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Monday 16 June 2014

हे स्‍त्री ...!

 [1]
अपनी छाती को वे कूट रहे हैं और
अनर्गल चीख रहे हैं, करते कोलाहल वे...
अपने भीतर नहीं झांकते कभी जो,
वे भी अब दे  रहे हैं सीख कि-सुनो स्‍त्री !
भीतर बैठो, कुछ मत बोलो, मुंह सींकर तुम
इज्‍़जत के दोनों पलड़ों में तुम ही तुम हो
इधर झुके या उधर उठे, तुम ही दोषी हो
आंखें-कपड़े-चाल-ढाल और तुम्‍हारे मीठे बोल
सब पर कब्‍ज़ा है हमारा कि-
तुम कैसे हंसती हो, क्‍यों हंसती हो ,
कब तक नहीं मानोगी तुम ,
अब घर से नहीं झांकोगी तुम,
तुमने अपने लिए सोच कर
बड़ा अपराध किया है...स्‍त्री ! 
बताओ हमें तुम हो क्‍या, मांसपिंड और मज्‍जा की-
कुछ आकृतियां बस...कुछ इतना ही ना,
अधिकारों की बातों को तुम, सरकारों तक ही रहने दो
जो स्‍वतंत्र हैं वो ढीठ हैं, स्‍त्री नहीं हैं वो कदापि,
पाशों की भाषा कैसे भूल गईं तुम
चालक नहीं चालित बनी रहो तुम
कुछ बोलोगी तो निर्लज्‍ज तुम्‍हीं कहलाओगी
हर रोज खेत और चौराहों पर
निर्वस्‍त्र घुमाई जाओगी...सो,
दुष्‍कर्मों की वेदी पर जीवित ही चढ़ाई जाओगी
                         
 [2]

पर ये क्‍या...जिसको देते रहे अबतक सीख्‍ा,
वही आज ललकार आ रही हैं ...कानों में लावा डाल रही हैं...
पुरुष और स्‍त्री के बीच अस्‍तित्‍वों के युद्ध
इन चलते युद्धों के बीच
सजी वेदियों में अग्‍नि ने,स्‍त्री के संग बैठ
अपना भी ताप वाष्‍पित कर उड़ा दिया है

और...और...और....अब देखो वो लपटें जो
छोड़ीं थीं तुमने विकराल , उनमें झुलस झुलसकर ही
स्‍त्री की अग्‍नि ने, अपने उर की ज्‍वाला को
बना लिया है तुम पर हंसने का...
अपने स्‍व को जगा, तुम्‍हें पछाड़ने का...
एक अमोघ अस्‍त्र ताकि...ताकि...

तुम जलते रहो अपने अहं की आग में निरंतर
दूषित करते हो पौरुष को तुम,
आधी सृष्‍टि को फिर तुम कैसे पहचानोगे
तुम्‍हारे दूषित मन की--अहंकार की शुद्धि में
अभी और समय लगने वाला है...

देखें तबतक कितनी बार चढ़ेगी स्‍त्री
अपनी ही वेदी पर अपनों के ही हाथों...
फिर भी वे होकर निर्लज्‍ज कहेंगे तुमको कि-
हे स्‍त्री ! तुम ही हो कल्‍याणी...इस जीवन की
-अलकनंदा सिंह