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Sunday 9 December 2018

स्‍मृति शेष: नए लेखकों के लिए उत्प्रेरक थे कवि त्रिलोचन शास्त्री

उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले के कटघरा चिरानी पट्टी में जगरदेव सिंह के घर 20 अगस्त 1917 को जन्मे त्रिलोचन शास्त्री की मृत्‍यु 09 दिसंबर 2007 को गाजियाबाद में हुआ। त्रिलोचन शास्त्री का मूल नाम वासुदेव सिंह था। उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय से एम. ए. अंग्रेजी की एवं लाहौर से संस्कृत में शास्त्री की उपाधि प्राप्त की थी।
उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले के छोटे से गांव से बनारस विश्वविद्यालय तक अपने सफर में उन्होंने दर्जनों पुस्तकें लिखीं और हिंदी साहित्य को समृद्ध किया। शास्त्री बाजारवाद के धुर विरोधी थे। हालांकि उन्होंने हिंदी में प्रयोगधर्मिता का समर्थन किया। उनका कहना था, भाषा में जितने प्रयोग होंगे वह उतनी ही समृद्ध होगी। शास्त्री ने हमेशा ही नवसृजन को बढ़ावा दिया। वह नए लेखकों के लिए उत्प्रेरक थे। सागर के मुक्तिबोध स्रजन पीठ पर भी वे कुछ साल रहे।
त्रिलोचन शास्त्री हिंदी के अतिरिक्त अरबी और फारसी भाषाओं के निष्णात ज्ञाता माने जाते थे। पत्रकारिता के क्षेत्र में भी वे खासे सक्रिय रहे है। उन्होंने प्रभाकर, वानर, हंस, आज, समाज जैसी पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया।
त्रिलोचन शास्त्री 1995 से 2001 तक जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रहे। इसके अलावा वाराणसी के ज्ञानमंडल प्रकाशन संस्था में भी काम करते रहे और हिंदी व उर्दू के कई शब्दकोषों की योजना से भी जुडे़ रहे। उन्हें हिंदी सॉनेट का साधक माना जाता है। उन्होंने इस छंद को भारतीय परिवेश में ढाला और लगभग 550 सॉनेट की रचना की।
इसके अतिरिक्त कहानी, गीत, ग़ज़ल और आलोचना से भी उन्होंने हिंदी साहित्य को समृद्ध किया। उनका पहला कविता संग्रह धरती 1945 में प्रकाशित हुआ था। गुलाब और बुलबुल, उस जनपद का कवि हूं और ताप के ताए हुये दिन उनके चर्चित कविता संग्रह थे। दिगंत और धरती जैसी रचनाओं को कलमबद्ध करने वाले त्रिलोचन शास्त्री के 17 कविता संग्रह प्रकाशित हुए।
उनकी कुछ कविताएं यहां प्रस्‍तुत हैं:
सचमुच, इधर तुम्हारी याद तो नहीं आई
सचमुच, इधर तुम्हारी याद तो नहीं आई,
झूठ क्या कहूँ,
पूरे दिन मशीन पर खटना,
बासे पर आकर पड़ जाना
और कमाई का हिसाब जोड़ना,
बराबर चित्त उचटना।
इस उस पर मन दौड़ाना,
फिर उठकर रोटी करना,
कभी नमक से कभी साग से खाना
आरर डाल नौकरी है, यह बिलकुल खोटी है।
इसका कुछ ठीक नहीं है आना जाना।
आए दिन की बात है।
वहाँ टोटा टोटा छोड़ और क्या था।
किस दिन क्या बेचा-किना।
कमी अपार कमी का ही था अपना कोटा,
नित्य कुआँ खोदना तब कहीं पानी पीना।
धीरज धरो, आज कल करते तब आऊँगा,
जब देखूँगा अपने पुर कुछ कर पाऊँगा।
कठिन यात्रा
कभी सोचा मैंने, सिर पर बड़े भार धर के,
सधे पैरों यात्रा सबल पद से भी कठिन है,
यहाँ तो प्राणों का विचलन मुझे रोक रखता
रहा है, कोई क्यों इस पर करे मौन करुणा।
कला के अभ्यासी
कहेंगे जो वक्ता बन कर भले वे विकल हों,
कला के अभ्यासी क्षिति तल निवासी जगत के
किसी कोने में हों, समझ कर ही प्राण मन को,
करेंगे चर्चाएँ मिल कर स्मुत्सुक हॄदय से।
उस जनपद का कवि हूँ
उस जनपद का कवि हूँ जो भूखा दूखा है
नंगा है, अनजान है, कला नहीं जानता
कैसी होती है क्या है, वह नहीं मानता
कविता कुछ भी दे सकती है।
कब सूखा है उसके जीवन का सोता,
इतिहास ही बता सकता है।
वह उदासीन बिलकुल अपने से,
अपने समाज से है; दुनिया को सपने से
अलग नहीं मानता, उसे कुछ भी नहीं पता
दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँची; अब समाज में
वे विचार रह गये नही हैं जिन को ढोता
चला जा रहा है वह, अपने आँसू बोता
विफल मनोरथ होने पर अथवा अकाज में।
धरम कमाता है वह तुलसीकृत रामायण
सुन पढ़ कर, जपता है नारायण नारायण।
आत्मालोचन
शब्द
मालूम है
व्यर्थ नहीं जाते हैं
पहले मैं सोचता था
उत्तर यदि नहीं मिले
तो फिर क्या लिखा जाए
किन्तु मेरे अन्तर निवासी ने मुझसे कहा-
लिखा कर
तेरा आत्मविश्लेषण क्या जाने कभी तुझे
एक साथ सत्य शिव सुन्दर को दिखा जाए
अब मैं लिखा करता हूँ
अपने अन्तर की अनुभूति बिना रँगे चुने
कागज पर बस उतार देता हूँ ।
प्रस्‍तुति: अलकनंदा सिंह

Monday 26 November 2018

उर्दू अदब में बहुत बड़ा नाम है शीन काफ़ निज़ाम, आज इनके जन्‍मदिन पर पढ़िए उनकी गजलें

26 नवंबर 1947 को राजस्‍थान के जोधपुर में जन्‍मे शीन काफ़ निज़ाम का नाम उर्दू अदब में बहुत बड़ा है। उनका वास्तविक नाम शिव कुमार है जिसको वह उर्दू में शीन काफ़ लिखते हैं।
शिव किशन उर्दू में शीन काफ हो गए और उर्दू वालों को जिंदगी और इंसानियत की सलाहियत सिखा गए. निजाम साहब इस दौर के चुनिंदा शायरों में से हैं जो मंचीय हल्केपन से बचे रहे।
इनके द्वारा रचित प्रसिद्ध कविता संग्रह गुमशुदा दैर की गूंजती घंटियाँ के लिए इन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था|
पढ़िए शीन काफ़ निज़ाम की कुछ महत्‍वपूर्ण गजलें-
1.सफ़र में भी सहूलत चाहती है
मुहब्बत अब मुरव्वत चाहती है
तुम्हारा शौक है, ख्वाहिश भी होगी
मगर तखलीक हैरत चाहती है
तबीयत है कि ऐसे दौर में भी
बुजुर्गों जैसी बरकत चाहती है
ये कैसी नस्ल है अपने बड़ों से
बग़ावत की इजाजत चाहती है
बजा तुम ने लहू पानी किया है
मगर मिटटी मुहब्बत चाहती है
वरक खाली पड़े हैं रोजो-शब के
बजा-ए-दिल इबारत चाहती है
तसव्वुर के लिए ग़ालिब से हम तक
तबियत सिर्फ फुर्सत चाहती है
2. बात के कितने खरे थे पहले
किसको मालूम है कितने पहले
हम तो बचपन से सुना करते हैं
लोग ऐसे तो नहीं थे पहले
अब यहाँ हैं तो यहीं के हम हैं
क्या बताएँ कि कहाँ थे पहले
हम नहीं वैसे रहे, ये सच है
तुम भी ऐसे तो कहाँ थे पहले
इस तजबजुब में कटी उम्र तमाम
बात कीजे तो कहाँ थे पहले
बात वो समझें तो समझें कैसे
लोग पढ़ लेते हैं चेहरे पहले
मंजिलें उनको मिलें कैसे ‘निज़ाम’
पूछ लेते हैं जो रस्ते पहले
3. मैं इधर वो उधर अकेला है
हर कोई ख्वाब भर अकेला है
खोले किस किस दुआ को दरवाज़ा
उसके घर में असर अकेला है
हम कहीं भी रहें तुम्हारे हैं
वो इसी बात पर अकेला है
भीड़ में छोड़ कर गया क्यूँ था
क्या करूँ अब अगर अकेला है
ऐबजू सारे उसकी जानिब हैं
मेरे हक़ में हुनर अकेला है
कितने लोगों की भीड़ है लेकिन
राह तनहा सफ़र अकेला है
हो गई शाम मुझको जाने दो
मेरे कमरे में डर अकेला है।
प्रस्‍तुति: अलकनंदा सिंह

Thursday 22 November 2018

मेरठ बाेर्न पाकिस्तान की मशहूर शायरा फ़हमीदा रियाज़ का निधन

पाकिस्तान की मशहूर शायरा और मानवाधिकार कार्यकर्ता फ़हमीदा रियाज़
पाकिस्तान की मशहूर शायरा और मानवाधिकार कार्यकर्ता फ़हमीदा रियाज़ का लंबी बीमारी के बाद लाहौर में निधन हो गया है। एक दर्जन से ज्यादा किताबों की लेखिका रियाज़ का नाम साहित्य में एक ऊंचा दर्जा रखता है। उन्होंने अल्बेनियन लेखक इस्माइल कादरी और सूफ़ी संत रूमी की कविताओं को उर्दू में अनुवादित किया था।
फ़हमीदा का जन्म 28 जुलाई 1945 को उत्तर प्रदेश के मेरठ में हुआ था। चार साल की उम्र में ही पिता का साया खो देने के बाद उनका पालन-पोषण उनकी मां द्वारा किया गया।
बचपन से ही साहित्य में रुचि रखने वाली फ़हमीदा ने उर्दू, सिन्धी और फ़ारसी भाषाएं सीख लीं थीं। पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने रेडियो पाकिस्तान में न्यूज़कास्टर के रूप में काम किया। शादी के बाद वह कुछ वर्ष यू. के. में रहीं और तलाक़ के बाद पाकिस्तान लौट आयीं, उनकी दूसरी शादी ज़फ़र अली उजान से हुई।
फ़हमीदा ने अपना पब्लिकेशन ‘आवाज़’ के नाम से शुरू किया लेकिन उदारवादी होने के कारण उसे बंद कर दिया गया और ज़फ़र को जेल भेज दिया गया। अपने राजनीतिक विचारों के कारण फ़हमीदा पर 10 से ज़्यादा केस चलाए गए। तब अमृता प्रीतम ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से बात कर उनके लिए भारत में रहने की व्यवस्था करवाई।
पाकिस्तान लौटने से पहले फ़हमीदा और उनके परिवार ने लगभग 7 साल निर्वासन की स्थिति में भारत में बिताए। इस दौरान वह दिल्ली के जामिया विश्वविद्यालय में रहीं और उन्होंने हिन्दी पढ़ना सीखा।
72 साल की शायरा की निधन की ख़बर से साहित्य जगत में शोक व्याप्‍त है।
उनके कुछ मशहूर शेर
जो मुझ में छुपा मेरा गला घोंट रहा है
या वो कोई इबलीस है या मेरा ख़ुदा है
जो मेरे लब पे है शायद वही सदाक़त है
जो मेरे दिल में है उस हर्फ़-ए-राएगाँ पे न जा
ये किस के आँसुओं ने उस नक़्श को मिटाया
जो मेरे लौह-ए-दिल पर तू ने कभी बनाया
था दिल जब उस पे माइल था शौक़ सख़्त मुश्किल
तर्ग़ीब ने उसे भी आसान कर दिखाया

चार-सू है बड़ी वहशत का समाँ

चार-सू है बड़ी वहशत का समाँ 
किसी आसेब का साया है यहाँ 

कोई आवाज़ सी है मर्सियाँ-ख़्वाँ 
शहर का शहर बना गोरिस्ताँ 

एक मख़्लूक़ जो बस्ती है यहाँ 
जिस पे इंसाँ का गुज़रता है गुमाँ 

ख़ुद तो साकित है मिसाल-ए-तस्वीर 
जुम्बिश-ए-ग़ैर से है रक़्स-कुनाँ 

कोई चेहरा नहीं जुज़ ज़ेर-ए-नक़ाब 
न कोई जिस्म है जुज़ बे-दिल-ओ-जाँ 

उलमा हैं दुश्मन-ए-फ़हम-ओ-तहक़ीक़ 
कोदनी शेवा-ए-दानिश-मंदाँ 

शाइ'र-ए-क़ौम पे बन आई है 
किज़्ब कैसे हो तसव्वुफ़ में निहाँ 

लब हैं मसरूफ़-ए-क़सीदा-गोई 
और आँखों में है ज़िल्लत उर्यां 

सब्ज़ ख़त आक़िबत-ओ-दीं के असीर 
पारसा ख़ुश-तन-ओ-नौ-ख़ेज़ जवाँ 

ये ज़न-ए-नग़्मा-गर-ओ-इश्क़-शिआ'र 
यास-ओ-हसरत से हुई है हैराँ 

किस से अब आरज़ू-ए-वस्ल करें 
इस ख़राबे में कोई मर्द कहाँ .


कभी धनक सी उतरती थी उन निगाहों में

कभी धनक सी उतरती थी उन निगाहों में 
वो शोख़ रंग भी धीमे पड़े हवाओं में 

मैं तेज़-गाम चली जा रही थी उस की सम्त 
कशिश अजीब थी उस दश्त की सदाओं में 

वो इक सदा जो फ़रेब-ए-सदा से भी कम है 
न डूब जाए कहीं तुंद-रौ हवाओं में 

सुकूत-ए-शाम है और मैं हूँ गोश-बर-आवाज़ 
कि एक वा'दे का अफ़्सूँ सा है फ़ज़ाओं में 

मिरी तरह यूँही गुम-कर्दा-राह छोड़ेगी 
तुम अपनी बाँह न देना हवा की बाँहों में 

नुक़ूश पाँव के लिखते हैं मंज़िल-ए-ना-याफ़्त 
मिरा सफ़र तो है तहरीर मेरी राहों में.

ये पैरहन जो मिरी रूह का उतर न सका

ये पैरहन जो मिरी रूह का उतर न सका 
तो नख़-ब-नख़ कहीं पैवस्त रेशा-ए-दिल था 

मुझे मआल-ए-सफ़र का मलाल क्यूँ-कर हो 
कि जब सफ़र ही मिरा फ़ासलों का धोका था 

मैं जब फ़िराक़ की रातों में उस के साथ रही 
वो फिर विसाल के लम्हों में क्यूँ अकेला था 

वो वास्ते की तिरा दरमियाँ भी क्यूँ आए 
ख़ुदा के साथ मिरा जिस्म क्यूँ न हो तन्हा 

सराब हूँ मैं तिरी प्यास क्या बुझाऊँगी 
इस इश्तियाक़ से तिश्ना ज़बाँ क़रीब न ला 

सराब हूँ कि बदन की यही शहादत है 
हर एक उज़्व में बहता है रेत का दरिया 

जो मेरे लब पे है शायद वही सदाक़त है 
जो मेरे दिल में है उस हर्फ़-ए-राएगाँ पे न जा 

जिसे मैं तोड़ चुकी हूँ वो रौशनी का तिलिस्म 
शुआ-ए-नूर-ए-अज़ल के सिवा कुछ और न था.

प्रस्‍तुति:  अलकनंदा सिंह

Tuesday 23 October 2018

क्लासिक साहित्य को समर्पित Penguin का पुस्‍तक मेला एक नवंबर से


Penguin रैंडम हाउस इंडिया पुस्तक प्रेमियों के लिए एक नवंबर से एक मेले का आयोजन करने जा रहा है. एक महीने तक चलने वाला यह मेला पूरी तरह प्रकाशन घर के क्लासिक साहित्य को समर्पित होगा.
‘द Penguin क्लासिक्स फेस्टिवल : देयर इज वन फार एवरीवन’ का आयोजन पूरे देश के पांच शहरों में आयोजित किया जाएगा.
राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के अलावा, इसका आयोजन मुंबई, कोलकाता, चेन्नई और बेंगलुरू में आयोजित किया जाएगा. पुस्तक पाठकों के लिए इसमें पेंगुईन क्लासिक्स, Penguin मॉडर्न क्लासिक्स, विंटेज क्लासिक्स, एवरीमैन लाइब्रेरी, बैंटमैन क्लासिक्स के अलावा मूर्ति क्लासिकल लाइब्रेरी आफ इंडिया की पुस्तकें होंगी. इसमें पुफिन क्लासिक्स और विंटेज चिल्ड्रेन क्लासिक्स की पुस्तकें भी होंगी. इसका आयोजन करने के लिए पेंगुईन ने पांचों शहरों में प्रख्यात और लोकप्रिय बुकस्टोर्स के साथ अनुबंध किया है.
मुंबई और बेंगलुरू में प्रख्यात बुकस्टोर्स क्रमश: किताब खाना और ब्लासम्स बुकस्टोर्स इसका आयोजन करेंगे. कोलकाता और चेन्नई में पुस्तक प्रेमी स्टारमार्क बुकस्टोर्स की ओर से आयोजित मेले का हिस्सा बन सकते हैं. स्टारमार्क दोनों ही क्षेत्रों में बुकस्टोर की एक प्रमुख शृंखला है . प्रकाशनघर ने बयान जारी कर बताया कि सभी स्टोर में पुस्तकों की प्रभावशाली एवं दुर्लभ पुस्तकें होंगी जो इससे पहले पाठकों को कभी उपलब्ध नहीं थी. इन पुस्तकों की बिक्री के लिए विशेष अभियान भी चलायेंगे.’ पेंगुइन क्लासिक्स के क्रियेटिव निदेशक हेनरी इलियट भी इसमें हिस्सा लेंगे.

Friday 12 October 2018

कथाकार रामधारी सिंह दिवाकर को वर्ष 2018 का श्रीलाल शुक्ल स्मृति साहित्य सम्मान

वरिष्ठ कथाकार रामधारी सिंह दिवाकर को वर्ष 2018 का श्रीलाल शुक्ल स्मृति साहित्य award दिये जाने की घोषणा की गयी है. 
रामधारी सिंह दिवाकर की इन कहानियों में गाँव का जटिल यथार्थ आद्यंत उपलब्ध है। गाँवों की सम्यक् तस्वीर का आधुनिक रूप जो विकास और पिछड़ेपन के संयुक्त द्वंद्वों से उत्पन्न होता है, वही यहाँ चित्रित हुआ है। आर्थिक आधार के मूल में रक्त-संबंधों के बीच गहरे दबावों का वैसा प्रभावपूर्ण चित्रण भी दिवाकर के समकालीन अन्य कहानीकारों में प्रायः नहीं मिलता है। 
गौरतलब है कि उर्वरक क्षेत्र की अग्रणी सहकारी संस्था इंडियन फारमर्स फर्टिलाइजर कॉपरेटिव लिमिटेड (इफको) साहित्य और संस्कृति के प्रचार-प्रसार के उद्देश्य से प्रत्येक वर्ष एक हिंदी साहित्यकार को यह award देती है.
रामधारी सिंह दिनकर का चयन उनके व्यापक साहित्यिक अवदानों को ध्यान में रखकर किया गया है. पुरस्कार चयन समिति की अध्यक्षता डीपी त्रिपाठी ने की. इस समिति में मृदुला गर्ग, राजेंद्र कुमार, मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, इब्बार रब्बी और दिनेश शुक्ल शामिल थे.
कथाकार रामधारी सिंह दिवाकर बिहार के अररिया जिले के नरपतगंज गांव के रहने वाले हैं. वे मिथिला विश्वविद्यालय में प्रोफेसर थे और वहीं से रिटायर हुए. वे बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के निदेशक भी रहे हैं.
रामधारी सिंह दिवाकर को ये सम्मान 31 जनवरी 2019 को दिल्ली में एक कार्यक्रम के दौरान दिया जाएगा जिसमें  एक प्रतीक चिह्न, प्रशस्तिपत्र के साथ ग्यारह लाख रुपये की राशि का चेक दिया जाएगा.
रामधारी सिंह दिवाकर का नाम हिंदी साहित्य में उनके व्यापक योगदान को ध्यान में रखते हुए डी पी त्रिपाठी की अध्यक्षता वाली चयन समिति ने चुना है जिसमें मृदुला गर्ग, राजेन्द्र कुमार, मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, इब्बार रब्बी और दिनेश कुमार शुक्ल भी शामिल थे.
रामधारी सिंह दिवाकर का नाम श्रीलाल शुक्ल स्मृति इफको साहित्य सम्मान के लिए चुने जाने पर इफ्को के प्रबंध निदेशक डॉ. उदय शंकर अवस्थी ने कहा कि ‘खेती–किसानी को अपनी रचना का आधार बनाने वाले कथाकार श्री रामधारी सिंह दिवाकर का सम्मान देश के किसानों का सम्मान है.’
बिहार के अररिया जिले के नरपतगंज गाँव के एक निम्न मध्यवर्गीय किसान परिवार में जन्मे रामधारी सिंह दिवाकर मिथिला विश्वविद्यालय, दरभंगा के हिन्दी विभाग के प्रोफेसर पद से रिटायर हुए हैं. रामधारी सिंह दिवाकर की कई कहानियां अलग-अलग भाषाओं में प्रकाशित हुई है. उनकी अलग-अलग कई रचनाएं जिनमें नये गाँव में, अलग-अलग अपरिचय, बीच से टूटा हुआ, नया घर चढ़े, सरहद के पार, धरातल, माटी-पानी, मखान पोखर, वर्णाश्रम, झूठी कहानी का सच (कहानी-संग्रह) और क्या घर क्या परदेस, काली सुबह का सूरज, पंचमी तत्पुरुष, दाख़िल–ख़ारिज, टूटते दायरे, अकाल संध्या (उपन्यास); मरगंगा में दूब (आलोचना) प्रमुख हैं.
प्रस्‍तुति: अलकनंदा सिंह

Tuesday 25 September 2018

कन्हैयालाल नंदन की पांच कविता, आज नंदन जी की पुण्‍यतिथि है

प्रसिद्ध पत्रकार और साहित्यकार कन्हैयालाल नंदन का जन्म 1 जुलाई 1933 को यूपी के फतेहपुर में हुआ था। उनका निधन दिल्‍ली के रॉकलैंड अस्पताल में 25 सितम्बर 2010 को हुआ। पद्म श्री, भारतेंदु पुरस्कार, अज्ञेय पुरस्कार तथा रामकृष्ण जयदयाल सद्भावना पुरस्कार प्राप्‍त नंदन का जन्म उत्तरप्रदेश के फतेहपुर जिले में एक जुलाई 1933 को हुआ था। डीएवी कानपुर से स्नातक करने के बाद उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर किया और भावनगर विश्वविद्यालय से पीएचडी की। पत्रकारिता में आने से पहले नंदन ने कुछ समय तक मुम्बई के महाविद्यालयों ने अध्यापन कार्य किया।
वह वर्ष 1961 से 1972 तक धर्मयुग में सहायक संपादक रहे। इसके बाद उन्होंने टाइम्स ऑफ इडिया की पत्रिकाओं पराग, सारिका और दिनमान में संपादक का कार्यभार संभाला। वह नवभारत टाइम्स में फीचर संपादक भी रहे। नंदन की कविताओं में जीवन का समग्र दृष्टिकोण देखने को मिलता है। लुकुआ का शाहनामा, घाट-घाट का पानी, अंतरंग नाट्य परिवेश, आग के रंग, अमृता शेरगिल, समय की दहलीज, बंजर धरती पर इंद्रधनुष, गुज़रा कहां कहां से आदि इनकी मुख्य रचनाएं हैं।
नदी की कहानी
नदी की कहानी कभी फिर सुनाना,
मैं प्यासा हूँ दो घूँट पानी पिलाना।
मुझे वो मिलेगा ये मुझ को यकीं है
बड़ा जानलेवा है ये दरमियाना
मुहब्बत का अंजाम हरदम यही था
भँवर देखना कूदना डूब जाना।
अभी मुझ से फिर आप से फिर किसी से
मियाँ ये मुहब्बत है या कारखाना।
ये तन्हाईयाँ, याद भी, चांदनी भी,
गज़ब का वज़न है सम्भल के उठाना।
सूरज की पेशी
आँखों में रंगीन नज़ारे
सपने बड़े-बड़े
भरी धार लगता है जैसे
बालू बीच खड़े।
बहके हुए समंदर
मन के ज्वार निकाल रहे
दरकी हुई शिलाओं में
खारापन डाल रहे
मूल्य पड़े हैं बिखरे जैसे
शीशे के टुकड़े!
नजरों के ओछेपन
जब इतिहास रचाते हैं
पिटे हुए मोहरे
पन्ना-पन्ना भर जाते हैं
बैठाए जाते हैं
सच्चों पर पहरे तगड़े।
अंधकार की पंचायत में
सूरज की पेशी
किरणें ऐसे करें गवाही
जैसे परदेसी
सरेआम नीलाम रोशनी
ऊँचे भाव चढ़े।
आँखों में रंगीन नज़ारे
सपने बड़े-बड़े
भरी धार लगता है जैसे
बालू बीच खड़े।
मुहब्बत का घर
तेरा जहान बड़ा है,तमाम होगी जगह
उसी में थोड़ी जगह मेरी मुकर्रर कर दे
मैं ईंट गारे वाले घर का तलबगार नहीं
तू मेरे नाम मुहब्बत का एक घर कर दे।
मैं ग़म को जी के निकल आया,बच गयीं खुशियाँ
उन्हें जीने का सलीका मेरी नज़र कर दे।
मैं कोई बात तो कह लूँ कभी करीने से
खुदारा! मेरे मुकद्दर में वो हुनर कर दे!
अपनी महफिल से यूँ न टालो मुझे
मैं तुम्हारा हूँ तुम तो सँभालो मुझे।
जिंदगी! सब तुम्हारे भरम जी लिये
हो सके तो भरम से निकालो मुझे।
मोतियों के सिवा कुछ नहीं पाओगे
जितना जी चाहो उतना खँगालो मुझे।
मैं तो एहसास की एक कंदील हूँ
जब जी चाहो जला लो ,बुझा लो मुझे।
जिस्म तो ख्वाब है,कल को मिट जायेगा,
रूह कहने लगी है,बचा लो मुझे।
फूल बनकर खिलूँगा बिखर जाऊँगा
खुशबुओं की तरह से बसा लो मुझे।
दिल से गहरा न कोई समंदर मिला
देखना हो तो अपना बना लो मुझे।
बोगनबेलिया
ओ पिया
आग लगाए बोगनबेलिया!
पूनम के आसमान में
बादल छाया,
मन का जैसे
सारा दर्द छितराया,
सिहर-सिहर उठता है
जिया मेरा,
ओ पिया!
लहरों के दीपों में
काँप रही यादें
मन करता है
कि
तुम्हें
सब कुछ
बतला दें –
आकुल
हर क्षण को
कैसे जिया,
ओ पिया!
पछुआ की साँसों में
गंध के झकोरे
वर्जित मन लौट गए
कोरे के कोरे
आशा का
थरथरा उठा दिया!
ओ पिया!
चौंको मत मेरे दोस्त
चौंको मत मेरे दोस्त
अब जमीन किसी का इंतजार नहीं करती।
पांच साल का रहा होऊँगा मैं,
जब मैंने चलती हुई रेलगाड़ी पर से
ज़मीन को दूर-दूर तक कई रफ्तारों में सरकते हुये देखकर
अपने जवान पिता से सवाल किया था
कि पिताजी पेड़ पीछे क्यों भाग रहे हैं?
हमारे साथ क्यों नहीं चलते?
जवाब में मैंने देखा था कि
मेरे पिताजी की आँखें चमकी थीं।
और वे मुस्करा कर बोले थे,बेटा!
पेड़ अपनी जमीन नहीं छोड़ते।
और तब मेरे बालमन में एक दूसरा सवाल उछला था
कि पेड़ ज़मीन को नहीं छोड़ते
या ज़मीन उन्हें नहीं छोड़ती?
सवाल बस सवाल बना रह गया था,
और मैं जवाब पाये बगैर
खिड़की से बाहर
तार के खंभों को पास आते और सर्र से पीछे
सरक जाते देखने में डूब गया था।
तब शायद यह पता नहीं था
कि पेड़ पीछे भले छूट जायेंगे
सवाल से पीछा नहीं छूट पायेगा।
हर नयी यात्रा में अपने को दुहरायेग।
बूढ़े होते होते मेरे पिता ने
एक बार,
मुझसे और कहा था कि
बेटा ,मैंने अपने जीवन भर
अपनी ज़मीन नहीं छोड़ी
हो सके तो तुम भी न छोड़ना।
और इस बार चमक मेरी आँखों में थी
जिसे मेरे पिता ने देखा था।
रफ्तार की उस पहली साक्षी से लेकर
इन पचास सालों के बीच की यात्राओं में
मैंने हजा़रों किलोमीटर ज़मीन अपने पैरों
के नीचे से सरकते देखी है।
हवा-पानी के रास्तों से चलते दूर,
ज़मीन का दामन थामकर दौड़ते हुए भी
अपनी यात्रा के हर पड़ाव पर नयी ज़मीन से ही पड़ा है पाला
ज़मीन जिसे अपनी कह सकें,
उसने कोई रास्ता नहीं निकाला।
कैसे कहूँ कि
विरसे में मैंने यात्राएँ ही पाया है
और पिता का वचन जब-जब मुझे याद आया है
मैंने अपनी जमीन के मोह में सहा है
वापसी यात्राओं का दर्द।
और देखा
कि अपनी बाँह पर
लिखा हुआ अपना नाम अजनबी की तरह
मुझे घूरने लगा,
अपनी ही नसों का खून
मुझे ही शक्ति से देने से इंकार करने लगा।
तब पाया
कि निर्रथक गयीं वे सारी यात्राएँ।
अनेक बार बिखरे हैं ज़मीन से जुड़े रहने के सपने
और जब भी वहाँ से लौटा हूँ,
हाथों में अपना चूरा बटोर कर लौटा हूँ!
सुनकर चौंको मत मेरे दोस्त!
अब ज़मीन किसी का इंतज़ार नहीं करती।
खुद बखुद खिसक जाने के इंतज़ार में रहती है
ज़मीन की इयत्ता अब इसी में सिमट गयी है
कि कैसे वह
पैरों के नीचे से खिसके
ज़मीन अब टिकाऊ नहीं
बिकाऊ हो गयी है!
टिकाऊ रह गयी है
ज़मीन से जुड़ने की टीस
टिकाऊ रह गयी हैं
केवल यात्राएँ…
यात्राएँ…
और यात्राएँ…!
प्रस्‍तुति: अलकनंदा सिंह/Legend News

Tuesday 18 September 2018

काका हाथरसी के आज जन्‍मदिन पर उनके द्वारा लिखी गई रचना ‘दहेज की बारात’

काका हाथरसी के नाम से मशहूर हिंदी के हास्य कवि प्रभुलाल गर्ग का जन्‍म 1906 में हुआ था। उनकी शैली की छाप उनकी पीढ़ी के अन्य कवियों पर तो पड़ी ही, आज भी अनेक लेखक और व्यंग्य कवि काका की रचनाओं की शैली अपनाकर लाखों श्रोताओं और पाठकों का मनोरंजन कर रहे हैं।
काका हाथरसी की पैनी नज़र छोटी से छोटी अव्यवस्थाओं को भी पकड़ लेती थी और बहुत ही गहरे कटाक्ष के साथ प्रस्तुत करती थी।
प्रस्‍तुत है काका हाथरसी के जन्‍मदिन पर उनकी ब्रज भाषा में लिखी रचना ‘दहेज की बारात’-
जा दिन एक बारात को मिल्यौ निमंत्रण-पत्र
फूले-फूले हम फिरें, यत्र-तत्र-सर्वत्र
यत्र-तत्र-सर्वत्र, फरकती बोटी-बोटी
बा दिन अच्छी नाहिं लगी अपने घर रोटी
कहँ ‘काका’ कविराय, लार म्हौंड़े सों टपके
कर लड़ुअन की याद, जीभ स्याँपन सी लपके
मारग में जब है गई अपनी मोटर फ़ेल
दौरे स्टेशन, लई तीन बजे की रेल
तीन बजे की रेल, मच रही धक्कम-धक्का
द्वै मोटे गिर परे, पिच गये पतरे कक्का
कहँ ‘काका’ कविराय, पटक दूल्हा ने खाई
पंडितजू रह गये, चढ़ि गयौ ननुआ नाई
नीचे को करि थूथरौ, ऊपर को करि पीठ
मुर्गा बनि बैठे हमहुँ, मिली न कोऊ सीट
मिली न कोऊ सीट, भीर में बनिगौ भुरता
फारि लै गयौ कोउ हमारो आधौ कुर्ता
कहँ ‘काका’ कविराय, परिस्थिति विकट हमारी
पंडितजी रहि गये, उन्हीं पे ‘टिकस’ हमारी
फक्क-फक्क गाड़ी चलै, धक्क-धक्क जिय होय
एक पन्हैया रह गई, एक गई कहुँ खोय
एक गई कहुँ खोय, तबहिं घुस आयौ टी-टी
मांगन लाग्यौ टिकस, रेल ने मारी सीटी
कहँ ‘काका’, समझायौ पर नहिं मान्यौ भैया
छीन लै गयौ, तेरह आना तीन रुपैया
जनमासे में मच रह्यौ, ठंडाई को सोर
मिर्च और सक्कर दई, सपरेटा में घोर
सपरेटा में घोर, बराती करते हुल्लड़
स्वादि-स्वादि में खेंचि गये हम बारह कुल्हड़
कहँ ‘काका’ कविराय, पेट हो गयौ नगाड़ौ
निकरौसी के समय हमें चढ़ि आयौ जाड़ौ
बेटावारे ने कही, यही हमारी टेक
दरबज्जे पे ले लऊँ नगद पाँच सौ एक
नगद पाँच सौ एक, परेंगी तब ही भाँवर
दूल्हा करिदौ बंद, दई भीतर सौं साँकर
कहँ ‘काका’ कवि, समधी डोलें रूसे-रूसे
अर्धरात्रि है गई, पेट में कूदें मूसे
बेटीवारे ने बहुत जोरे उनके हाथ
पर बेटा के बाप ने सुनी न कोऊ बात
सुनी न कोऊ बात, बराती डोलें भूखे
पूरी-लड़ुआ छोड़, चना हू मिले न सूखे
कहँ ‘काका’ कविराय, जान आफत में आई
जम की भैन बरात, कहावत ठीक बनाई
समधी-समधी लड़ि परै, तै न भई कछु बात
चलै घरात-बरात में थप्पड़- घूँसा-लात
थप्पड़- घूँसा-लात, तमासौ देखें नारी
देख जंग को दृश्य, कँपकँपी बँधी हमारी
कहँ ‘काका’ कवि, बाँध बिस्तरा भाजे घर को
पीछे सब चल दिये, संग में लैकें वर को
मार भातई पै परी, बनिगौ वाको भात
बिना बहू के गाम कों, आई लौट बरात
आई लौट बरात, परि गयौ फंदा भारी
दरबज्जै पै खड़ीं, बरातिन की घरवारीं
कहँ काकी ललकार, लौटकें वापिस जाऔ
बिना बहू के घर में कोऊ घुसन न पाऔ
हाथ जोरि माँगी क्षमा, नीची करकें मोंछ
काकी ने पुचकारिकें, आँसू दीन्हें पोंछ
आँसू दीन्हें पोंछ, कसम बाबा की खाई
जब तक जीऊँ, बरात न जाऊँ रामदुहाई
कहँ ‘काका’ कविराय, अरे वो बेटावारे
अब तो दै दै, टी-टी वारे दाम हमारे