वह आत्मा...ही तो है अकेली जो !
निराकार..निर्लिप्त भाव से ही,
प्रेम का अस्तित्व बताने को -
अपने विशाल अदृश्य शून्य में...
प्रवाहित करती रहती है आकार,
निपट अकेली पड़ गई आज वो..
जिसने स्वयं को करके विलीन,
निराकार से आकारों में ढली पर ..अब..
अब ढूंढ़ रही है अपना वो दबा हुआ छोर,
जो थमा दिया था देह को.. स्वयं कि-
हो कर निश्चिंत अब जाओ..और,
दे दो प्रेम को, उसका विराट स्वरूप
---पर ये षडयंत्र रचा प्रकृति ने
कि- प्रेम का सारा श्रेय..
देह अकेली ही पा गई ,
वही व्यक्त करती गई सब संप्रेषण प्रेम के-
ये देखकर --कोने में धकेली, ठगी रह गई...आत्मा,
और आज...
देख अपने शून्य का विलाप
देख देह का निर्लज्ज प्रलाप कि-
निर्भय हो देह ने थामा है असत्य
और उसी असत्य के संग ...
एक छोर से.. प्रेम की पवित्रता को-
हौले हौले रौंदकर आगे चलती रही देह
गढ़ती रही प्रेम की नई नई परिभाषायें...
(2)
आज के प्रेम की नई भाषा..है ये कि-
जहां और जब दिखती है.. देह,
तो दिखता है..प्रेम भी वहीं पर
मगर इसकी आत्मा..हुई विलीन?
दिखाकर आज के प्रेम का नया स्वरूप
वह वाष्पित हो कबकी उड़ गई कहीं
आत्मविहीन हो गया प्रेम और..
ऐसे ही निष्प्राण प्रेम से... जो उग रहा है..
वह तप्त है देह के अभिमान से..आज
तभी तो.....
जल रहा है जब सृष्टि का आधार ही
तब..प्रेम बिन जीवन कैसा..ये
वो हुआ अब आत्मविहीन, तो फिर प्रेम कैसा ..
फिर इसे देह में प्रवाहित करने को
कौन साधेगा संधान, भागीरथ अब कौन बने
कौन सिक्त करे.. आत्मा की गंगा से इसको
कंपकंपा रहा प्रेम... तप रही है देह तभी..
फिर कैसे हो सृष्टि का प्रेममयी आराधन
झांके कौन देह के भीतर.. पाने को मर्म स्पंदन
- अलकनंदा सिंह