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Saturday, 12 September 2015

वहां- उस गांव में, कौन रहता है अब...?

वहां-  उस गांव में, कौन रहता है अब...?
जहां सुबह तुलसी चौरे पर दिया बालती
जोर जोर से घंटियां हिलाती अम्मा से
हम, सुबह अंधेरे ही उठा देने के गुस्से में,
कहते अम्मा बस करो, हम जाग गए हैं,
अम्मा आरती गातीं, आंखों को तरेरतीं,
हमें चुप रहने का संकेत करतीं थीं जब....?

और यहां शहर में.. वही अम्मा हैं और
वही सुबह है अब भी ... मगर,
ए. सी. के बंद कमरों में न चिड़ि‍या चहचहाती है
न तुलसी चौरा खड़ा है वहां...,
न अम्मा की तरेरती आंखें हैं ...
...अब अम्मा लाठी के सहारे टटोलकर जाती हैं,
पड़ोस में बने सार्वजनिक मंदिर में,
और मंदिर के तुलसी चौरा के गले लिपट कर
ना जाने क्या बुदबुदाती रहती हैं
बड़ी देर तलक, कभी होठों के किनारे पर
आई मुस्कान पोंछती हैं
तो कभी पल्लू और नीचा कर लेती हैं
चौरे से बतियाती हुई लजा जाती हैं अम्मा,

वहां - उस गांव में, कौन रहता है अब...?
कि गांव की जिस भीत पर छापे थे अम्मा ने
अपने कोमल हाथ लाल लाल,
कि जैसे थाम ही लेगी वह उसकी
लटकी हुई चौखट को, तब
देहरी पर लाज से दोहरी हुई अम्मा को
जब 'दारजी' ने पहली बार थामा था,
और जड़ाऊ परदे से अम्मा आंखों में सकुचाई थीं,
उसी दरवाजे पर अब एक बीहड़ी लता उग आई है ...
अम्मा आज भी जब उन्हीं दरवाजों से झांकती हैं,
दरवाजे को देख पल्लू को और नीचे ख‍िसकाती हैं,
जैसे वो षोडसी शरमाईं थीं, दहलीज पर ...

वहां- उस गांव में, कौन रहता है अब...?
वो आंगन का कुआं, वो गिरारी- मूंज की रस्सी से
सुर्ख हो जातीं थीं जो अम्मा के हाथ की नरम उंगलियां,
अब सब ढंक गई हैं उस कुऐं पर उग आए झाड़ों से,
उग आई है वहां नाम की अमरबेल,
जिसने निगल लिए हैं ना जाने कितने रिश्ते...

वहां - उस गांव में, कौन रहता है अब... ?
जबकि गांव खाली होकर शहर की ओर भाग रहा है,
तभी तो गीदड़ की मौत मर रहे हैं रिश्ते..भी
मगर अम्मा का प्यार अब भी उस दहलीज से,
उन हथेलियों, तुलसी चौरे, आंगन के कुंऐ से
बावस्ता है ... जहां उस ठांव में पूरा का पूरा गांव रहता था तब ।

- अलकनंदा सिंह

Tuesday, 21 April 2015

भागा हुआ है खुदा

(1)

मंदिर के अंधेरे कोने में जो फूलों से दबा बैठा है
एक खुदा खौफ का मारा हुआ है आजकल

इत्र चंदन से नहाने का शौक जब से लगा उसे
गांव- मि‍ट्टी की खुश्बू से भागा हुआ है आजकल

खेतों को जाती, कांख में दबी रोटी का तूने ,खुदा !
जरूर उड़ाया होगा मज़ाक हंसकर कभी , तभी तो -

तेरे बुत को सुंघाया जाता है नकली परसाद और
नकली दूध से तू नहलाया जा रहा है आजकल
             
(2)
  

क्यूं तू समझेगा भूख का असल मानी , ज़रा बता
तेरी रसोई तो छप्पन भोगों से सजी है... तुझे क्या

डूबी फसल , मुआवजा , लेखपाल , सरकार
सब गिद्ध मानुस 'भूख' को बेच रहे,  तुझे क्या

तू तो कल चंदन से नहाकर देगा उनको दरसन
जेबतराशों  की दंडवतों पै मुस्काएगा , तुझे क्या

तेरी आरती की गूंज क्या उस घर को दे पाएगी सुकूं
मासूमों के पेट के लिए बाप करे खुदकुशी, तुझे क्या

मंदिर में खड़ा जयकारों में मशगूल बना रह
खेतों के खुदा की मौत पर  तू जश्न मना, तुझे क्या ।

- अलकनंदा सिंह






Wednesday, 15 April 2015

राजस्थान पत्र‍िका के रविवार 12.04.2015 में प्रकाश‍ित मेरी कहानी - पगले का दान

राजस्थान पत्र‍िका के रविवार 12.04.2015 में प्रकाश‍ित मेरी कहानी - पगले का दान । 
पूरी कहानी पढ़ने के लिये कृपया लिंक पर क्लिक करें.... 



Friday, 3 April 2015

रेडलाइट वाली औरतें


उस बस्ती की औरतें हैं या
ये निशाचरों की है दुनिया ,
वे निकलती हैं रात को
दिन का उजाला लेकर
पाप क्या और पुण्य क्या
वहां कोई तोल नहीं सकता
ज़हर पीने वाली बना दी गईं पापी
और हाथ झाड़ खड़ा होता है पुण्यात्मा
बीवी बच्चों के सामने देता है
ईश्वर की दुहाई
...... हकीकत इतनी सी है कि
फि‍र कितने धर्माचार्य हो जायेंगे-
 बेरोजगार ....
यदि बता दे उनके भक्तों को कोई
कि रहती हैं अब भी
धरती पर नीलकंठ की भौतिक देहें
जो पुण्यात्माओं की दैहिक तृप्ति के लिए
पी जाती हैं गरल हंसते हंसते
उस बस्ती की औरतें भी तो नीलकंठ ही हैं ?
उन गरलगर्भाओं के तप को
बस्ती के नाम ने डस लिया
तभी तो रात को सजती हैं संवरती हैं ...
जागती हैं पुण्यात्माओं का गरल पीने को ।

- अलकनंदा सिंह 

Monday, 30 March 2015

वह जो आज अदृश्‍य हो गई

(1)
वह आत्‍मा...ही तो है अकेली जो !
निराकार..निर्लिप्‍त भाव से ही,
प्रेम का अस्‍तित्‍व बताने को -
अपने विशाल अदृश्‍य शून्‍य में...
प्रवाहित करती रहती है आकार,
निपट अकेली पड़ गई आज वो..
जिसने स्‍वयं को करके विलीन,
निराकार से आकारों में ढली पर ..अब..
अब ढूंढ़ रही है अपना वो दबा हुआ छोर,
जो थमा दिया था देह को.. स्‍वयं कि-
हो कर निश्‍चिंत  अब जाओ..और,
दे दो प्रेम को, उसका विराट स्‍वरूप
---पर ये षडयंत्र रचा प्रकृति ने
कि- प्रेम का सारा श्रेय..
देह अकेली ही पा गई ,
वही व्‍यक्‍त करती गई सब संप्रेषण प्रेम के-
ये देखकर --कोने में धकेली, ठगी रह गई...आत्‍मा,
और आज...
देख अपने शून्‍य का विलाप
देख देह का निर्लज्‍ज प्रलाप कि-
निर्भय हो देह ने थामा है असत्‍य
और उसी असत्‍य के संग ...
एक छोर से.. प्रेम की पवित्रता को-
हौले हौले रौंदकर आगे चलती रही देह
गढ़ती रही प्रेम की नई नई परिभाषायें...
                    
(2)
आज के प्रेम की नई भाषा..है ये कि-
जहां और जब  दिखती है.. देह,
तो  दिखता है..प्रेम भी वहीं पर
मगर इसकी आत्‍मा..हुई विलीन?
दिखाकर आज के प्रेम का नया स्‍वरूप
वह वाष्‍पित हो कबकी उड़ गई कहीं
आत्‍मविहीन हो गया प्रेम और..
ऐसे ही निष्‍प्राण प्रेम से... जो उग रहा है..
वह तप्‍त है देह के अभिमान से..आज
तभी तो.....
जल रहा है जब सृष्‍टि का आधार ही
तब..प्रेम बिन जीवन कैसा..ये
वो हुआ अब आत्‍मविहीन, तो फिर प्रेम कैसा ..
फिर इसे देह में प्रवाहित करने को
कौन साधेगा संधान, भागीरथ अब कौन बने
कौन सिक्‍त करे.. आत्‍मा की गंगा से इसको
कंपकंपा रहा प्रेम... तप रही है देह तभी..
फिर कैसे हो सृष्‍टि का प्रेममयी आराधन
झांके कौन देह के भीतर.. पाने को मर्म स्‍पंदन
- अलकनंदा सिंह

Tuesday, 17 February 2015

भयमुक्त करने वाला ही बाजार में खड़ा है

आज शि‍वरात्रि है , शि‍व और शक्त‍ि के विवाह की तिथि, सभी शिवालय लोगों के हुजूम से भरे हुए रहे । आम दिनों में बिखरे पड़े रहने वाले बेलपत्रों की आज कीमत कई गुना बढ़ गई । कांवडि़यों के जत्थे शि‍वालयों पर अपना प्रथम अधि‍कार जताने में लगे रहे । आज पूरे दिन के व्रत का समापन रात्रि में जागरण कर अनुष्ठानों के साथ होगा। तांत्रिकों के लिए अपनी साधना सिद्धि वाली  शुभ घड़ी आई है।
कुल मिलाकर धर्म का बड़ा बाजार सजा है मगर जिस ईश्वर और उसकी भक्त‍ि के लिए ये सब सजाया गया है , लोग पागलों की भांति चीख रहे हैं , चिल्ला रहे हैं... वही ईश्वर अपने रचाए नाटक की इस परिणति पर मुस्कुरा रहा है... कि कितनी सफाई से भक्त‍ि से लेकर भाव तक , पूजा से लेकर पूजन सामिग्री तक सब कमीशन की भभूति में लपेट दिया गया है।
इस सजे हुए बाजार के प्रेरणास्रोत संत- महात्माओं ने जिस माया से बचकर निकलने की बात कहकर माया का ही बाजार लगवा दिया और स्व-पूजन की महात्वाकांक्षा में ईश्वर को भी लपेट लिया, निश्चित ही  वे अपने लक्ष्य को पाने में सफल हो गए हैं ।  ईश्वर की अनुपस्थ‍िति में उसी की आराधना का भ्रम तैयार करना , भ्रम से ही उपजे भय को व्यापक बनाना और भय जितना व्यापक होगा , बाजार की संभावनायें उतनी ही  ज्यादा होंगी।
ये एक चक्र है महात्वाकांक्षा, भय , भ्रम और बाजार का जिसने स्वयं को स्वयं से ही दूर कर दिया और इस दूरी का लाभ मिला उन लोगों को,  जो उंगली पकड़कर अपने अपने ईश्वर का पता बताने में जुटे रहे और उनका अभ‍ियान अब भी जारी है।
ये भय के बाजार नियामक यह नहीं बताते कि श‍िव-लिंग की पूजा का अर्थ है स्वयं की कामनाओं पर विजय हेतु संकल्प साधना। मानसिक व शारीरिक कामनाओं की उच्छृंखलता के दुष्परिणामों को क्या हम रोजाना के बलात्कारों में देख नहीं रहे। 
धर्म - बाजार के ये नियामक यह भी नहीं बताते कि बेलपत्र को मंदिरों में अर्पित करने की बजाय यदि इसका सेवन कर लिया जाए तो हृदय रोग व उदर रोगों से मुक्त‍ि मिल जाएगी और शक्त‍ि बढ़ेगी। शक्ति बढ़ने से दूषि‍त सोच समाप्त होगी और धर्म स्वयमेव स्थापित हो जाएगा ।
एक बेलपत्र से धर्म तक जाने का इतना आसान रास्ता उनके सारे आडंबरों पर पानी फेर सकता है।
इसी भय के बाजार ने अनगढ़ अमूर्त और अजन्मे शि‍व को एक मूर्ति या उसके शिवलिंग के रूप में समेटकर धर्म के वास्तविक ज्ञान से आमजन को दूर रखा। 

इस संबंध में  ऋषि शांडिल्य का सूत्र है -    
' भजनीयेन अद्वितीयम् इदं, कृत्स्नस्य तत् स्वरूपत्वात्।। '
जिसका पहला भाग है ' भजनीयेन अद्वितीयम् इदं... अर्थात्---

यहां जो भी है, वही है। यहां प्रत्येक वस्तु आराध्य है। यहां और मूर्तियां बनाने की जरूरत नहीं है, सभी मूर्तियां उसकी हैं। यहां मंदिर खड़े करना व्यर्थ है, हमारा सारा अस्तित्व ही मंदिर है।

भगवान हर जगह है, मंदिर के बाहर भी है, मंदिर में भी है। मंदिर भगवान में है ना कि भगवान मंदिर में । यानि सारा अस्तित्व भगवान में हैं। पूजा का खयाल उठते ही हम मंदिर की ओर भागते हैं परंतु वह क्या है जो मंदिर में नहीं है और शेष रह गया ?
मंदिरों तक ईश्वर को समेट देने के कारण यह सारा जीवन वंचित हो गया। परमात्मा सिकुड़ गया, छोटा हो गया। उसकी मूर्तियां बना लीं, पवित्र तीर्थस्थल बना लिये और इन तीर्थ स्थलों  के अलावा सब कुछ अपवित्र की श्रेणी में रख दिया गया। जबकि यह सारा आकाश तीर्थ है, सब नदियां गंगाएं हैं और सारी पृथ्वी पवित्र है। सब रूपों में वही है।

ऋषि शांडिल्य के इसी सूत्र का अगला भाग है  '' ...  कृत्स्नस्य तत् स्वरूपत्वात्।।''  अर्थात्
शांडिल्य कहते हैं—वह संपूर्ण में छाया हुआ है। भगवान सबमें है। इसलिए विश्व भजनीय है। भजन करो विश्व का।
तो अब दूसरे किसका भजन करना? भजन करने को कहीं जाने की जरूरत ही कहां है? जहां आंख खोलो, जिस पर आंख पड़ जाए, वही भजनीय है। जहां सुनो और जो सुनायी पड़ जाए, वही ओंकार का नाद है। जिसे छुओ और जो छूने में आए, वही ईश है। जिसे तुम अछूत कहते हो, उसमें भी तुम उसीको छूते हो। अस्पृश्य में भी उसी का स्पर्श होता है। जिसको तुम जड़ कहते हो, उसमें भी वही सोया है। जिसको तुम चेतना कहते हो, उसमें भी वही जागा है। इस विराट की प्रतीति जितनी सघन हो जाए, उतना शुभ।

यह सूत्र बड़ा अदभुत है। ऐसी भजन की परिभाषा किसी ने भी नहीं की जैसी शांडिल्य ने की है परंतु धर्म ,  पूजा और भक्ति के तरीकों पर अपने अपने एकाधिकार को लड़ने वाले संत व महात्मा क्योंकर बतायेंगे इस सच को ।
बहरहाल अब भी धर्म के इन व्यापारियों का सच जानने की बजाय उनका अंधानुकरण करने की प्रवृत्त‍ि,  क्या हमें बार बार सचेत नहीं कर रही कि ...ऐसा क्यों हुआ कि मंदिरों में जितनी भीड़ बढ़ी है उतना ही या उससे कहीं ज्यादा अधर्म भी बढ़ा है ... ।
सैकड़ों चैनलों पर गंडे ताबीजों से लेकर वो सब काम कराये जा रहे हैं लोगों से जिनसे वे स्वयं को जान ही ना सकें। वो स्वयं को जान लेंगे तो धर्म का बाजार ठप्प हो जाने का पूरा पूरा खतरा है।
क्या हम तकनीक के इस सर्वज्ञाता युग में भी यह जानने का प्रयास नहीं करेंगे कि आखि‍र ...  बेलपत्र,  शिवलिंग और शक्ति बढ़ाने को व्रत रखने वाले उपायों के पीछे आध्यात्मिक और वैज्ञानिक तथ्य क्या हैं। मन, शरीर और प्रकृति से दूर हम कब तक एक लकीर के फकीर बने रहेंगे और भय के बाजार व इन्हें संचालित करने वालों की उंगलियों पर नाचने लगेंगे।

- अलकनंदा सिंह


Saturday, 14 February 2015

प्रेम का ऐसा हठयोग ...?


आलता भरे पांव से वो ठेलती है,
उन प्रभामयी रश्म‍ियों को,
कि सूरज आने से पहले लेता हो आज्ञा उससे
प्रेम का ऐसा हठयोग
देखा है तुमने कभी

कैसे पहचानोगे कि
कौन बेताल है, 
और
कौन विक्रमादित्य,
जिसके कांधे पर झूलता है
मेरा और तुम्हारा मन 

ठंडी हुई आंच में  भी सुलगने लगता है
कोई अक्षर सा...  कोई मौसम सा...  तब ,
कह सकते हैं कि
तुम्हारी सांस के संग एक और सांस
सो रही हैं अलसुबह तक

क्या तुमने देखी है मेरे उन मनकों की माला
जो तुम्हारे रंग से सूरज हो जाया करती है
अपने वादों की गठरी में से उछाल दिए हैं
कुछ ऐसे ही मनके मैंने...  संभलो और
चुनकर एक माला फिर बना दो,

ये बसंत ये फागुन ये प्रलोभन रंगों के
सूरज की रश्म‍ियों को रोक कर
तुम्हारे लिए दान करती रही हूं मैं ,
एक कैनवास मेरे भी रंग का हो
लीपे  हुए  घर  की तरह सु्गंधि‍त ...

- अलकनंदा सिंह