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Sunday, 13 July 2014

तुम यहीं हो...

ये आहटें,ये खुश्‍बुएं,ये हवाओं का थम जाना,
बता रहा  है कि तुम यहीं हो सखा,
मेरे आसपास...नहीं नहीं...
मेरे नहीं मेरी आत्‍मा के पास
मन के बंधन से मुक्‍त
तन के बंधन भी कब के हुए विलुप्‍त
....छंद दर छंद पर तुम्‍हारी सीख कि
धैर्य से जीता जा सकता है सबकुछ
रखती हूं धैर्य भी पर....
जीवन की निष्‍प्राणता से तनिक
चिंतायें उभर आती हैं कि
हे सखा तुमसे  मिलने के लिए
क्‍या....शरीर त्‍यागना जरूरी है

- अलकनंदा सिंह