वो आवाजें जो गूंजती हैं रातों को
बिछा देती हैं कुछ करवटें अपने अहं की
वो आंखें जो देती हैं सूरतों पर निशान
वो प्रेम के ही अस्तित्व की चिता बुनती हैं
हिम्मतें भी जोर से उछलती हैं अंतर्मन में
ढूढ़ती अपने ही अस्तित्व को
देखती रहती हैं राह बुढ़ापे की
कि शायद तब तक तो ठंडा हो जायेगा
तुम्हारे उस अप्रेम प्रेम का दावा
जो अकाल में ही चबा गया है प्रेम को,
अस्तित्व को, धर्म को , विश्वास को
तुम्हारे विश्वास को अपनी श्रद्धा का
आचमन कहां दे पाई मैं देखो तो...
गर्व से जब तुम्हारा सीना फूलता है
तब मेरी सांसें अंतिम यात्रा का,
करती हैं इंतजार ...क्योंकि,
प्रेम से अहं पर
विजय पाने की कला
अब तक नहीं सीखी जा सकी
भ्रम था तुम्हारी हथेलियों में आने का
तुम्हारे ह्रदय में समाते चले जाने का
या थी वो प्रेम की मृगतृष्णा मेरी
कि मैं नहीं दे पाई तुम्हें
अपने प्रेम का प्रमाणपत्र
जिसपर तुम करते अपने हस्ताक्षर
मगर देखो कोरे कागज में ही दर्ज़ होती हैं
प्रेम की अनेक गाथायें-निर्बलतायें
हस्ताक्षरविहीन कागज तुम्हारे घर की ओर
उड़ा दिया है मैंने कबका....
-अलकनंदा सिंह
बिछा देती हैं कुछ करवटें अपने अहं की
वो आंखें जो देती हैं सूरतों पर निशान
वो प्रेम के ही अस्तित्व की चिता बुनती हैं
हिम्मतें भी जोर से उछलती हैं अंतर्मन में
ढूढ़ती अपने ही अस्तित्व को
देखती रहती हैं राह बुढ़ापे की
कि शायद तब तक तो ठंडा हो जायेगा
तुम्हारे उस अप्रेम प्रेम का दावा
जो अकाल में ही चबा गया है प्रेम को,
अस्तित्व को, धर्म को , विश्वास को
तुम्हारे विश्वास को अपनी श्रद्धा का
आचमन कहां दे पाई मैं देखो तो...
गर्व से जब तुम्हारा सीना फूलता है
तब मेरी सांसें अंतिम यात्रा का,
करती हैं इंतजार ...क्योंकि,
प्रेम से अहं पर
विजय पाने की कला
अब तक नहीं सीखी जा सकी
भ्रम था तुम्हारी हथेलियों में आने का
तुम्हारे ह्रदय में समाते चले जाने का
या थी वो प्रेम की मृगतृष्णा मेरी
कि मैं नहीं दे पाई तुम्हें
अपने प्रेम का प्रमाणपत्र
जिसपर तुम करते अपने हस्ताक्षर
मगर देखो कोरे कागज में ही दर्ज़ होती हैं
प्रेम की अनेक गाथायें-निर्बलतायें
हस्ताक्षरविहीन कागज तुम्हारे घर की ओर
उड़ा दिया है मैंने कबका....
-अलकनंदा सिंह