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Thursday, 1 August 2019

मय है तेरी आँखों में और मुझ पे नशा सा तारी है, नींद है तेरी पलकों में और ख़्वाब मुझे दिखलाए है


ज्ञानपीठ पुरस्‍कार प्राप्‍त उर्दू के प्रसिद्ध शायर, कवि और आलोचक अली सरदार जाफ़री का इंतकाल 01 अगस्‍त 2000 को मुंबई में हुआ था।
29 नवंबर 1913 को यूपी के बलरामपुर में जन्‍मे अली सरदार जाफ़री के घर का माहौल तो ख़ालिस मज़हबी था, लेकिन सरदार छोटी उम्र में ही मर्सिया (शोक काव्य) कहने लगे थे।
उनकी किताब लखनऊ की पांच रातें में मजाज़ से लेकर नाजिम हिक़मत तक कई किस्से दर्ज हैं। उसी किताब में अली सरदार जाफ़री ने बताया है कि कैसे उनके दिल में इल्म के चिराग़ जले और उनकी ज़िंदगी बदल गयी। वह लिखते हैं कि
“एक गाँव के किसानों न बग़ावत कर दी। रियासत की फ़ौज़ ने जवाब में सारे गाँव में लगा दी और किसान औरतों को बेइज़्ज़त किया। इस पर बड़ा हंगामा हुआ, अख़बारों में ख़बरें छपीं और कांग्रेस की तरफ़ से पंडित जवाहरलाल नेहरू इस मामले को देखने आए। रियासत के लोगों ने उनको गाँव तक जाने से रोक दिया और रास्ते की कच्ची सड़क में जा-ब-जा गड्ढे खोद दिए ताकि पंडित नेहरू की कार वहाँ तक न पहुँच सके।
शायद ईदे-गदीर का दिन था या यों ही हमारे घर में कोई महफ़िल थी। मैं उस महफ़िल में क़सीदा पढ़ने के बजाय इस आम जलसे में चला गया जहाँ पंडित नेहरू ने जागीरदारी जुल्म और जिद के ख़िलाफ़ तक़रीर की। जलसे के बाद मैं वापस आया तो घर के लोग मुझे ख़फ़ा थे और मैं सारी कायनात से बेज़ार।
जुल्म व अफ़लास के समाजी असबाब के पहले इल्म ने मेरे दिल में चिराग़ जला दिए थे।
इसी ज़माने में मैंने दो निहायत अहम किताबें पढ़ीं, जिन्होंने मेरी ज़िंदगी बिल्कुल पलटकर रख दी। एक महात्मा गाँधी की किताब ‘तलाशे-हक़’ और दूसरी प्लूटार्क की किताब ‘मशाहीरे-यूनानो-रोमा’। गाँधी जी की किताब मैं पूरी तरह न समझ सका इसलिए कि वह अंग्रेज़ी में थी और मेरी अंग्रेज़ी की समझ इतनी नहीं थी। प्लूटार्क की किताब का उर्जू तर्जुमा था। इसका असर गहरा पड़ा क्योंकि मैं इसे आसानी से समझ सकता था।”
आधुनिक उर्दू शायरी की दुनिया में सरदार जाफरी शायरना महफिलों में वैचारिक स्तर पर बतौर कम्युनिष्ट दाखिल हुए। शुरुआत में उन्हें लोग तीखी नज़रों से देखते थे लेकिन उनके शेरों के मार्फ़त लोगों ने जल्द ही स्वीकार कर लिया। उन्होंने उर्दू शायरी की दुनिया में ऊंचा स्थान हासिल किया। पेश हैं उनके कुछ चुनिंदा कलाम-
मय है तेरी आँखों में और मुझ पे नशा सा तारी है
नींद है तेरी पलकों में और ख़्वाब मुझे दिखलाए है
इश्क़ का नग़्मा जुनूँ के साज़ पर गाते हैं हम
अपने ग़म की आँच से पत्थर को पिघलाते हैं हम
जाग उठते हैं तो सूली पर भी नींद आती नहीं
वक़्त पड़ जाए तो अँगारों पे सो जाते हैं हम
अब आ गया है जहाँ में तो मुस्कुराता जा
चमन के फूल दिलों के कँवल खिलाता जा
मन इक नन्हा सा बालक है हुमक-हुमक रह जाए है
दूर से मुख का चाँद दिखा कर कौन उसे ललचाए है
इश्क़ का नग़्मा जुनूँ के साज़ पर गाते हैं हम
अपने ग़म की आँच से पत्थर को पिघलाते हैं हम
अर्श तक ओस के कतरों की चमक जाने लगी
चली ठंडी जो हवा तारों को नींद आने लगी
इसीलिए तो है ज़िंदाँ को जुस्तुजू मेरी
कि मुफ़लिसी को सिखाई है सर-कशी मैंने
मैं जहाँ तुम को बुलाता हूँ वहाँ तक आओ
मेरी नज़रों से गुज़र कर दिल-ओ-जाँ तक आओ
हम ने दुनिया की हर इक शय से उठाया दिल को
लेकिन एक शोख़ के हंगामा-ए-महफ़िल के सिवा
जाग उठते हैं तो सूली पर भी नींद आती नहीं
वक़्त पड़ जाए तो अँगारों पे सो जाते हैं हम
मन इक नन्हा सा बालक है हुमक हुमक रह जाए है
दूर से मुख का चाँद दिखा कर कौन उसे ललचाए है
मय है तेरी आँखों में और मुझ पे नशा सा तारी है
नींद है तेरी पलकों में और ख़्वाब मुझे दिखलाए है
याद आए हैं अहद-ए-जुनूँ के खोए हुए दिलदार बहुत
उन से दूर बसाई बस्ती जिन से हमें था प्यार बहुत
ये सिर्फ़ एक क़यामत है चैन की करवट
दबी हैं दिल में हज़ारों क़यामतें मत पूछ
ख़ंजरों की साज़िश पर कब तलक ये ख़ामोशी
रूह क्यूँ है यख़-बस्ता नग़्मा बे-ज़बाँ क्यूँ है
तू वो बहार जो अपने चमन में आवारा
मैं वो चमन जो बहाराँ के इंतिज़ार में है
प्यास जहाँ की एक बयाबाँ तेरी सख़ावत शबनम है
पी के उठा जो बज़्म से तेरी और भी तिश्ना-काम उठा
पुराने साल की ठिठुरी हुई परछाइयाँ सिमटीं
नए दिन का नया सूरज उफ़ुक़ पर उठता आता है
शब के सन्नाटे में ये किस का लहू गाता है
सरहद-ए-दर्द से ये किस की सदा आती है