वहां- उस गांव में, कौन रहता है अब...?
जहां सुबह तुलसी चौरे पर दिया बालती
जोर जोर से घंटियां हिलाती अम्मा से
हम, सुबह अंधेरे ही उठा देने के गुस्से में,
कहते अम्मा बस करो, हम जाग गए हैं,
अम्मा आरती गातीं, आंखों को तरेरतीं,
हमें चुप रहने का संकेत करतीं थीं जब....?
और यहां शहर में.. वही अम्मा हैं और
वही सुबह है अब भी ... मगर,
ए. सी. के बंद कमरों में न चिड़िया चहचहाती है
न तुलसी चौरा खड़ा है वहां...,
न अम्मा की तरेरती आंखें हैं ...
...अब अम्मा लाठी के सहारे टटोलकर जाती हैं,
पड़ोस में बने सार्वजनिक मंदिर में,
और मंदिर के तुलसी चौरा के गले लिपट कर
ना जाने क्या बुदबुदाती रहती हैं
बड़ी देर तलक, कभी होठों के किनारे पर
आई मुस्कान पोंछती हैं
तो कभी पल्लू और नीचा कर लेती हैं
चौरे से बतियाती हुई लजा जाती हैं अम्मा,
वहां - उस गांव में, कौन रहता है अब...?
कि गांव की जिस भीत पर छापे थे अम्मा ने
अपने कोमल हाथ लाल लाल,
कि जैसे थाम ही लेगी वह उसकी
लटकी हुई चौखट को, तब
देहरी पर लाज से दोहरी हुई अम्मा को
जब 'दारजी' ने पहली बार थामा था,
और जड़ाऊ परदे से अम्मा आंखों में सकुचाई थीं,
उसी दरवाजे पर अब एक बीहड़ी लता उग आई है ...
अम्मा आज भी जब उन्हीं दरवाजों से झांकती हैं,
दरवाजे को देख पल्लू को और नीचे खिसकाती हैं,
जैसे वो षोडसी शरमाईं थीं, दहलीज पर ...
वहां- उस गांव में, कौन रहता है अब...?
वो आंगन का कुआं, वो गिरारी- मूंज की रस्सी से
सुर्ख हो जातीं थीं जो अम्मा के हाथ की नरम उंगलियां,
अब सब ढंक गई हैं उस कुऐं पर उग आए झाड़ों से,
उग आई है वहां नाम की अमरबेल,
जिसने निगल लिए हैं ना जाने कितने रिश्ते...
वहां - उस गांव में, कौन रहता है अब... ?
जबकि गांव खाली होकर शहर की ओर भाग रहा है,
तभी तो गीदड़ की मौत मर रहे हैं रिश्ते..भी
मगर अम्मा का प्यार अब भी उस दहलीज से,
उन हथेलियों, तुलसी चौरे, आंगन के कुंऐ से
बावस्ता है ... जहां उस ठांव में पूरा का पूरा गांव रहता था तब ।
- अलकनंदा सिंह
जहां सुबह तुलसी चौरे पर दिया बालती
जोर जोर से घंटियां हिलाती अम्मा से
हम, सुबह अंधेरे ही उठा देने के गुस्से में,
कहते अम्मा बस करो, हम जाग गए हैं,
अम्मा आरती गातीं, आंखों को तरेरतीं,
हमें चुप रहने का संकेत करतीं थीं जब....?
और यहां शहर में.. वही अम्मा हैं और
वही सुबह है अब भी ... मगर,
ए. सी. के बंद कमरों में न चिड़िया चहचहाती है
न तुलसी चौरा खड़ा है वहां...,
न अम्मा की तरेरती आंखें हैं ...
...अब अम्मा लाठी के सहारे टटोलकर जाती हैं,
पड़ोस में बने सार्वजनिक मंदिर में,
और मंदिर के तुलसी चौरा के गले लिपट कर
ना जाने क्या बुदबुदाती रहती हैं
बड़ी देर तलक, कभी होठों के किनारे पर
आई मुस्कान पोंछती हैं
तो कभी पल्लू और नीचा कर लेती हैं
चौरे से बतियाती हुई लजा जाती हैं अम्मा,
वहां - उस गांव में, कौन रहता है अब...?
कि गांव की जिस भीत पर छापे थे अम्मा ने
अपने कोमल हाथ लाल लाल,
कि जैसे थाम ही लेगी वह उसकी
लटकी हुई चौखट को, तब
देहरी पर लाज से दोहरी हुई अम्मा को
जब 'दारजी' ने पहली बार थामा था,
और जड़ाऊ परदे से अम्मा आंखों में सकुचाई थीं,
उसी दरवाजे पर अब एक बीहड़ी लता उग आई है ...
अम्मा आज भी जब उन्हीं दरवाजों से झांकती हैं,
दरवाजे को देख पल्लू को और नीचे खिसकाती हैं,
जैसे वो षोडसी शरमाईं थीं, दहलीज पर ...
वहां- उस गांव में, कौन रहता है अब...?
वो आंगन का कुआं, वो गिरारी- मूंज की रस्सी से
सुर्ख हो जातीं थीं जो अम्मा के हाथ की नरम उंगलियां,
अब सब ढंक गई हैं उस कुऐं पर उग आए झाड़ों से,
उग आई है वहां नाम की अमरबेल,
जिसने निगल लिए हैं ना जाने कितने रिश्ते...
वहां - उस गांव में, कौन रहता है अब... ?
जबकि गांव खाली होकर शहर की ओर भाग रहा है,
तभी तो गीदड़ की मौत मर रहे हैं रिश्ते..भी
मगर अम्मा का प्यार अब भी उस दहलीज से,
उन हथेलियों, तुलसी चौरे, आंगन के कुंऐ से
बावस्ता है ... जहां उस ठांव में पूरा का पूरा गांव रहता था तब ।
- अलकनंदा सिंह