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Saturday, 26 July 2014

किसके हस्‍ताक्षर हैं ये

वो आवाजें जो गूंजती हैं रातों को
बिछा देती हैं कुछ करवटें अपने अहं की
वो आंखें जो देती हैं सूरतों पर निशान
वो  प्रेम के ही अस्‍तित्‍व की चिता बुनती हैं

हिम्‍मतें भी जोर से उछलती हैं अंतर्मन में
ढूढ़ती अपने ही अस्‍तित्‍व को
देखती रहती हैं राह बुढ़ापे की
कि शायद तब तक तो ठंडा हो जायेगा
तुम्‍हारे उस अप्रेम प्रेम का दावा
जो अकाल में ही चबा गया है प्रेम को,
अस्‍तित्‍व को, धर्म को , विश्‍वास को
तुम्‍हारे विश्‍वास को अपनी श्रद्धा का
 आचमन कहां दे पाई मैं देखो तो...

गर्व से जब तुम्‍हारा सीना फूलता है
तब मेरी सांसें अंतिम यात्रा का,
करती हैं इंतजार ...क्‍योंकि,
प्रेम से अहं पर
विजय पाने की कला
अब तक नहीं सीखी जा सकी

 भ्रम था तुम्‍हारी हथेलियों में आने का
तुम्‍हारे ह्रदय में समाते चले जाने का
या थी वो प्रेम की मृगतृष्‍णा मेरी
कि मैं नहीं दे पाई तुम्‍हें
अपने प्रेम का प्रमाणपत्र
जिसपर तुम करते अपने हस्‍ताक्षर

मगर देखो कोरे कागज में ही दर्ज़ होती हैं
प्रेम की  अनेक गाथायें-निर्बलतायें
हस्‍ताक्षरविहीन कागज तुम्‍हारे घर की ओर
उड़ा दिया है मैंने कबका....
-अलकनंदा सिंह