, 'चल बेटी, दरवाजे पर ही हम लोग आ रहे हैं।'
बूढ़ा हाथ-पैर धो कर खेत से बाहर आया, 'चलो!'
लड़की ने पूछा, 'बाबा, यह कौन आदमी है?'
'भालू नचानेवाला आदमी।'
'धेत्त!'
करमा लजाया। ...क्या उसका चेहरा-मोहरा भालू नचानेवाले-जैसा है? बूढ़े ने पूछा, 'तुम रिलिफिया बाबू के नौकर हो न?'
'नहीं, नौकर नहीं।...ऐसे ही साथ में रहता हूँ।'
'ऐसे ही? साथ में? तलब कितना मिलता है?'
'साथ में रहने पर तलब कितना मिलेगा?'
...बूढ़ा हुक्का पीना भूल गया। बोला, 'बस? बेतलब का ताबेदार?'
बूढ़े ने आँगन की ओर मुँह करके कहा, 'सरसतिया! जरा माय को भेज दो, यहाँ। एक कमाल का आदमी...।'
बूढ़ी टट्टी की आड़ में खड़ी थी। तुरत आई। बूढ़े ने कहा, 'जरा देखो, इस किल्लाठोंक-जवान को। पेट भात पर खटता है। ...क्यों जी, कपड़ा भी मिलता है?...इसी को कहते हैं - पेट-माधोराम मर्द!'
...आँगन में एक पतली खिलखिलाहट! ...भालू नचानेवाला कहीं पड़ोस में ही तमाशा दिखा रहा है। डमरु ने इस ताल पर भालू हाथ हिला-हिला कर 'थब्बड़-थब्बड़' नाच रहा होगा - थुथना ऊँचा करके! ...अच्छा जी भोलेराम!
...सैकड़ों खिलखिलाहट!!
'तुम्हारा नाम क्या है जी? ...करमचन? वाह, नाम तो खूब सगुनिया है। लेकिन काम? काम चूल्हचन?'
करमा ने लजाते हुए बात को मोड़ दिया, 'आपके खेत का बैंगन बहोत बढ़िया है। एकदम घी-जैसा...।' बूढ़ा मुसकराने लगा।
और बूढ़ी की हँसी करमा की देह में जान डाल देती है। वह बोली, 'बेचारे को दम तो लेने दो। तभी से रगेट रहे हो।'
'मछली है? बाबू के लिए ले जाओगे?'
'नहीं। ऐसे ही... रास्ते में शिकार...।'
'सरसतिया की माय! मेहमान को चूड़ा भून कर मछली की भाजी के साथ खिलाओ! ...एक दिन दूसरे के हाथ की बनाई मछली खा लो जी!'
जलपान करते समय करमा ने सुना - कोई पूछ रही थी, 'ए, सरसतिया की माय! कहाँ का मेहमान है?'
'कटिहार का।'
'कौन है?'
'कुटुम ही है।'
'कटिहार में तुम्हारा कुटुम कब से रहने लगा?'
'हाल से ही।'
...फिर एक खिलखिलाहट! कई खिलखिलाहट!! ...चिलम फूँकते समय सरसतिया के गाल मोसंबी की तरह गोल हो जाते हैं। बूढ़ी ने दुलार-भरे स्वर में पूछा, 'अच्छा ए बबुआ! तार के अंदर से आदमी की बोली कैसे जाती है? हमको जरा खुलासा करके समझा दो।'
चलते समय बूढ़ी ने धीरे-से कहा, 'बूढ़े की बात का बुरा न मानना। जब से जवान बेटा गया, तब से इसी तरह उखड़ी-उखड़ी बात करता है। ...कलेजे का घाव...।'
'एक दिन फिर आना।'
'अपना ही घर समझना!'
लौटते समय करमा को लगा, तीन जोड़ी आँखें उसकी पीठ पर लगी हुई हैं। आँखें नहीं - डिसटन-सिंगल, होम-सिंगल और पैट सिंगल की लाल गोल-गोल रोशनी!
जिस खेत में करमा ने मछली का शिकार किया था उसकी मेंड़ पर एक ढोढ़िया-साँप बैठा था। फों-फों करता भागा। ...हद है! कुत्ता अभी तक बैठा उसकी राह देख रहा था! खुशी के मारे नाचने लगा करमा को देख कर!
रेलवे-हाता में आ कर करमा को लगा, बूढ़े ने उसको बना कर ठग लिया। तीन रुपए की मोटी-मोटी माँगुर मछलियाँ एक चुटकी चूड़ा खिला कर, चार खट्टी-मीठी बात सुना कर...।
...करमा ने मछली की बात अपने पेट में रख ली। लेकिन बाबू तो पहले से ही सबकुछ जान लेनेवाला - 'अगरजानी' है। दो हाथ दूर से ही बोले, 'करमा, तुम्हारी देह से कच्ची मछली की बास आती है। मछली ले आए हो?'
...करमा क्या जवाब दे अब? जिंदगी में पहली बार किसी बाबू के साथ उसने विश्वासघात किया है। ...मछली देख कर बाबू जरुर नाचने लगते!
पंद्रह दिन देखते देखते ही बीत गया।
अभी, रात की गाड़ी से टिसन के सालटन-मास्टर बाबू आए हैं - बाल बच्चों के साथ। पंद्रह दिन से चुप फैमिली-क्वाटर में कुहराम मचा है। भोर की गाड़ी से ही करमा अपने बाबू के साथ हेड-क्वाटर लौट जाएगा।...इसके बाद मनिहारीघाट?
...न ...आज रात भी करमा को नींद नहीं आएगी। नहीं, अब वार्निश-चुने की गंध नहीं लगती। ...बाबू तो मजे से सो रहे हैं। बाबू, सचमुच में गोपाल बाबू जैसे हैं। न किसी की जगह से तिल-भर मोह, न रत्ती-भर माया। ...करमा क्या करे? ऐसा तो कभी नहीं हुआ। ...'एक दिन फिर आना। अपना ही घर समझना। ...कुटुम है... पेट-माधोराम मर्द!'
...अचानक करमा को एक अजीब-सी गंध लगी। वह उठा। किधर से यह गंध आ रही है? उसने धीरे-से प्लेकटफार्म पार किया। चुपचाप सूँघता हुआ आगे बढ़ता गया। ...रेलवे-लाइन पर पैर पड़ते ही सभी सिंगल - होम, डिसटट और पैट- जोर-जोर से बिगुल फूँकने लगे। ...फैमिली-क्वाटर से एक औरत चिल्लाने लगी - 'चो-ओ-ओ-र!' वह भागा। एक इंजिन उसके पीछे-पीछे दौड़ा आ रहा है। ...मगहिया डोम की छौंड़ी? ...तंबू में वह छिप गया। ...सरसतिया खिलखिला कर हँसती है। उसके झबरे केश, बेनहाई हुई देह की गंध, करमा के प्राण में समा गई। ...वह डर कर सरसतिया की गोद में ...नहीं, उसकी बूढ़ी माँ की गोद में अपना मुँह छिपाता है। ...रेल और जहाज के भोंपे एक साथ बजते हैं। सिंगल की लाल-लाल रोशनी...।
'करमा, उठ! करमा, सामान बाहर निकालो!'
...करमा एक गंध के समुद्र में डूबा हुआ है। उसने उठ कर कुरता पहना। बाबू का बक्सा बाहर निकाला। पानी-पाँड़े ने 'कहा-सुना माफ करना' कहा। करमा डूब रहा!
...गाड़ी आई। बाबू गाड़ी में बैठे। करमा ने बक्सा चढ़ा दिया। ...वह 'सरवेंट-दर्जा' में बैठेगा। बाबू ने पूछा, 'सबकुछ चढ़ा दिया तो? कुछ छूट तो नहीं गया?'...नहीं, कुछ छूटा नहीं है। ...गाड़ी ने सीटी दी। करमा ने देखा, प्लेाटफार्म पर बैठा हुआ कुत्ता उसकी ओर देख कर कूँ-कूँ कर रहा है। ...बेचैन हो गया कुत्ता!
'बाबू?'
'क्या है?'
'मैं नहीं जाऊँगा।' करमा चलती गाड़ी से उतर गया। धरती पर पैर रखते ही ठोकर लगी। लेकिन सँभल गया।
प्रस्तुत‍ि: अलकनंदा स‍िंंह