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Thursday, 28 December 2017

आज सुमित्रानंदन पंत की पुण्‍यतिथि है इस अवसर पर उनकी कुछ कविताएँ

आज सुमित्रानंदन पंत की पुण्‍यतिथि है इस अवसर पर उनकी कुछ कविताएँ 

सुमित्रानंदन पंत (२० मई १९०० - २८ दिसम्बर १९७७)  हिंदी साहित्य में छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में  से एक हैं। छायावादी युग को जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' और रामकुमार वर्मा जैसे  कवियों का युग कहा जाता है।

बागेश्वर (उत्‍तराखंड) में जन्‍म लेने के कारण झरना, बर्फ, पुष्प, लता, भंवरा गुंजन, उषा किरण, शीतल पवन, तारों की चुनरी ओढ़े गगन से उतरती संध्या ये सब तो सहज रूप से काव्य का उपादान बने।

निसर्ग के उपादानों का प्रतीक व बिम्ब के  रूप में प्रयोग उनके काव्य की विशेषता रही।

उनका व्यक्तित्व भी आकर्षण का केंद्र बिंदु था, गौर वर्ण, सुंदर सौम्य मुखाकृति, लंबे घुंघराले बाल, उंची नाजुक कवि का प्रतीक समा शारीरिक सौष्ठव उन्हें सभी से अलग मुखरित करता था।



1. सुख-दुख

सुख-दुख के मधुर मिलन से
यह जीवन हो परिपूरन;
फिर घन में ओझल हो शशि,
फिर शशि से ओझल हो घन !

मैं नहीं चाहता चिर-सुख,
मैं नहीं चाहता चिर-दुख,
सुख दुख की खेल मिचौनी
खोले जीवन अपना मुख !
जग पीड़ित है अति-दुख से
जग पीड़ित रे अति-सुख से,
मानव-जग में बँट जाएँ
दुख सुख से औ’ सुख दुख से !

अविरत दुख है उत्पीड़न,
अविरत सुख भी उत्पीड़न;
दुख-सुख की निशा-दिवा में,
सोता-जगता जग-जीवन !

यह साँझ-उषा का आँगन,
आलिंगन विरह-मिलन का;
चिर हास-अश्रुमय आनन
रे इस मानव-जीवन का !



2. जीना अपने ही में

जीना अपने ही में… एक महान कर्म है
जीने का हो सदुपयोग… यह मनुज धर्म है
अपने ही में रहना… एक प्रबुद्ध कला है
जग के हित रहने में… सबका सहज भला है
जग का प्यार मिले… जन्मों के पुण्य चाहिए
जग जीवन को… प्रेम सिन्धु में डूब थाहिए
ज्ञानी बनकर… मत नीरस उपदेश दीजिए
लोक कर्म भव सत्य… प्रथम सत्कर्म कीजिए



3. मोह

छोड़ द्रुमों की मृदु-छाया,
तोड़ प्रकृति से भी माया,
बाले! तेरे बाल-जाल में कैसे उलझा दूँ लोचन?
भूल अभी से इस जग को!
तज कर तरल-तरंगों को,
इन्द्र-धनुष के रंगों को,
तेरे भ्रू-भंगों से कैसे बिंधवा दूँ निज मृग-सा मन?
भूल अभी से इस जग को!
कोयल का वह कोमल-बोल,
मधुकर की वीणा अनमोल,
कह, तब तेरे ही प्रिय-स्वर से कैसे भर लूँ सजनि!  श्रवन?
भूल अभी से इस जग को!
ऊषा-सस्मित किसलय-दल,
सुधा रश्मि से उतरा जल,
ना, अधरामृत ही के मद में कैसे बहला दूँ जीवन?
भूल अभी से इस जग को!



4. झर पड़ता जीवन डाली से

झर पड़ता जीवन-डाली से
मैं पतझड़ का-सा जीर्ण-पात!–
केवल, केवल जग-कानन में
लाने फिर से मधु का प्रभात!
मधु का प्रभात!–लद लद जातीं
वैभव से जग की डाल-डाल,
कलि-कलि किसलय में जल उठती
सुन्दरता की स्वर्णीय-ज्वाल!
नव मधु-प्रभात!–गूँजते मधुर
उर-उर में नव आशाभिलास,
सुख-सौरभ, जीवन-कलरव से
भर जाता सूना महाकाश!
आः मधु-प्रभात!–जग के तम में
भरती चेतना अमर प्रकाश,
मुरझाए मानस-मुकुलों में
पाती नव मानवता विकास!
मधु-प्रात! मुक्त नभ में सस्मित
नाचती धरित्री मुक्त-पाश!
रवि-शशि केवल साक्षी होते
अविराम प्रेम करता प्रकाश!
मैं झरता जीवन डाली से
साह्लाद, शिशिर का शीर्ण पात!
फिर से जगती के कानन में
आ जाता नवमधु का प्रभात!



5. अमर स्पर्श

खिल उठा हृदय,
पा स्पर्श तुम्हारा अमृत अभय!

खुल गए साधना के बंधन,
संगीत बना, उर का रोदन,
अब प्रीति द्रवित प्राणों का पण,
सीमाएँ अमिट हुईं सब लय।

क्यों रहे न जीवन में सुख दुख
क्यों जन्म मृत्यु से चित्त विमुख?
तुम रहो दृगों के जो सम्मुख
प्रिय हो मुझको भ्रम भय संशय!

तन में आएँ शैशव यौवन
मन में हों विरह मिलन के व्रण,
युग स्थितियों से प्रेरित जीवन
उर रहे प्रीति में चिर तन्मय!

जो नित्य अनित्य जगत का क्रम
वह रहे, न कुछ बदले, हो कम,
हो प्रगति ह्रास का भी विभ्रम,
जग से परिचय, तुमसे परिणय!

तुम सुंदर से बन अति सुंदर
आओ अंतर में अंतरतर,
तुम विजयी जो, प्रिय हो मुझ पर
वरदान, पराजय हो निश्चय!

प्रस्‍तुति: अलकनंदा सिंह

Friday, 1 December 2017

30 दिस. पुण्‍यतिथि है हिंदी गज़ल के पहले शायर दुष्यंत कुमार की, पढ़िए ये चुनिंदा रचनाएं

हिंदी गज़ल के पहले शायर और सत्ता के खिलाफ मुखर होकर खड़े होने वाले लेखक दुष्यंत कुमार की आज पुण्‍यतिथि है. उनकी गज़लों के कुछ शेर युवाओं की ज़ुबां पर चढ़े हुए हैं. 1 सितंबर 1933 को उत्तर प्रदेश के राजपुर नवादा में जन्मे दुष्यंत कुमार को इलाहाबाद ने खूब संवारा. उसके बाद दिल्ली और भोपाल में भी वो कई वर्षों तक रहे. 30 दिसम्‍बर 1975 को उनका देहावसान हो गया.
दुष्यन्त कुमार त्यागी समकालीन हिन्दी कविता के एक ऐसे हस्ताक्षर हैं, जिन्होंने कविता, गीति नाट्‌य, उपन्यास आदि सभी विधाओं पर लिखा है । उनकी गज़लों ने हिन्दी गज़ल को नया आयाम दिया । उर्दू गज़लों को नया परिवेश और नयी पहचान देते हुए उसे आम आदमी की संवेदना से जोड़ा ।
उनकी हर गज़ल आम आदमी की गज़ल बन गयी है, जिसमें चित्रित है, आम आदमी का संघर्ष, आम आदमी का जीवनादर्श, राजनैतिक विडम्बनाएं और विसंगतियां । राजनीतिक क्षेत्र का जो भ्रष्टाचार है, प्रशासन तन्त्र की जो संवेदनहीनता है, वही इसका स्वर है । दुष्यन्त कुमार ने गज़ल को रूमानी तबिअत से निकालकर आम आदमी से जोड़ने का कार्य किया है ।
कवि दुष्यन्त कुमार त्यागी का जन्म 1 सितम्बर सन् 1933 में बिजनौर जनपद की नजीबाबाद तहसील के अन्तर्गत नांगल के निकट ग्राम-नवादा में एक सम्पन्न त्यागी परिवार में हुआ था। उनके पिता श्री भगवतसहाय तथा माता श्रीमती राजकिशोरी थीं। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा नहटौर, जनपद-बिजनौर में हुई ।
उनके हाई स्कूल की परीक्षा एन॰एस॰एम॰ इन्टर कॉलेज चन्दौसी, जिला-मुरादाबाद से उत्तीर्ण की थी । उनका विवाह सन् 1949 में सहारनपुर जनपद निवासी श्री सूर्यभानु की सुपुत्री राजेश्वरी से हुआ । उन्होंने सन् 1954 में हिन्दी में एम॰ए॰ की उपाधि प्राप्त की ।
सन् 1958 में आकाशवाणी दिल्ली में पटकथा लेखक के रूप में कार्य करते हुए सहायक निदेशक के पद पर उन्नत होकर सन् 1960 में भोपाल आ गये । साहित्य साधना स्थली भोपाल में 30 दिसम्बर 1975 में मात्र 42 वर्ष की अल्पायु में वे साहित्य जगत् से विदा हो गये ।
उन्होंने इतने अल्प समय में भी नाटक, एकांकी, रेडियो नाटक, आलोचना तथा अन्य विधाओं पर अपनी सशक्त लेखनी चलायी । उनकी रचनाओं में ”सूर्य का स्वागत”, ”आवाजों के घेरे में”, ”एक कण्ठ विषपायी”, ”छोटे-छोटे सवाल”, ”साये में धूप”, “जलते हुए वन का वसंत”, ”आगन में एक वृक्ष”, ”दुहरी जिन्दगी” प्रमुख हैं ।
साये में धूप से उनको विशेष पहचान मिली, जिसमें गज़लों का आक्रामक तेवर अन्दर तक तिलमिला देने वाला है । देशभक्तों ने आजादी के लिए इतनी कुरबानियां दी थीं कि देश का प्रत्येक व्यक्ति शान्ति और सुख से सामान्य जीवन जी सके, किन्तु राजतन्त्र एवं प्रशासन तन्त्र ने आम आदमी की ऐसी दुर्दशा की है।
उनकी कुछ अतिप्रसिद्ध रचनाऐं
कहा तो तै था, चिरागां हरेक घर के लिए,
कहां चिराग मयस्सर नही, शहर के लिए ।
आम आदमी बदहाली में जीने की विवशता पर-
न हो तो कमीज तो पांवों से पेट ढक लेंगे,
ये लोग कितने मुनासिब है, इस सफर के लिए ।
आजादी के बाद हम अपनी संस्कृति को भूलकर शोषण की तहजीब को आदर्श माने जाने पर-
अब नयी तहजीब की पेशे नजर हम,
आदमी को भूनकर खाने लगे हैं।
गरीबी व भुखमरी पर-
कई फांके बिताकर मर गया जो, उसके बारे में,
वो सब कहते हैं अब, ऐसा नहीं, ऐसा हुआ होगा ।
संवेदनाएं इतनी मर गयी हैं, कवि के शब्दों में-
इस शहर में हो कोई बारात या वारदात ।
अब किसी बात पर नहीं, खुलती है खिड़कियां ।।
ऐसा नहीं है कि कवि व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह नहीं करना चाहता है; वह व्यवस्था तन्त्र को पूरी तरह बदल देना चाहता है-
सिर्फ हंगामा खड़ा करना, मेरा मकसद नहीं,
कोशिश ये है कि सूरत बदलनी चाहिए ।
वह परिवर्तन लाना चाहता है, आमूल-चूल परिवर्तन-
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो,
ये कंवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं
पक गयी आदतें बातों से सर होंगी नहीं ।
कोई हंगामा खड़ा करो ऐसे गुजर होगी नहीं ।
आम आदमी की दुर्दशा और देश की दुर्दशा का व्यक्ति बिम्ब कवि के शब्दों में-
कल की नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए,
मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिन्दुस्तान है ।
कुलमिलाकर कवि दुष्यन्त कुमार एक ऐसे रचनाकार रहे हैं, जिन्होंने गज़ल का परम्परागत रोमानी भावुकता से बाहर लाकर आम आदमी से जोड़ने का कार्य किया है ।
स्वातंत्र्योत्तर भारत में आम आदमी की पीडा, शासकों का दोहरा चरित्र, चारित्रिक पतन, देश की दुर्दशा को देखकर कवि चुप नहीं रहना चाहता है; क्योंकि उन्हीं के शब्दों में-
मुझमें बसते हैं करोड़ो लोग, चुप रही कैसे ?
हर गज़ल अब सल्तनत के नाम बयान है ।
दुष्यन्त कुमार त्यागी सचमुच ही एक साहित्यकार थे । स्वधर्म से अच्छी तरह वाकिफ, जिसे उन्होंने निभाया भी है । उनका प्रदेय साहित्य जगत् में अमर रहेगा ।
-Legend News