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Tuesday, 24 September 2013

अहिल्‍या - ना शबरी..

हे सखा...हे ईश्‍वर..क्षीर नीर करके
दुनिया को भरमाया तुमने
पर मुझे न यूं बहला पाओगे
सखी हूं तुम्‍हारी , कोई माटी का ढेर नहीं,
ना ही अहिल्‍या - ना शबरी मैं
जो पैरों पर आन गिरूंगी
मैं हूं - तुम्‍हारा आधा हिस्‍सा
ठीक ठीक समझ लो तुम, कि...
तुम्‍हारी आधी सांस में पूरी आस हूं
आधा तुम्‍हारे मन का पूरा संकल्‍प हूं,
संकल्‍प हूं जीवन का - स्‍व को सहेजने का
तुम्‍हारे कर्तव्‍य पर आधा अधिकार हूं
सपनों का समय नहीं बचा अब,
संग चलकर साथ कुछ बोना है,
बोनी हैं अस्‍तित्‍व की माटी में,
अपनी हकीकतें भी मुझको...
- अलकनंदा सिंह


Monday, 9 September 2013

यूं चुकाया उसने अपने औरत होने का कर्ज़

मूक परछाईं सी- हठात बैठी वह,
कभी आंगन की उन ईंटों को कुरेदती -
 कभी आत्‍मा के चिथड़ों को समेटती
इधर उधर ताकती,दीवारों को तराशती

बूझती उनसे अगले पल की कहानी
ढूंढ़ती नजरें..  अपनी शुद्धता की निशानी
क्‍योंकि आज खून से खौलती आंखों को
उसने अपने शरीर का मोल देकर
खरीद ही लिया इस समय को --
उसकी आज़ादी वाली सोच को 
उसकी आधुनिकता को,

आज इस दंगे की हवस में
मांस मज्‍जा और अहं से बना शरीर
अगर काम न आता- तो वह
कैसे बचा पाती भला
उस कमसिन बच्‍ची की लाज
जिसने देखे थे बस तेरह बसंत,
गिद्धों के पंजों से  उसको बचाकर
स्‍वयं को उधेड़ कर, उस नन्‍हीं
बच्‍ची के बिखरे सपनों को  सींना
इस नश्‍वर शरीर का  दे गया मोल,
कर स्‍वयं को अनमोल- निभा दिया फ़र्ज़
कुछ यूं चुकाया उसने अपने औरत होने का कर्ज़

-अलकनंदा सिंह

Thursday, 5 September 2013

अक्‍स दर अक्‍स

एक हथेली भर ज़िंदगी
एक मुट्ठीभर अहसास
नापने बैठी जब भी सुख
तिर गये वे सारे दुख
हर पल देता गया मुझे
तेरे होने का अहसास

तू है, तो फिर मुझे दिखना चाहिए
नहीं है, तो गायब होता क्‍यों नहीं
मेरी बेटी की हंसी और
मां की दुआ में मुझे
तू ही तू, अक्‍स दर अक्‍स
दिखता क्‍यूं है मेरे बरक्‍स



 - अलकनंदा सिंह

Sunday, 1 September 2013

खुदाई को भी ऑक्‍सीजन चाहिये

आइना
खुद को इतना ऊंचा भी न उठा
न पाल खुदाई का फ़ितूर
ये इम्‍तिहान तेरा है, कि
दे अपने  होने का भी सबूत
कैसा खुदा है तू कि ना तो
बचा पाता है लाज किसीकी
न रख पाता है नाजो-ताज़

हरसूं बस नज़र आते रहना ही तो,
काम खुदा का नहीं होता
संभल जा अब भी वक्‍त है
ज़मीं की पेशानी पर पड़ रहे हैं बल
तेरे ही बंदे कर रहे हैं छल
हमारी तरह जीना भी सीख
ज़मीं पर पांव धरना भी सीख

खुदाई के नये पैमाने अब
गढ़ने का वक्‍त है
अभी तू है यहां, ये जहां खाली नहीं
 ये बताने का वक्‍त है
बता दे कि.. अभी तू बाकी है अहसासों में,
बता दे कि अभी तू है सिसकियों में- आवाज़ों में,
फिर.. फिर उठ खड़े होने वाले जज्‍़बों में
तेरा यूं मुंह छिपाना जायज़ नहीं
ए खुदा, सच कहती हूं
हर शै में हर पल,
इमरजेंसी के मरीज़ की तरह
अब तेरी खुदाई को भी
ऑक्‍सीजन चाहिये
खुदा बने रहना है तो
आ के देख, जी के देख ,
हंस के देख- तो साथ रो के भी देख
सिर्फ अपने होने का ही अहसास न करा।
- अलकनंदा सिंह