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Monday, 11 March 2019

प्यार का पहला खत लिखने में वक्त तो लगता है: हस्‍तीमल हस्‍ती, जन्‍मदिन आज

जिनकी गजल ‘प्यार का पहला खत लिखने में वक्त तो लगता है’ को जगजीत सिंह जैसे दिग्‍गज गायक ने अपनी आवाज दी, उन हस्तीमल ‘हस्ती’ का जन्‍म 11 मार्च 1946 को हुआ था।
हस्तीमल ‘हस्ती’ प्रेम गीतों के वो उम्दा गीतकार हैं, जिनकी गजलें धीरे से कानों में इश्क को इस कदर घोल देती हैं कि उनका असर लंबे समय तक रहता है।
हस्तीमल ‘हस्ती’ की कुछ अन्‍य चुनिंदा गजलें हैं-
ये मुमकिन है कि मिल जाएँ तेरी खोई हुई चीज़ें
क़रीने से सजा कर रखा ज़रा बिखरी हुई चीज़ें
कभी यूँ भी हुआ है हँसते हँसते तोड़ दी हमने
हमें मालूम था जुड़ती नहीं टूटी हुई चीज़ें
ज़माने के लिए जो हैं बड़ी नायाब और महँगी
हमारे दिल से सब की सब हैं वो उतरी हुई चीज़ें
दिखाती हैं हमें मजबूरियाँ ऐसे भी दिल अक्सर
उठानी पड़ती हैं फिर से हमें फेंकी हुई चीज़ें
किसी महफ़िल में जब इंसानियत का नाम आया है
हमें याद आ गई बाज़ार में बिकती हुई चीज़ें
बैठते जब हैं खिलौने वो बनाने के लिए
उनसे बन जाते हैं हथियार ये क़िस्सा क्या है
वो जो क़िस्से में था शामिल वही कहता है मुझे
मुझको मालूम नहीं यार ये क़िस्सा क्या है
तेरी बीनाई किसी दिन छीन लेगा देखना
देर तक रहना तिरा ये आइनों के दरमियाँ
शीशे के मुक़द्दर में बदल क्यूँ नहीं होता
इन पत्थरों की आँख में जल क्यूँ नहीं होता
क़ुदरत के उसूलों में बदल क्यूँ नहीं होता
जो आज हुआ है वही कल क्यूँ नहीं होता
हर झील में पानी है हर इक झील में लहरें
फिर सब के मुक़द्दर में कँवल क्यूँ नहीं होता
जब उस ने ही दुनिया का ये दीवान रचा है
हर आदमी प्यारी सी ग़ज़ल क्यूँ नहीं होता
हर बार न मिलने की क़सम खा के मिले हम
अपने ही इरादों पे अमल क्यूँ नहीं होता
हर गाँव में मुम्ताज़ जनम क्यूँ नहीं लेती
हर मोड़ पे इक ताज-महल क्यूँ नहीं होता

Thursday, 7 March 2019

आज अज्ञेय के जन्‍मदिन पर पढ़िए उनकी कविता- ''द्वार के आगे''

अज्ञेय ने गूढ़ कविताओं की रचना कर कविता में ‘दर्शन’ का रहस्य पैदा कर दिया। उनकी शब्द साधना ने हिंदी में कथा-साहित्य को एक महत्त्वपूर्ण मोड़ दिया। नई कविताओं में उनका योगदान काफी अहम है।
प्रसिद्ध साहित्यकार सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन “अज्ञेय” का जन्‍म 7 मार्च 1911 को उत्तर प्रदेश के देवरिया जिला अंतर्गत कुशीनगर में हुआ था।

द्वार के आगे
और द्वार: यह नहीं कि कुछ अवश्य
है उन के पार-किन्तु हर बार
मिलेगा आलोक, झरेगी रस-धार।
बोलना सदा सब के लिए और मीठा बोलना।
मेरे लिए कभी सहसा थम कर बात अपनी तोलना
और फिर मौन धार लेना।
जागना सभी के लिए सब को मान कर अपना
अविश्राम उन्हें देना रचना उदास, भव्य कल्पना।
मेरे लिए कभी एक छोटी-सी झपकी भर लेना-
सो जाना : देख लेना
तडिद्-बिम्ब सपना।
कौंध-भर उस के हो जाना।
यों मैं कवि हूँ, आधुनिक हूँ, नया हूँ:
काव्य-तत्त्व की खोज में कहाँ नहीं गया हूँ ?
चाहता हूँ आप मुझे
एक-एक शब्द पर सराहते हुए पढ़ें।
पर प्रतिमा–अरे, वह तो
जैसी आप को रुचे आप स्वयं गढ़ें।
शिशर ने पहन लिया वसन्त का दुकूल
गंध बह उड़ रहा पराग धूल झूले
काँटे का किरीट धारे बने देवदूत
पीत वसन दमक रहे तिरस्कृत बबूल
अरे! ऋतुराज आ गया।
एक चिकना मौन

एक चिकना मौन
जिस में मुखर-तपती वासनाएँ
दाह खोती
लीन होती हैं ।

उसी में रवहीन
तेरा
गूँजता है छंद :
ऋत विज्ञप्त होता है ।



एक काले घोल की-सी रात
जिस में रूप, प्रतिमा, मूर्त्तियाँ
सब पिघल जातीं
ओट पातीं
एक स्वप्नातीत, रूपातीत
पुनीत
गहरी नींद की ।

उसी में से तू
बढ़ा कर हाथ
सहसा खींच लेता-
गले मिलता है ।