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Tuesday, 25 September 2018

कन्हैयालाल नंदन की पांच कविता, आज नंदन जी की पुण्‍यतिथि है

प्रसिद्ध पत्रकार और साहित्यकार कन्हैयालाल नंदन का जन्म 1 जुलाई 1933 को यूपी के फतेहपुर में हुआ था। उनका निधन दिल्‍ली के रॉकलैंड अस्पताल में 25 सितम्बर 2010 को हुआ। पद्म श्री, भारतेंदु पुरस्कार, अज्ञेय पुरस्कार तथा रामकृष्ण जयदयाल सद्भावना पुरस्कार प्राप्‍त नंदन का जन्म उत्तरप्रदेश के फतेहपुर जिले में एक जुलाई 1933 को हुआ था। डीएवी कानपुर से स्नातक करने के बाद उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर किया और भावनगर विश्वविद्यालय से पीएचडी की। पत्रकारिता में आने से पहले नंदन ने कुछ समय तक मुम्बई के महाविद्यालयों ने अध्यापन कार्य किया।
वह वर्ष 1961 से 1972 तक धर्मयुग में सहायक संपादक रहे। इसके बाद उन्होंने टाइम्स ऑफ इडिया की पत्रिकाओं पराग, सारिका और दिनमान में संपादक का कार्यभार संभाला। वह नवभारत टाइम्स में फीचर संपादक भी रहे। नंदन की कविताओं में जीवन का समग्र दृष्टिकोण देखने को मिलता है। लुकुआ का शाहनामा, घाट-घाट का पानी, अंतरंग नाट्य परिवेश, आग के रंग, अमृता शेरगिल, समय की दहलीज, बंजर धरती पर इंद्रधनुष, गुज़रा कहां कहां से आदि इनकी मुख्य रचनाएं हैं।
नदी की कहानी
नदी की कहानी कभी फिर सुनाना,
मैं प्यासा हूँ दो घूँट पानी पिलाना।
मुझे वो मिलेगा ये मुझ को यकीं है
बड़ा जानलेवा है ये दरमियाना
मुहब्बत का अंजाम हरदम यही था
भँवर देखना कूदना डूब जाना।
अभी मुझ से फिर आप से फिर किसी से
मियाँ ये मुहब्बत है या कारखाना।
ये तन्हाईयाँ, याद भी, चांदनी भी,
गज़ब का वज़न है सम्भल के उठाना।
सूरज की पेशी
आँखों में रंगीन नज़ारे
सपने बड़े-बड़े
भरी धार लगता है जैसे
बालू बीच खड़े।
बहके हुए समंदर
मन के ज्वार निकाल रहे
दरकी हुई शिलाओं में
खारापन डाल रहे
मूल्य पड़े हैं बिखरे जैसे
शीशे के टुकड़े!
नजरों के ओछेपन
जब इतिहास रचाते हैं
पिटे हुए मोहरे
पन्ना-पन्ना भर जाते हैं
बैठाए जाते हैं
सच्चों पर पहरे तगड़े।
अंधकार की पंचायत में
सूरज की पेशी
किरणें ऐसे करें गवाही
जैसे परदेसी
सरेआम नीलाम रोशनी
ऊँचे भाव चढ़े।
आँखों में रंगीन नज़ारे
सपने बड़े-बड़े
भरी धार लगता है जैसे
बालू बीच खड़े।
मुहब्बत का घर
तेरा जहान बड़ा है,तमाम होगी जगह
उसी में थोड़ी जगह मेरी मुकर्रर कर दे
मैं ईंट गारे वाले घर का तलबगार नहीं
तू मेरे नाम मुहब्बत का एक घर कर दे।
मैं ग़म को जी के निकल आया,बच गयीं खुशियाँ
उन्हें जीने का सलीका मेरी नज़र कर दे।
मैं कोई बात तो कह लूँ कभी करीने से
खुदारा! मेरे मुकद्दर में वो हुनर कर दे!
अपनी महफिल से यूँ न टालो मुझे
मैं तुम्हारा हूँ तुम तो सँभालो मुझे।
जिंदगी! सब तुम्हारे भरम जी लिये
हो सके तो भरम से निकालो मुझे।
मोतियों के सिवा कुछ नहीं पाओगे
जितना जी चाहो उतना खँगालो मुझे।
मैं तो एहसास की एक कंदील हूँ
जब जी चाहो जला लो ,बुझा लो मुझे।
जिस्म तो ख्वाब है,कल को मिट जायेगा,
रूह कहने लगी है,बचा लो मुझे।
फूल बनकर खिलूँगा बिखर जाऊँगा
खुशबुओं की तरह से बसा लो मुझे।
दिल से गहरा न कोई समंदर मिला
देखना हो तो अपना बना लो मुझे।
बोगनबेलिया
ओ पिया
आग लगाए बोगनबेलिया!
पूनम के आसमान में
बादल छाया,
मन का जैसे
सारा दर्द छितराया,
सिहर-सिहर उठता है
जिया मेरा,
ओ पिया!
लहरों के दीपों में
काँप रही यादें
मन करता है
कि
तुम्हें
सब कुछ
बतला दें –
आकुल
हर क्षण को
कैसे जिया,
ओ पिया!
पछुआ की साँसों में
गंध के झकोरे
वर्जित मन लौट गए
कोरे के कोरे
आशा का
थरथरा उठा दिया!
ओ पिया!
चौंको मत मेरे दोस्त
चौंको मत मेरे दोस्त
अब जमीन किसी का इंतजार नहीं करती।
पांच साल का रहा होऊँगा मैं,
जब मैंने चलती हुई रेलगाड़ी पर से
ज़मीन को दूर-दूर तक कई रफ्तारों में सरकते हुये देखकर
अपने जवान पिता से सवाल किया था
कि पिताजी पेड़ पीछे क्यों भाग रहे हैं?
हमारे साथ क्यों नहीं चलते?
जवाब में मैंने देखा था कि
मेरे पिताजी की आँखें चमकी थीं।
और वे मुस्करा कर बोले थे,बेटा!
पेड़ अपनी जमीन नहीं छोड़ते।
और तब मेरे बालमन में एक दूसरा सवाल उछला था
कि पेड़ ज़मीन को नहीं छोड़ते
या ज़मीन उन्हें नहीं छोड़ती?
सवाल बस सवाल बना रह गया था,
और मैं जवाब पाये बगैर
खिड़की से बाहर
तार के खंभों को पास आते और सर्र से पीछे
सरक जाते देखने में डूब गया था।
तब शायद यह पता नहीं था
कि पेड़ पीछे भले छूट जायेंगे
सवाल से पीछा नहीं छूट पायेगा।
हर नयी यात्रा में अपने को दुहरायेग।
बूढ़े होते होते मेरे पिता ने
एक बार,
मुझसे और कहा था कि
बेटा ,मैंने अपने जीवन भर
अपनी ज़मीन नहीं छोड़ी
हो सके तो तुम भी न छोड़ना।
और इस बार चमक मेरी आँखों में थी
जिसे मेरे पिता ने देखा था।
रफ्तार की उस पहली साक्षी से लेकर
इन पचास सालों के बीच की यात्राओं में
मैंने हजा़रों किलोमीटर ज़मीन अपने पैरों
के नीचे से सरकते देखी है।
हवा-पानी के रास्तों से चलते दूर,
ज़मीन का दामन थामकर दौड़ते हुए भी
अपनी यात्रा के हर पड़ाव पर नयी ज़मीन से ही पड़ा है पाला
ज़मीन जिसे अपनी कह सकें,
उसने कोई रास्ता नहीं निकाला।
कैसे कहूँ कि
विरसे में मैंने यात्राएँ ही पाया है
और पिता का वचन जब-जब मुझे याद आया है
मैंने अपनी जमीन के मोह में सहा है
वापसी यात्राओं का दर्द।
और देखा
कि अपनी बाँह पर
लिखा हुआ अपना नाम अजनबी की तरह
मुझे घूरने लगा,
अपनी ही नसों का खून
मुझे ही शक्ति से देने से इंकार करने लगा।
तब पाया
कि निर्रथक गयीं वे सारी यात्राएँ।
अनेक बार बिखरे हैं ज़मीन से जुड़े रहने के सपने
और जब भी वहाँ से लौटा हूँ,
हाथों में अपना चूरा बटोर कर लौटा हूँ!
सुनकर चौंको मत मेरे दोस्त!
अब ज़मीन किसी का इंतज़ार नहीं करती।
खुद बखुद खिसक जाने के इंतज़ार में रहती है
ज़मीन की इयत्ता अब इसी में सिमट गयी है
कि कैसे वह
पैरों के नीचे से खिसके
ज़मीन अब टिकाऊ नहीं
बिकाऊ हो गयी है!
टिकाऊ रह गयी है
ज़मीन से जुड़ने की टीस
टिकाऊ रह गयी हैं
केवल यात्राएँ…
यात्राएँ…
और यात्राएँ…!
प्रस्‍तुति: अलकनंदा सिंह/Legend News

Tuesday, 18 September 2018

काका हाथरसी के आज जन्‍मदिन पर उनके द्वारा लिखी गई रचना ‘दहेज की बारात’

काका हाथरसी के नाम से मशहूर हिंदी के हास्य कवि प्रभुलाल गर्ग का जन्‍म 1906 में हुआ था। उनकी शैली की छाप उनकी पीढ़ी के अन्य कवियों पर तो पड़ी ही, आज भी अनेक लेखक और व्यंग्य कवि काका की रचनाओं की शैली अपनाकर लाखों श्रोताओं और पाठकों का मनोरंजन कर रहे हैं।
काका हाथरसी की पैनी नज़र छोटी से छोटी अव्यवस्थाओं को भी पकड़ लेती थी और बहुत ही गहरे कटाक्ष के साथ प्रस्तुत करती थी।
प्रस्‍तुत है काका हाथरसी के जन्‍मदिन पर उनकी ब्रज भाषा में लिखी रचना ‘दहेज की बारात’-
जा दिन एक बारात को मिल्यौ निमंत्रण-पत्र
फूले-फूले हम फिरें, यत्र-तत्र-सर्वत्र
यत्र-तत्र-सर्वत्र, फरकती बोटी-बोटी
बा दिन अच्छी नाहिं लगी अपने घर रोटी
कहँ ‘काका’ कविराय, लार म्हौंड़े सों टपके
कर लड़ुअन की याद, जीभ स्याँपन सी लपके
मारग में जब है गई अपनी मोटर फ़ेल
दौरे स्टेशन, लई तीन बजे की रेल
तीन बजे की रेल, मच रही धक्कम-धक्का
द्वै मोटे गिर परे, पिच गये पतरे कक्का
कहँ ‘काका’ कविराय, पटक दूल्हा ने खाई
पंडितजू रह गये, चढ़ि गयौ ननुआ नाई
नीचे को करि थूथरौ, ऊपर को करि पीठ
मुर्गा बनि बैठे हमहुँ, मिली न कोऊ सीट
मिली न कोऊ सीट, भीर में बनिगौ भुरता
फारि लै गयौ कोउ हमारो आधौ कुर्ता
कहँ ‘काका’ कविराय, परिस्थिति विकट हमारी
पंडितजी रहि गये, उन्हीं पे ‘टिकस’ हमारी
फक्क-फक्क गाड़ी चलै, धक्क-धक्क जिय होय
एक पन्हैया रह गई, एक गई कहुँ खोय
एक गई कहुँ खोय, तबहिं घुस आयौ टी-टी
मांगन लाग्यौ टिकस, रेल ने मारी सीटी
कहँ ‘काका’, समझायौ पर नहिं मान्यौ भैया
छीन लै गयौ, तेरह आना तीन रुपैया
जनमासे में मच रह्यौ, ठंडाई को सोर
मिर्च और सक्कर दई, सपरेटा में घोर
सपरेटा में घोर, बराती करते हुल्लड़
स्वादि-स्वादि में खेंचि गये हम बारह कुल्हड़
कहँ ‘काका’ कविराय, पेट हो गयौ नगाड़ौ
निकरौसी के समय हमें चढ़ि आयौ जाड़ौ
बेटावारे ने कही, यही हमारी टेक
दरबज्जे पे ले लऊँ नगद पाँच सौ एक
नगद पाँच सौ एक, परेंगी तब ही भाँवर
दूल्हा करिदौ बंद, दई भीतर सौं साँकर
कहँ ‘काका’ कवि, समधी डोलें रूसे-रूसे
अर्धरात्रि है गई, पेट में कूदें मूसे
बेटीवारे ने बहुत जोरे उनके हाथ
पर बेटा के बाप ने सुनी न कोऊ बात
सुनी न कोऊ बात, बराती डोलें भूखे
पूरी-लड़ुआ छोड़, चना हू मिले न सूखे
कहँ ‘काका’ कविराय, जान आफत में आई
जम की भैन बरात, कहावत ठीक बनाई
समधी-समधी लड़ि परै, तै न भई कछु बात
चलै घरात-बरात में थप्पड़- घूँसा-लात
थप्पड़- घूँसा-लात, तमासौ देखें नारी
देख जंग को दृश्य, कँपकँपी बँधी हमारी
कहँ ‘काका’ कवि, बाँध बिस्तरा भाजे घर को
पीछे सब चल दिये, संग में लैकें वर को
मार भातई पै परी, बनिगौ वाको भात
बिना बहू के गाम कों, आई लौट बरात
आई लौट बरात, परि गयौ फंदा भारी
दरबज्जै पै खड़ीं, बरातिन की घरवारीं
कहँ काकी ललकार, लौटकें वापिस जाऔ
बिना बहू के घर में कोऊ घुसन न पाऔ
हाथ जोरि माँगी क्षमा, नीची करकें मोंछ
काकी ने पुचकारिकें, आँसू दीन्हें पोंछ
आँसू दीन्हें पोंछ, कसम बाबा की खाई
जब तक जीऊँ, बरात न जाऊँ रामदुहाई
कहँ ‘काका’ कविराय, अरे वो बेटावारे
अब तो दै दै, टी-टी वारे दाम हमारे